दिलीप कुमार के साथ गाकर ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगा कि मैं किसी नॉन-प्रोफेशनल सिंगर के साथ गा रही हूं. दिलीप साब परफेक्शनिस्ट थे. उन्होंने इस गाने को गाने के लिए महीनों प्रैक्टिस की थी.दिलीप कुमार की ये फिल्म उनकी 'देवदास' (1955) के दो साल बाद आई. उनका ये किरदार देवदास का एक्सटेंशन कहा जा सकता है. 'देवदास' में पारो उनसे वादा करती है कि आखिरी समय में वो देव के साथ रहेगी, मगर ऐसा हो नहीं पाता. देवदास उसके घर के सामने दम तोड़ देता है. मगर इस फिल्म में देव, राजा उर्फ पगला बाबू के रूप में फिर जन्म लेता है. जिसकी पारो यानी उमा अंत तक उसके साथ रहती है. मगर इस बार राजा खुद उमा को छोड़कर चला जाता है. ये फिल्म, राम गोपाल वर्मा की फिल्म 'डरना मना है' के दशकों पहले रिलीज़ हुई थी. जिसमें पहली बार छह कहानियों को एक पर्दे पर दिखाया गया था. दिलीप के गाए हुए गाने के साथ ये फिल्म भी ज़रूर देखी जानी चाहिए.
क्या आपको पता है दिलीप कुमार ने कौन सा फेमस गाना गाया था?
दिलीप कुमार ने इसके लिए महीनों प्रैक्टिस की थी.
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दिलीप कुमार लता मंगेशकर को अपनी छोटी बहन मानते थे. उनके जाने पर लता मंगेशकर ने शोक प्रकट किया है.
दिलीप कुमार नहीं रहे. 07 जुलाई की सुबह हिंदुजा अस्पताल में उन्होंने आखिरी सांस ली. सोशल मीडिया पर हर जगह दिलीप कुमार के चर्चे हैं. जिन लोगों ने उनके साथ काम किया वो अपनी मीठी यादें साझा कर रहे हैं. दिलीप कुमार ने अपने करियर में कई कल्ट फिल्में की. 'मुगल-ए-आज़म', 'कर्मा' और 'राम और श्याम' जैसी फिल्मों के नाम अमर हो गए. मगर उनकी फिल्मों की फेहरिस्त में एक ऐसा नाम भी है जिसे लोगों का ज़्यादा अटेंशन नहीं मिला. कारण, ये अपने समय से कई साल आगे की फिल्म थी. इस फिल्म का नाम था- 'मुसाफिर'. एक्टिंग के इतर इस फिल्म में दिलीप कुमार ने गाना भी गाया था. वो भी लता मंगेशकर के साथ. साल था 1957. एक तरफ 'मदर इंडिया', 'नया दौर', 'प्यासा', 'दो आंखे बारह हाथ' जैसी फिल्में रिलीज़ हो रही थीं. दूसरी तरफ ऋषिकेश मुखर्जी अपना सिनेमाई जादू कैमरे पर उतार रहे थे. 'मुसाफिर' की कहानी तीन अलग-अलग लोगों की ज़िंदगी पर थी. एक यंग मैरिड कपल. जो चाहता है कि उसकी शादी को परिवार वाले एक्सेप्ट कर लें. शेखर और सुचित्रा सेन ने ये किरदार निभाया. दूसरी कहानी एक बूढ़े आदमी की. जिसे निभाया नाज़िर हुसैन ने. जो अपनी विधवा बहू यानी निरूपा रॉय और उसके बेटे यानी किशोर कुमार के साथ रहता है. तीसरी कहानी बैरिस्टर पॉल महेन्द्र की. जो अपनी विधवा बहन उमा यानी उषा किरण और उसके हैडिंकैप बेटे के साथ रहता है. उमा, जो किसी ज़माने में पगला बाबू यानी दिलीप कुमार संग शादी करना चाहती है. लेकिन वो उसे धोखा देकर चला जाता है. वो धोखा क्यों देता है और किस तरह वो उमा के बेटे को सही कर जाता है इन्हीं सब की कहानी है 'मुसाफिर'.
सलिल चौधरी चाहते थे नई आवाज़
बतौर डायरेक्टर ऋषिकेश मुखर्जी की ये पहली फिल्म थी. उनके साथ ऋत्विक घटक फिल्म का स्क्रीनप्ले लिख रहे थे. म्यूज़िक डायरेक्टर सलिल चौधरी और एम सूरतवाला साथ मिलकर इस बेहतरीन फिल्म के म्यूज़िक पर काम कर रहे थे. उस दौर तक मोहम्मद रफी को दिलीप कुमार की आवाज़ कहा जाने लगा था. लेकिन सलिल चाहते थे कि 'मुसाफिर' के गाने 'लागी नाही छूटे, चाहे जिया जाए...' में दिलीप कुमार की आवाज़ कोई और हो. सलिल को किसी नए सिंगर की तलाश थी. 'गोल्डन एरा ऑफ बॉलीवुड' की एक रिपोर्ट के मुताबिक, एक दिन दिलीप कुमार अपने में ही कुछ गुनगुना रहे थे. सलिल ने उन्हें सुन लिया. सलिल को दिलीप कुमार की आवाज़ पसंद आई. उन्होंने ये तय किया कि इस गाने को अब दिलीप कुमार की आवाज़ में ही रिकॉर्ड किया जाएगा. दिलीप कुमार को अब लता मंगेशकर के साथ गाना गाना था.
फिर किसी फिल्म में नहीं गाया गाना
पहले लता मंगेशकर इसके लिए राज़ी नहीं हुईं. वो चाहती थीं कि कोई प्रोफेशनल सिंगर ही उनके साथ ये गाना गाए. मगर सलिल के कहने पर उन्होंने गाना गाने के लिए हामी भर दी. गाना जब रिकॉर्ड होकर पूरा हुआ तो दिलीप कुमार की आवाज़ को खूब पसंद किया गया. कई लोगों ने तो ये भी कहा कि दिलीप कुमार की आवाज़ में मोहम्मद रफी और तलत महमूद की आवाज़ मिली हुई थी. लोगों ने इस गाने को प्यार दिया. मगर इसके बाद फिर कभी दिलीप कुमार ने गाना नहीं गाया. इसके पीछे क्या वजह थी ये किसी को नहीं मालूम. आपने ये गाना नहीं सुना तो नीचे सुन सकते हैं- एक मीडिया पोर्टल से बात करते हुए लता मंगेशकर ने कहा,
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