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फिल्म रिव्यूः जब हैरी मेट सेजल

एक सबसे अच्छी बात इस फिल्म की, जो हमारे काम की है.

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फिल्म के एक दृश्य में शाहरुख और अनुष्का अपने किरदारों में.

फिल्म: जब हैरी मेट सेजल । निर्देशक: इम्तियाज़ अली । कलाकार: शाहरुख ख़ान, अनुष्का शर्मा, अरु कृषांश वर्मा, एवलिन शर्मा, चंदन रॉय सान्याल । अवधि: 2 घंटे 23 मिनट

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हैरी यूरोप में एक टुअर गाइड है. पूरा नाम हरिंदर सिंह नेहरा (शाहरुख) है. पंजाब से यहां आया था. आज अपने काम में वो बहुत अच्छा है लेकिन एक किस्म का खालीपन उसमें एक परत नीचे हमेशा तैरता रहता है. बंबई से आए एक ग्रुप को वो एयरपोर्ट से रवाना करके लौट रहा होता है कि पार्किंग में सेजल ज़वेरी (अनुष्का) उसे रोक लेती है जो उसी ग्रुप का हिस्सा थी. वो कहती है उसकी इंगेजमेंट रिंग कहीं खो गई है और जब तक ढूंढ़ नहीं लेती वो वापस नहीं जाएगी. हैरी उससे बचने की कोशिश करता है, उससे पीछा छुड़ाने की कोशिश करता है लेकिन वो नहीं मानती. बाद में दोनों प्रेम के अहसासों से गुजरते हैं.
फिल्म को लेकर तमाम विवेचना की जा सकती है. शाहरुख-अनुष्का की एक्टिंग और इम्तियाज अली के निर्देशन पर अधिकारपूर्वक आलोचना की जा सकती है. लेकिन अंततः वो हमारे काम की नहीं. उनको जो करना था उन्होंने किया, हम देखेंगे और या तो पसंद करेंगे या नहीं करेंगे. या तो बहुत सीटियां मारेंगे और परदे के आगे नाचेंगे, या कई बार मुस्कराएंगे, गुदगुदाएंगे और घऱ लौट आएंगे. लेकिन सबसे जरूरी वही है कि वो क्या timeless बात है जो हमारे साथ फिल्म में से रह जाती है? वो कौन सी value है जो फिल्म हममें डाल जाती है?
हमें प्यार करते हुए इतना क्यों सोचना पड़ता है, हम इतना क्यों डरते हैं, इतने बेबस क्यों होते हैं. ऐसे ही भाव पढ़े फिल्म के इस दृश्य में.
हमें प्यार करते हुए इतना क्यों सोचना पड़ता है, हम इतना क्यों डरते हैं, इतने बेबस क्यों होते हैं. ऐसे ही भाव पढ़े फिल्म के इस दृश्य में.

तो वो सबसे अच्छी बात, हमारे काम की, यही है कि ये फिल्म और इसकी कहानी प्रेम को समर्पित है. स्त्री-पुरुष के बीच का ये प्रेम लगातार कई बेड़ियों में जकड़ा हुआ है. अगर किसी पारंपरिक समाज में वो है तो वहां जाति, धर्म, पैसे की वजह से आतंकित है. अगर किसी आधुनिक समाज में वो है तो वहां भी टैबू मौजूद हैं, वहां भी सेक्स को परमात्मा से जोड़कर शिक्षित तक नहीं देख पाते. ये फिल्म प्रेम की बात करने के लिए यूरोप जैसे बेहद आधुनिक समाज को चुनती है लेकिन वहां भी अपने एक्सप्रेशन में ये कितनी डरी हुई है कि पुरुष (हैरी) स्त्री (सेजल) को एक बार भी होठों पर स्पर्श नहीं करता, जैसे ये कोई बुरी या अनैतिक चीज़ हो. ये वही अदृश्य वर्जनाएं हैं. और कम से कम वो डरी हुई होने के बावजूद इस बारे में कुछ बात तो करती है.
फिल्म में सेजल इस लिहाज से मुक्त लड़की है. वो दिमाग से बंधी हुई नहीं है, वो 'पराए मर्द' से sex करने का इरादा रखती है और वो खुद को लेकर कॉन्फिडेंट है.
इस विषय पर बार-बार कहानियां कहने की जरूरत है. तभी इस उन्मुक्तता को लेकर हमारे डर जाएंगे, मस्तिष्क पूरी तरह मुक्त होगा.
इम्तियाज अली की इस कोशिश में यही उल्लेखनीय है कि उन्होंने पैसा कमाने वाली इतनी नशीली कहानियों को छोड़कर प्रेम के इस विषय को चुना और फिर पूरे समय किसी और चीज पर ध्यान नहीं दिया. इसी महत्व की वजह से बाकी कमज़ोरियां मायने नहीं रखती.
हम जैसा देखेंगे, वैसा ही बनते जाएंगे और इसलिए ये फिल्म देखनी चाहिए क्योंकि हमें वैसा ही बनना चाहिेए.
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