अंक 1- एक दिल टूटा. एक नेता मरा. एक बैठक हुई.
जिस 'सर्वसम्मति' से रविशंकर शुक्ला को मध्यप्रदेश का पहला मुख्यमंत्री चुना गया था, वो उनकी चिता ठंडी होने से पहले ही बिखर गई. इसका सबसे बड़ा सबूत थी हड़बड़ी में बुलाई मध्यप्रदेश कैबिनेट की वो बैठक जिसमें कार्यवाहक मुख्यमंत्री चुना जाना था. सबको लगा कि अब वो होगा, जो कांग्रेस हाइकमान और नेहरू चाहते थे - मध्यभारत के मुख्यमंत्री और शुक्ल कैबिनेट में दूसरे नंबर पर रहे तख्तमल जैन मुख्यमंत्री बन जाएंगे. लेकिन इससे पहले कोई तख्तमल जैन का नाम सघोष लेता, बुजुर्ग कांग्रेस नेता शंकरलाल तिवारी ने एक ऐसा नाम आगे बढ़ा दिया जिसके बारे में किसी ने सोचा नहीं था - भगवंतराव मंडलोई.

रविशंकर शुक्ल (बाएं) सिर्फ दो महीने के लिए मुख्यमंत्री रहे थे. उसके बाद भगवंतराव मंडलोई को कार्यवाहक मुख्यमंत्री बनाया गया.
महाकोशल के खंडवा से आने वाले मंडलोई का नाम आने के बाद इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि उनके बाद किसका नाम लिया जाता है. तख्तमल का नाम लेते ही मामला मध्यभारत कांग्रेस कमेटी विरुद्ध महाकोशल कांग्रेस कमेटी हो जाता. और ये लड़ाई 88 विधायकों वाली मध्यभारत कांग्रेस 150 विधायकों वाली महाकोशल कांग्रेस से सपने में भी नहीं जीत सकती थी. बमुश्किल दो महीने पहले एक छत के नीचे बैठी मध्यभारत, विंध्य और महाकोशल की कांग्रेस कमेटियां अलग-अलग दिशाओं में भाग रही थीं. तख्तमल हाथ मलते रह गए. और भगवंतराव मंडलोई पहली बार बने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री. कार्यवाहक ही सही, लेकिन मुख्यमंत्री.
मंडलोई के बारे में एक दिलचस्प बात ये है कि उनसे जुड़ी ज़्यादातर दिलचस्प घटनाओं में कर्ता वो नहीं थे. और यही शायद उनके जीवन की त्रासदी थी. ऐसे ही कुछ किस्सों का ज़िक्र हम लाए हैं अपनी खास सीरीज़ मुख्यमंत्री में.
अंक 2 बाप ने बेटे से कहा - तुम्हारे लिए अपना भविष्य नष्ट कर दूं

अशोक कुमार और किशोर कुमार ने भी अपने शुरुआती दिन खांडवा में बिताए थे.
1892 में पैदा हुए मंडलोई खंडवा से थे. वही खंडवा, जहां कुमुदलाल गांगुली और आभास कुमारी गांगुली आकर बसे. नहीं समझ आया, तो ऐसे समझिए - वही खंडवा, जहां अशोक कुमार और किशोर कुमार अपने शुरुआती सालों में रहे. वकालत से करियर शुरू करने के बाद वो स्वतंत्रता आंदोलन और कांग्रेस से जुड़े. लेकिन अपनी ज़िंदगी के पहले 50 साल उन्होंने खंडवा में ही लगाए. आज़ादी के बाद रविशंकर शुक्ल के कैबिनेट में उन्हें मंत्रीपद मिला तब जाकर वो सूबे की राजनीति में उठे.
इसीलिए नए मध्यप्रदेश के दीगर नेता उन्हें अपने से काफी जूनियर मानते थे, खासकर वो, जो आज़ादी से पहले ही कांग्रेस में ऊपर उठ गए थे. इन्हीं में से एक थे कांग्रेस अध्यक्ष सेठ गोविंददास, जिनके दिल्ली वाले बंगले पर रविशंकर शुक्ल ने आखिरी सांस ली थी. मंडलोई के कार्यवाहक मुख्यमंत्री बनते ही एक संभावना पैदा हो गई कि स्थाई मुख्यमंत्री पद भी महाकोशल के पास ही रहे. और महाकोशल से कौन? गोविंददास कहते थे - 'मैं'.

