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एक प्लेन क्रैश जिसने भारत के न्यूक्लियर प्रोग्राम को हिला कर रख दिया

डॉक्टर होमी जहांगीर भाभा इस फ्लाइट में न होते, तो देश की सूरत कुछ और होती

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(तस्वीर: विकिमीडिया/ सांकेतिक तस्वीर- पिक्साबे)
डॉक्टर होमी जहांगीर भाभा. भारत के न्यूक्लियर प्रोग्राम के सबसे जाने-माने नामों में से एक. मुंबई के एक पारसी परिवार में जन्मे होमी के लिए प्लान कुछ और बनाया था घरवालों ने. लेकिन वो किसी और ही राह पर निकल पड़े. पिता जहांगीर होरमसजी भाभा वकील थे.चाचा सर दोरब टाटा और पिता, दोनों ही चाहते थे कि बेटा इंजीनियर बने और टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी में सीनियर पोजीशन ले ले. लेकिन भाभा का इंस्ट्रेस्ट थ्योरेटिकल फिजिक्स में बढ़ गया.
मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करते हुए उन्हें ये अहसास हुआ कि वो अपनी पढ़ाई को फिजिक्स की दिशा में मोड़ना चाहते हैं. फर्स्ट क्लास के साथ उन्होंने इंजीनियरिंग पास कर ली. उसके बाद फिजिक्स पढ़ने में लग गए. कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में. 1939 में वो छुट्टियों के लिए इंग्लैंड से भारत आए हुए थे, तभी द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया, तो वो वापस नहीं जा सके. फिर यहीं इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंसेज, बैंगलोर (अब बेंगलुरु) में रीडर का पद स्वीकार कर वहां पढ़ाना शुरू कर दिया.
फेलो ऑफ रॉयल सोसाइटी बने. 1945 में मुंबई के टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ फंडामेंटल रिसर्च की शुरुआत की. और उसके डायरेक्टर भी रहे. भारत जब आज़ाद हुआ, तब जवाहरलाल नेहरू ने उनके कन्धों पर भारत के एटॉमिक प्रोग्राम का जिम्मा डाला. वो भारत के एटॉमिक एनर्जी कमीशन के पहले चेयरपर्सन बने. उन्हीं के तहत आणविक शक्ति का विकास कार्यों में इस्तेमाल करने के प्लान को आगे बढ़ाया गया. भले ही डॉक्टर होमी न्यूक्लियर पॉवर पर काम कर रहे थे, लेकिन वो एटॉमिक बमों के सख्त खिलाफ थे. उनका मानना था कि आण्विक शक्ति का इस्तेमाल सिर्फ विकास कार्यों के लिए किया जाना चाहिए. एटॉमिक रिएक्टर से बनने वाली एनर्जी का इस्तेमाल कर भारत की गरीबी और बदहाली कम करने की कोशिश करनी चाहिए.
(तस्वीर: विकिमीडिया)
(तस्वीर: विकिमीडिया)

डॉक्टर होमी को पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था. उन्हें एक समय कैबिनेट में मंत्री का पद देने की भी पेशकश हुई थी, लेकिन उन्होंने उसे ठुकरा दिया था. 1951 और 1953-56 में उन्हें नोबेल प्राइज के लिए नोमिनेट भी किया गया था.
भारत का न्यूक्लियर प्रोग्राम उनके नेतृत्व में और भी आगे बढ़ता, अगर उनकी मौत एक प्लेन क्रैश में ना हुई होती. 24 जनवरी 1966 को बॉम्बे से लंदन जाने वाली एयर इंडिया की फ़्लाइट 101 में वो मौजूद थे जब माउंट ब्लैंक के पास यह प्लेन क्रैश हुआ. आधिकारिक जानकारी ये बताती है कि जेनेवा एअरपोर्ट और फ्लाइट के पायलट के बीच प्लेन की पोजीशन को लेकर कुछ ग़लतफहमी हुई. इस वजह से वह प्लेन क्रैश हुआ. कंचनजंगा नाम के इस प्लेन में 106 यात्री और 11 क्रू मेंबर थे. मुंबई से उड़ान भरने के बाद ये दिल्ली और बेरूत में रुका था. इसके बाद उसे जेनेवा में उतरना था. यहीं पर एअरपोर्ट और पायलट के बीच कम्युनिकेशन में गड़बड़ी हुई. पायलट को लगा कि वो माउंट ब्लैंक के ऊपर से निकल चुका है. और अब नीचे उतर सकता है, उसने प्लेन को नीचे उतारना जारी रखा. तकरीबन साढ़े पंद्रह हजार फीट की ऊंचाई पर प्लेन माउंट ब्लैंक से टकरा गया.
(विमान की सांकेतिक तस्वीर. पिक्साबे)
(सांकेतिक तस्वीर. पिक्साबे)

लेकिन इसे लेकर कई कांस्पीरेसी थ्योरी भी दी जाती हैं. जर्नलिस्ट ग्रेगरी डगलस ने अपनी किताब कन्वर्सेशन्स विद द क्रो में लिखा  कि सीआईए (सेन्ट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी) के भूतपूर्व ऑफिसर रोबर्ट क्रोली ने बताया कि उस प्लेन के कार्गो में बम रखवाया गया था. ताकि होमी भाभा को रास्ते से हटाया जा सके. इसी किताब में ये भी दावा किया गया है कि सीआईए ने ही ताशकंद में लाल बहादुर शास्त्री की हत्या कराई.
ये एक्सीडेंट जहां हुआ, 1950 में ही वहां पर एयर इंडिया का एक चार्टर्ड प्लेन क्रैश हुआ था. उसमें 48 लोग मारे गए थे.


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