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कमज़ोर सी 'लखनऊ सेंट्रल' क्यों महान फिल्मों की लाइन में खड़ी होती है!

फिल्म रिव्यूः फरहान अख़्तर की - लखनऊ सेंट्रल.

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जेल में बंद किशन मोहन गिरहोत्रा का पात्र. अदाकार हैं फरहान.

फिल्म: लखनऊ सेंट्रल । निर्देशक: रंजीत तिवारी । कलाकार: फरहान अख़्तर, डायना पेंटी, गिप्पी ग्रेवाल, दीपक डोबरियाल, राजेश शर्मा, इनामुलहक़, रोनित रॉय, रवि किशन, वीरेंद्र सक्सेना । अवधि: 2 घंटे 13 मिनट

किशन (फरहान) मुरादाबाद में रहता है. म्यूजिक का पैशन है. देसी उच्चारण में अंग्रेजी गाने भी गाता है. उसका सपना है एक दिन अपना रॉक बैंड बना ले. दर्जनों, सैकड़ों फैन उसका नाम पुकारें. लेकिन लाइफ आसानी से कुछ नहीं देती. उस पर एक आईएएस अधिकारी के मर्डर का आरोप लगता है. उम्र कैद हो जाती है. लेकिन पीड़ित के घरवाले higher court में केस ले जाते हैं ताकि उसे फांसी करवाएं. इस बीच यू. पी. के मुख्य मंत्री (रवि किशन) आदेश देते हैं कि इस बार राज्य में कैदियों का बैंड परफॉर्मेंस लखनऊ सेंट्रल जेल में होगा और इस जेल में भी एक म्यूजिक बैंड बनाना होगा. ये जिम्मा कैदियों के सुधार और मानव अधिकारों के लिए काम करने वाली गायत्री (डायना) को दिया जाता है. किशन जेल में इस बैंड में भर्ती होने के लिए सबसे पहले नाम लिखाता है. वही कहता है कि बाकी कैदियों में से चुनकर, उन्हें राज़ी करके ये काम करेगा. लेकिन यहां किसी को बैंड-वैंड में रुचि नहीं. कुछ लोग मिल भी जाते हैं, वो मना भी लेता है लेकिन बैंड के पीछे प्लान कुछ और ही होता है.
अपने ट्रेलर और प्रचार से 'लखनऊ सेंट्रल' most awaited फिल्म नहीं होती है. घर से निकलने और थियेटर जाने का मन नहीं करता. या आधे रस्ते से लौट आने का मन करता है. कि बेहतर होगा सवा दो घंटे विश्व सिनेमा की किसी महान फिल्म को देख लें. जीवन तो सीमित है. सारी फिल्में नहीं देख पाएंगे. फिर ये क्यों, कुछ महान क्यों नहीं.
मगर, फिल्म देखी. कई कमियां थीं. फरहान अख़्तर का उच्चारण. उनकी Behavioral Continuity. टेक्नीकल दिक्कतें. जैसे, बैंड के लोगों की बेइज्जती करने के लिए जेलर बोलता है कि कुछ परफॉर्म करो. वो पांचों गाते औऱ नाचते हैं लेकिन तब उनके पास कोई बाजा या instrument नहीं होता. लेकिन बैकग्राउंड म्यूजिक बज रहा होता है.
फिल्म का कंटेंट भी कुछ खास innovative नहीं है. ज्यादातर आप अनुमान लगा सकते हो कि अब आगे क्या होने जा रहा है.
इन सबके बाद भी ये फिल्म अच्छी लगी. ठीक किया कि कोई महान फिल्म नहीं देखी और ये देखी. लास्ट सीन तक पहुंचने के बाद लगता है कि ज़रूरी फिल्म है.
क्यों?