रविशंकर शुक्ल की मौत सेठ गोविंद दास के बंगले पर हुई थी.
गोविंददास के बेटे जगमोहनदास ने उन्हें टोका कि नेहरू शायद उन्हें लोकसभा में ही रखना चाहें. फिर ये खतरा तो था ही कि महाकोशल में फूट पड़ने का फायदा उठाकर तख्तमल मुख्यमंत्री बन जाएं. पत्रकार-संपादक मायाराम सुरजन अपनी किताब 'मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश के' में लिखते हैं, कि तब गोविंददास ने अपने बेटे जगमोहन से सवाल कर दिया था –
'छोटे बाबू क्या तुम्हारे लिए मैं अपना भविष्य नष्ट कर दूं?'बात ये थी कि जगमोहनदास उपमंत्री रहते हुए मंडलोई के ही डिप्टी रहे थे. मंडलोई से उनकी बनती भी थी. मंडलोई सीएम बनते तो वो कैबिनेट पहुंच जाते. यही वजह थी कि गोविंददास को अपने बेटे की नीयत पर शक हुआ.

सेठ गोविंददास ने खुद को मुख्यमंत्री बनाने के लिए मौलाना आजाद से लेकर नेहरू तक से मुलाकात की, लेकिन कामयाब नहीं हुए.
गोविंददास ने इसके बाद तख्तमल से हाथ मिला लिया और हाईकमान के सामने ये साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि मध्यप्रदेश को मंडलोई की जगह कोई 'सक्षम' मुख्यमंत्री चाहिए. दिल्ली में जा-जाकर मौलाना आज़ाद से लेकर नेहरू और नेहरू से लेकर पंत तक से मिले. विंध्य कांग्रेस से शंभूनाथ शुक्ल ने गोविंददास और तख्तमल का साथ दिया. ये एक बड़ी वजह रही कि मंडलोई कार्यवाहक ही रहे और उन्हें शपथ लेने के 21 वें दिन एक पैराट्रूपर डॉ कैलाशनाथ काटजू के लिए जगह खाली करनी पड़ी. तख्तमल रहे पहले की तरह नंबर दो.
अंक 3 नेहरू उवाच- क्यों जी, ये बटलोई कौन है जो सीएम हो गया

कैलाश नाथ काटजू के बाद महाकौशल के कांग्रेसी नेताओं ने भगवंतराव मंडलोई के नाम पर मुहर लगा दी थी.
डॉ कैलाशनाथ काटजू ने पांच साल सरकार चला ली. लेकिन कांग्रेस में गुटबाज़ी के चलते 1962 में वो खुद विधायकी का चुनाव जनसंघ के उम्मीदवार से हार गए. डीपी मिश्र को टिकट ही नहीं मिला था. पार्टी की गत इतनी बुरी हुई कि पार्टी 296 में से केवल 144 विधायक जिता पाई. चार विधायकों को इधर-उधर से लाकर बामुश्किल सरकार बन पाई. तख्तमल जैन, जिन्हें कैलाशनाथ काटजू ने धीरे-धीरे किनारे कर दिया था, फिर मुखयमंत्री बनने का सपना देखने लगे. लेकिन एक तो मध्यभारत में कांग्रेस तगड़ी हार मिली थी; दूसरा ये कि चुनाव के बाद महाकोशल के कांग्रेसी भगवंतराव मंडलोई के नाम पर एकमत हो गए. आखिर मंडलोई ने ही मुख्यमंत्री पद की कसम खाई और तख्तमल ज़िंदगी में तीसरी बार नंबर दो पर रह गए.

भगवंतराव मंडलोई मुख्यमंत्री बन गए, लेकिन नेहरू को उनका नाम तक नहीं मालूम था.
ये अपने आप में इतना अप्रत्याशित था कि कांग्रेस हाईकमान को समझ ही नहीं आया कि हुआ क्या. दिल्ली में ये किसी को रास नहीं आया था. नेहरू तो मंडलोई को नाम से तक नहीं जानते थे. मध्यप्रदेश में सरकार बनने की खबर मिली तो उनका सवाल था,
''क्यों जी, मध्यप्रदेश में ये बटलोई कौन है जो मुख्यमंत्री चुना गया है?''अंक 4 मुख्यमंत्री जो घड़ियालों से घिरा था.