जेलें क्यों बनीं लोकतांत्रिक और शिक्षित समाजों में. इसे सही रूप में आज न तो हमारे स्कूल, विश्वविद्यालय, पत्रकार, बुजुर्ग और न ही साधु-संत बता रहे हैं.
अपराध और अपराधी शब्दों का सही तत्व अन्वेक्षण करना बहुत कठिन हो गया है. हमारे अंदर वो सॉफ्टवेयर ही नहीं बचे रहने दिए गए. कहीं कोई अपराध हो तो हम 'मारो' वाली हत्यारी भीड़ बन जाते हैं. अगर अपराध बहुत ख़ून-खराबे वाला, क्रूर, विक्षिप्त हो तो हम कथित आरोपी को सरेराह तेल उड़ेलकर जला देना चाहते हैं. जिंदा.
हमारी बेसिक संवेदनाएं लगातार मिटाई गई हैं.
किसी ने किसी की हत्या जितने निर्मम ढंग से की, हम उससे भी ज्यादा वहशी ढंग से बदला चाहें तो स्पष्ट है हमारा दिमाग भी अस्वस्थ है और ज्ञान के सबसे निचले स्तर पर है.
बॉलीवुड, साउथ की फिल्में, विदेशी टीवी-सीरीज, वीडियो गेम्स ये सब बड़ी चालाकी से कहानी में पहले एक बहुत ही प्यारा इंसान या बच्चा दिखाएंगे. फिर एक व्यक्ति दिखाएंगे. उसे क्रमबद्ध ढंग से, तर्कों की आड़ लेकर सबसे बुरा, गंदा, कसाई और पश्चाताप-रहित राक्षस जैसा स्थापित करेंगे. तब तक दर्शक पूरी तरह से फिल्म की कहानी manufacture करने वाले राइटर और हीरो के साथ आ खड़े होंगे. फिर ये सब मिलकर बदला लेने के नाम पर, शिकार पर निकलेंगे.

इन ज्यादातर कहानियों में से अपराध करने वाले की back-story हटा दी जाती है. किसी में नहीं दिखाया जाता कि संसार में जो भी शिशु आता है, वो एकदम कोरा और निर्मल होता है. सामाजिक व्यवस्था, परिवार का माहौल, घटनाएं और परिस्थितियां उसके दिमाग और व्यवहार को अलग-अलग तरह का बना देती हैं. वे अलग ही इंसान में तब्दील कर दिया जाता है.
फिर किसी दिन वो मानसिक कमजोरी और अनियंत्रण के कारण किसी की निर्मम हत्या कर देता है और हम तुरंत उसे मार देना चाहते हैं.
बच्चों और बुजुर्गों से हम एक विशेष व्यवहार क्यों करते हैं? क्योंकि वे दिमागी रूप से कमज़ोर क्षेत्र में होते हैं. उन्हें पता नहीं होता वे जो कर रहे हैं वो ठीक है कि नहीं.
अगर एक वयस्क पुरुष/स्त्री का दिमाग भी कमजोर क्षेत्र में हो तो हम उससे विशेष व्यवहार नहीं करना चाहते. हम इंतजार करते हैं कि कोई कुछ ज़रा सा गलत करे और हमें उसे मारने या अपनी हिंसा निकालने का मौका मिले. सड़क पर किसी की गाड़ी को गलती से खरोंच लगा दीजिए. वो आपकी जान ले सकता है. सिर्फ लोहे के एक डब्बे के लिए, एक इंसान की जान!
अपराध करने की गुंजाइश सृष्टि के हर इंसान में है.
कोई आदमी, दुनिया के सबसे sincere आदमी/औरत, मानसिक असंतुलन के चलते कभी भी, किसी को भी मार डालने की अवस्था तक पहुंच सकते हैं.

हमने बहुओं को अपनी बीमार सासों को बेरहमी से पीटते सीसीटीवी कैमरा में देखा है. हमने सासों को अपनी बहुओं को जलाकर मरवाते हुए देखा है. हमने भाइयों को अपनी बहनों की जान लेकर पेड़ों पर टांगते देखा है. पिताओं को अपनी बेटियों की ऑनर किलिंग करते देखा है. साधुओं को रेप करते देखा है. संतों को नरसंहार करवाते देखा है. दुनिया की सबसे ऊंची यूनिवर्सिटीज़ से पढ़े महान चिंतकों को हिंसा का रास्ता लेते देखा है.
कोई भी, कभी भी, कैसा भी अपराध कर सकता है. सब मानसिक संतुलन की बात है. और वो सिर्फ एक व्यक्ति के तय करने से निर्धारित नहीं होता, उस पर सबसे ज्यादा असर बाहरी कारकों का होता है.
जर्नलिस्ट जिसका काम objective रहना होता है, वो बड़ी आसानी से उस अनिवार्य वस्तुपरकता को अपने पूर्व-आग्रहों या भौतिक तमन्नाओं के चलते बेच देता है. सैन्य बलों के जवान क्यों ड्यूटी पर अपने ही कमांडिंग ऑफिसर्स और साथियों पर गन का मुंह खोल देते हैं. कानून को बचाने का काम करने के लिए शिक्षित पुलिसवाले सबसे आसानी से हर तरह के कानून तोड़ते हैं, हर तरह का अपराध करते हैं. न्याय के जरिए सच की स्थापना करने का जिम्मा रखने वाले सुप्रीम जज जानकर झूठे फैसले सुनाते हैं. वकील जानते हैं क्लाइंट हत्यारा है लेकिन झूठ को सच साबित करके उसे छुड़ा लेते हैं. जो धर्मगुरु ये जानता है कि उसका धर्म किसी दूसरे मानव को एक कठोर वचन बोलने तक से रोकता है, लेकिन वो अपने करोड़ों अनुयायियों को सिखाता है कि धर्म की रक्षा के लिए मारो.

अपराध कोई भी कर सकता है, कभी भी, कैसा भी.
ये बात मनोविज्ञान समझता है. लेकिन मनोविज्ञान को हम आकर्षक नहीं समझते. हमारे लिए ज़रूरी टूल नहीं मानते. हम गुस्से और हिंसा के रास्तों को आकर्षक पाते हैं.
आश्चर्य की बात है कि जेल व्यवस्था भी जब अपने परिष्कृत मानव मूल्यों तक पहंची तो उसमें मनोविज्ञान शामिल था. किसी इंसान ने अगर 10 बच्चों का वहशीपन की हदें पार करते हुए कत्ल किया हो. या इसे और gory बनाकर देख लेते हैं. मानो, उसने उन 10 बच्चों को धीरे-धीरे काटा हो, जब वे जिंदा रहे हों, या उनकी चमड़ी लोहे के औजार से पकड़कर उधेड़ी हो. तो हमारा क्रोध सीमा पार कर जाएगा और हम मानसिक नियंत्रण खो देंगे. लेकिन तब भी कानून और न्याय व्यवस्था शांत होकर अपनी प्रक्रिया पर चलेगी. वो ये नहीं कहेगी कि इस आरोपी को पीटो और सड़क के बीच ले जाकर जिंदा मार दो. वो उसके बीमार दिमाग वाले अपराध के लिए स्वस्थ दिमाग वाली सज़ा तय करेगी.
इस विषय पर जहां ज्यादातर पॉपुलर मंच हमें गलत शिक्षा देते आए हैं, वहीं दो फिल्में तुरंत याद आती हैं जिन्होंने बहुत महान और चिकित्सकीय सोच दी है.
वी. शांताराम की 'दो आंखें बारह हाथ' (1957) और डायरेक्टर ऋषिकेश मुखर्जी की 'आशीर्वाद' (1968).
इनमें पहली वाली 1939 के 'स्वतंत्रपुर प्रयोग' पर आधारित थी. जो महाराष्ट्र में सतारा के पास खुली जेल कॉलोनी थी. इस प्रयोग को करने वालों ने माना कि अपराधी भी इंसान होते हैं और उन्हें सज़ा देने के बजाय उन्हें सुधारने का भरपूर मौका देना चाहिए. इसकी दूसरी प्रेरणा 1952 में आई फिल्म 'माई सिक्स कॉनविक्ट्स' थी जो एक सच्ची घटना पर आधारित थी जिसमें जेल का एक मनोविज्ञान डॉक्टर एक प्रोजेक्ट में अपने साथ छह अपराधियों को लेता है. ये दोनों ही जेल इतिहास की बेजोड़ घटनाएं थीं.
'दो आंखें बारह हाथ' में खिलौने बेचने वाली चंपा के रोल में संध्या शांताराम.
'दो आंखें बारह हाथ' में खिलौने बेचने वाली चंपा के रोल में संध्या शांताराम.