पहले मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल (बाएं) और दूसरे मुख्यमंत्री कैलाश नाथ काटजू (दाएं) के राज में मंडलोई (बीच में ) के पास राजस्व मंत्रालय था.
भगवंतराव मंडलोई खूब पढ़े-लिखे थे. लेकिन थे अपेक्षाकृत सीधे-सादे ही. पैसा उन्होंने ज़्यादा बनाया नहीं था. उनके पास जो पान का डिब्बा रहता, उसमें से किसी को पान तभी बढ़ाते जब कोई आगे बढ़कर मांगता. कुल मिलाकर बात ये कि जो चालाकी राजनीति में अनिवार्य है, वो उनमें इतनी नहीं थी कि वो हाथ आए मौके को पूरा भुना लें. शुक्ल और काटजू के कैबिनेट में उन्हें राजस्व जैसे तगड़े विभाग मिले थे. लेकिन वो रूटीन से आगे नहीं बढ़े, अपने पैर जमाने और ऊपर उठने पर ध्यान नहीं लगाया. फिर काम करने का रवैया भी उनका काफी ढुलमुल था. 1962 में मुख्यमंत्री हुए तो एक बार रायसेन में पड़ने वाले बरेली के एक अफसर की शिकायत उन तक पहुंची. इल्ज़ाम कि किसी की सुनते नहीं, औरतों पर भी छींटाकशी करते हैं. मंडलोई ने वादा किया कि वो अफसर का ट्रांसफर कर देंगे. लेकिन बरेली वालों को महीने भर बाद फिर सीएम साहब के पास जाकर गुहार लगानी पड़ी. मंडलोई ने कहा कि इस बार पक्का ट्रासफर कर दूंगा. लेकिन वो अफसर बना रहा. आखिर में लोगों ने अफसर को सरेआम पीट दिया. नाक कटने के बाद सरकार हरकत में आई और अफसर का तबादला हुआ.

एक अफसर का तबादला न करने की वजह से मंडलोई को खासी फजीहत झेलनी पड़ी थी.
ऐसे उदाहरणों ने इस बात को पुष्ट किया कि टॉप की नेतागिरी मंडलोई के बस की नहीं. और ये बात सरकार के अंदर और बाहर, दोनों तरह के लोग जानते थे. मध्यप्रदेश जैसे सूबे में ये बात बड़ी घातक थी. क्योंकि यहां कांग्रेस न सिर्फ इलाकाई आधार बंटी थी, बल्कि गैरकांग्रेसी ताकतें भी पूरी तेज़ी से सिर उठा रही थीं. ऐसे में मंडलोई को कुर्सी पर बनाए रखने लायक स्थितियां कभी भी बदल सकती थीं. वैसे भी उस वक्त मध्य प्रदेश के सियासी पानी में घाघ घड़ियाल भरे पड़े थे. जो सीएम बनने के लिए स्थितियां बदलने और नई स्थितियां बनाने में माहिर थे. और इसीलिए शुभचिंतक मंडलोई से एक ही बात कहते थे-
'आइने में मत रहो.'अंक 5 तख्तमल, तुझे तख्त पर बैठे रहने नहीं देगा
पंडित शुक्ल नए मध्यप्रदेश के सीएम रहते हुए भोपाल के आइना बंगले में रहे. इसी बंगले में डॉ काटजू भी रहे. फिर मंडलोई भी यहीं आए. संयोगवश शुक्ल दो महीने ही मध्यप्रदेश के सीएम रहे और उनका देहांत हो गया. डॉ काटजू पूरे वक्त सीएम रहे, लेकिन चुनाव हार गए और दोबारा कभी सीएम नहीं बने. इसीलिए मंडलोई को ये सलाह दी गई कि वो अपशकुन से बचने के लिए बंगला बदल लें. लेकिन मंडलोई ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया. इसके लिए मंडलोई की तारीफ होनी चाहिए. लेकिन फिर कुछ ऐसा हो ही गया कि मंडलोई भी सोच में पड़ गए.

भोपाल के आइना बंगले में रहने के दौरान दो महीनों में ही रविशंकर शुक्ल की मौत हो गई. कैलाश नाथ काटजू चुनाव हार गए और तब कहा गया कि ये बंगला ही अपशकुनी है.
क्या हुआ. इसके लिए एक पुराने किरदार के पास चलिए. तख्तमल जैन. उन्होंने मंडलोई को अपना नेता कभी नहीं माना. मंडलोई ने भी उन्हें हाशिए पर रखा. कैबिनेट में प्लानिंग और डेवलपमेंट जैसे बिना हनक वाले विभाग दिए. तख्तमल ने बागी सुर तेज कर दिए. बात दिल्ली तक पहुंची.
दिल्ली जैसे इसी का इंतजार कर रही थी. नेहरू के इशारे पर नरसिंहगढ़ उपचुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री काटजू उम्मीदवार बन गए. ये नाम आते ही क्या मंडलोई क्या तख्तमल, सबको सांप सूंघ गया. क्योंकि काटजू के आने का मतलब था कि तख्तमल और मंडलोई दोनों को वनवास. दोनों ने सुलह कर ली. पर क्या फायदा. अब काटजू विधायक बन चुके थे.
मंडलोई को अब साफ संकेत मिलने लगें. इस्तीफा दें. रास्ता खाली करें. मगर उन्होंने अनसुना कर दिया. शहादत भुनाने की कला नहीं आती थी मंडलोई को.