दूसरी फिल्म 'आशीर्वाद' जोगी ठाकुर नाम की जमींदार की कहानी है जो बड़े मानवतावादी इंसान हैं. गंदली बस्तियों में जाकर वहां के निम्नतर लोगों के साथ गाते-बजाते हैं. एक लड़की की इज्ज़त और जान बचाने की हाथापाई में उनके हाथों अपराधी की हत्या हो जाती है. अपने बचाव में किए अपराध का तर्क होने के बाद भी वे जज को रोक देते हैं. कहते हैं जीवन दिया नहीं तो लेने का हक नहीं. सजा काटते हैं. पूरी उम्र. बरसों बाद जेल में युवा डॉक्टर ने पदभार लिया है. जेलर (अभि भट्टाचार्य) के कमरे पहुंचता है. देखता है कैदी सफाई कर रहे हैं, सजावट कर रहे हैं, प्रांगण में खुले घूम रहे हैं. कौतुहल में जेलर से पूछता है, ये यूं खुले घूम रहे हैं, इन्हें कैद में नहीं होना चाहिए?
भारतीय सिनेमा का वो सबसे बुद्धिमान और गुणी जेलर जो कहता है उसका अर्थ यूं होता है कि हम एक समाज के तौर पर यही भूल करते हैं. जैसे शारीरिक बीमारी के इलाज के लिए अस्पताल है, वैसे ही अपराधियों के लिए जेल है जहां वे आते हैं और एक अवधि तक रहकर मानसिक रूप से स्वस्थ होकर फिर से समाज में लौटते हैं.

'लखनऊ सेंट्रल' अपनी बनावट में उतनी परफेक्ट नहीं लेकिन वो इन्हीं दो फिल्मों की श्रंखला में है. इसे देखते हुए कैदी लंबे समय बाद पहली बार अपने ही समाज के लगते हैं. उनसे घृणा नहीं होती. हममें ये समझ सफलतापूर्वक आती है कि जेल में उन्हें अपने सपनों का पीछा करने और सम्मान पाने के मौके मिलने चाहिए.
हम यहां एक ऐसा राजनेता (रवि किशन) देखते हैं जो एक प्रगतिशील युवा सी.एम. है. जो राजनीति करना भी जानता है लेकिन अंदर, मन में वो सुधारवादी है, प्रेमी है, मानवीय है. जब बैंड अपना गाना प्रस्तुत कर देता है तो वो उनको गले लगा लेता है. मतलब सज़ायाफ्ता होने के बावजूद उन्हें बराबरी का इंसान स्वीकार कर लेता है. "राजनेता कैसे हैं" के बजाय "राजनेता कैसे हों" हम देखते हैं. और इससे मन को बहुत ही खुशी मिलती है. positivity मिलती है.

ये फिल्म असल में भी हीलिंग हार्ट्स नाम के बैंड की कहानी से प्रेरित है. 2007 में लखनऊ सेंट्रल जेल के उच्च अधिकारी ने तय किया कि एक सालाना इवेंट हो जिसमें अलग-अलग कैदी अपने मन की चीजों पर परफॉर्म कर सकें. इस कोशिश का नाम रखा गया - 'कायाकल्प सांस्कृतिक मंच'. उसका सूत्रवाक्य है - "बंदियों के नैतिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास हेतु गठित." इसी कड़ी में हत्या की सज़ा काट रहे 12 कैदियों ने मिलकर एक बैंड बनाया. जेल के एक गार्ड ने इनको ट्रेनिंग दी.
अपराध और अपराधी परिस्थितियों से बनते हैं. इसी बात को फिल्म में दूसरे शब्दों में किशन के लाइब्रेरियन पिता कहते हैं. जब कैदियों के सुधार के लिए काम करने वाली गायत्री कहती है कि किशन को न्याय दिलाना है तो उसके पिता जवाब देते हैं, "एक राइटर हैं ऑरसन वेल्स. उन्होंने कहा था, न्याय किसी को नहीं मिलता. मिलता है तो गुड लक या बैड लक." ऑरसन का जिक्र आना फिल्म का एक बहुत विशेष पल था. वे अमेरिकी एक्टर, राइटर और डायरेक्टर थे. उन्होंने जर्नलिज़्म पर 'सिटीजन केन' (1941) जैसी फिल्म बनाई थी जिसे कुछ फिल्म विशेषज्ञों ने सर्वकालिक महान फिल्म माना है.
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