डीपी मिश्र और कैलाश नाथ काटजू दोनों ही उपचुनाव जीतकर विधानसभा में पहुंच गए थे.
एक कलाकार और था. जिस पर किसी का ज्यादा ध्यान नहीं था. मगर जो परिधि से केंद्र में पहुंचने की तैयारी कर चुका था. पुराना खिलाड़ी डीपी मिश्रा. वह भी एक उपचुनाव में जीत विधायक हो गए थे. रायपुर की कसडोल सीट से.
इन सबके बीच आ गया नेहरू का मास्टर स्ट्रोक. कामराज प्लान. राज्यों में बरसों से सत्ता में जमा मुख्यमंत्री इस्तीफा दें. वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री इस्तीफा दें. और संगठन का काम करें. कई प्रेक्षकों के मुताबिक असल प्लान तो इंदिरा गांधी के लिए रास्ता साफ करना था. सब वरिष्ठों को सत्ता से दूरकर.

कामराज प्लान के तहत लाल बहादुर शास्त्री, जगजीवन राम और मोरारजी देसाई को पद छोड़ना पड़ा था.
प्लान के चलते केंद्र में लाल बहादुर शास्त्री, मोरारजी देसाई, बाबू जगजीवन राम निपटे. यूपी के ताकतवर सीएम चंद्रभानु गुप्ता निपटे. कई औरों के साथ मंडलोई भी निपटे. 29 सितंबर, 1963 को उन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ दी. उन्हें लगा कि नया सीएम उन्हें मंत्री तो बनाकर रखेगा ही. पर मंडलोई गलत थे. नया सीएम था डीपी मिश्रा. कभी उनका दोस्त था. पर द्वारका प्रसाद को याद था. कि जब वह दिल्ली के रास्ते भोपाल के सत्ता गलियारों में लौटने की कोशिश कर रहे थे. तब यही मंडलोई तख्तमल संग मिल उनका रास्ता रोक रहे थे. इसलिए डीपी ने अपनी कैबिनेट में आने से उन्हें रोक दिया. फिर 1967 के चुनाव में उन्हें टिकट भी नहीं मिला. इन्हीं दिनों उनके दो बेटों का देहांत हो गया और वो टूट गए.
अब उनकी ज़िंदगी में ज़िक्र लायक एक और पल बाकी था. वो आया 1970 में, जब इंदिरा गांधी ने उन्हें पद्म भूषण दिया. इसके बाद सात साल की खामोशी और रही. 3 नवंबर, 1977 को मध्यप्रदेश की राजनीति का ये मिसफिट नेता इस दुनिया से चला गया. मगर याद नहीं जाएगी. क्योंकि मुख्यमंत्री की सूची में उनका नाम दर्ज है.

इंदिरा गांधी ने 1967 में मंडलोई को पद्मभूषण से सम्मानित किया था.
मुख्यमंत्री. लल्लनटॉप के पलिटिकल किस्सों की इलेक्शन स्पेशल सीरीज. इसके अगले ऐपिसोड में देखिए, उस नेता की कहानी, जिसने नेहरू को कोसते हुए विधायकी छोड़ी. जिसने एक रानी का अपमान किया और एमपी में बीजेपी का पूर्व अवतार जिंदा हो गया. जिसे इंदिरा गांधी का चाणक्य कहते थे. और जिसका बेटा अटल बिहारी का चाणक्य बना.
* 'इसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा' वाली भाषा में एक और बात जान लीजिए. अपशकुन मानते थे कि नहीं, हम नहीं बता सकते, लेकिन डीपी मिश्र कभी आइना बंगला में नहीं रहे. वो मुख्यमंत्री आवास भोपाल के श्यामला हिल्स के एक बंगले में लाए. आधुनिक मध्यप्रदेश का सीएम आवास आज भी श्यामला हिल्स पर ही है.
यूपी का एक वकील कैसे बना एमपी का सीएम?