विजया राजे सिंधिया ने अपने अपमान का बदला लिया था गोविंद नारायण सिंह को CM बनवाकर
गोविंद नारायण सिंह : वो आदमी जिसने कांग्रेस से बगावत की और मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बन गया
लेकिन लंबे वक्त तक कांग्रेस से दूर नहीं रह पाया. पार्टी में लौटा और करियर खत्म हो गया.
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गोविंद नारायण सिंह मध्यप्रदेश की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार में मुख्यमंत्री बने थे.
चुनावी मौसम में दी लल्लनटॉप आपके लिए लेकर आया है पॉलिटिकल किस्सों की ख़ास सीरीज़- मुख्यमंत्री. आज आपको मध्यप्रदेश की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के मुख्यमंत्री गोविंद नारायण सिंह की कहानी बताते हैं, जिसने आईएएस की परीक्षा पास करने के बाद सियासत की राह चुनी.
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जुलाई 1967 में भोपाल एक शाम. ब्रिज की बाज़ी. खेलने वालों में एक मुख्यमंत्री और एक उनका मंत्री, जो आगे चलकर मुख्यमंत्री बनने वाला था. मंत्री, मुख्यमंत्री से कहता है - हमारी सरकार के विधायक टूटने वाले हैं. विरोधियों से हमेशा ढाई चाल आगे रहने वाला मुख्यमंत्री इस पर हल्के से हंसकर बोलता है-
'जो दलबदल करने वाले हैं, उनकी लिस्ट मेरी मसनद के नीच पड़ी है. कुछ नहीं होगा.'

ब्रिज ताश का एक खेल है. (सांकेतिक फोटो)
ब्रिज का खेल फिर शुरू हो जाता है. लेकिन खेल में दूर की नज़र कई बार बेहद करीब के खतरे से ध्यान हटा देती है. ये खतरा थी खार खाई एक रानी जो किसी भी हाल में अपने अपमान का बदला लेना चाहती थी. अपने ज़माने में मध्यप्रदेश की राजनीति के सबसे घाघ नेता और इस रानी की लड़ाई ने जना एक अनमना मुख्यमंत्री. जो इस लड़ाई में ही पिस भी गया. ये कहानी है मध्यप्रदेश की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के मुख्यमंत्री गोविंद नारायण सिंह की.
अंक 1 चाणक्य- मेरा दोस्त, मेरा दुश्मन
1963 में मुख्यमंत्री पद की दौड़ में कैलाशनाथ काटजू ने तो अपने पैर वापस खींच लिए. लेकिन तख्तमल बात को कांग्रेस विधायक दल में वोटिंग तक लेकर गए. द्वारका प्रसाद मिश्र इस वोटिंग में जीते उसकी एक वजह था मिश्र का 'विधायक मैनेजमेंट'. दूसरी वजह थे वो कांग्रेसी जिन्होंने मिश्र के पक्ष में ज़ोरदार अभियान चलाया था. इनमें एक बड़ा नाम था गोविंद नारायण सिंह.

गोविंद नारायण सिंह ने आईएएस की परीक्षा पास की थी. नौकरी छोड़कर वो राजनीति में आ गए.
विंध्य से आने वाले कद्दावर कांग्रेस नेता अवधेश प्रताप सिंह के बेटे. अवधेश रीवा राज्य के प्रधानमंत्री रहे थे और आज़ादी के बाद बने विंध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री भी. बेटे ने आईएएस की परीक्षा पास कर ली. लेकिन नौकरी की जगह जॉइन की राजनीति. पिता की सीट रामपुर बघेलान से 1952 में लड़े और जीते. फिर जीतते रहे. मिश्र और गोविंद नारायण में नज़दीकी थी तो मिश्र ने सीएम बनने के बाद मंत्री बनाया. लेकिन जो घनिष्ठता विधायक दल के चुनाव के वक्त थी, वो साथ काम करते हुए खत्म होने लगी. वजह, डीपी का डीपी होना.

डीपी मिश्र की वजह से मध्यप्रदेश में कई राजनैतिक पंडितों की दुकान बंद हो गई थी.
डीपी मिश्र राख से उठकर जिस तरह मुख्यमंत्री बने थे, उसने मध्यप्रदेश में राजनीतिक पंडिताई कि दुकानें बंद करवा दी थीं. फिर वो एक सख्त और शातिर प्रशासक थे. कभी गृममंत्री रहे थे, तो जानते थे कि राजनीति में पुलिस फाइलों का इस्तेमाल कैसे हो सकता है. इसलिए उनके अपने मंत्री-विधायक तक उनसे खुलकर बात करने से कतराते थे. इससे असंतोष उपजा. सबसे ज्यादा गोविंद में. पत्रकार मायाराम सुरजन की किताब 'मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश के' में दिए ब्यौरों पर जाएं तो उन दिनों गोविंद नारायण पर ये इल्ज़ाम लग गया कि उन्होंने अस्पताल में भर्ती रहने के दौरान एक नर्स को छेड़ा. वो कहते रहे कि ये घटना काल्पनिक है, लेकिन आरोप कायम रहा.
ऐसे ही एक बार गोविंद नारायण विधानसभा में बोलने खड़े हुए. मामला मालवा में पड़ने वाले धार ज़िले से जुड़ा हुआ था. पर एक वाक्य उचारते ही एक रूखी आवाज़ ने उन्हें टोक दिया,
''अपने विभाग तक सीमित रहो''ये मुख्यमंत्री डीपी मिश्र थे. गोविंद नारायण को सरेआम ठेस लगी. गांठ भी लग गई. उनके मन में.
अंक 2- हारे गुलशेर, नपे गोविंद

डीपी मिश्रा ने मुख्यमंत्री रहते रजवाड़ों का मजाक बनाया था. विजयाराजे सिंधिया ने उनके विधायकों के टिकट काटे, फिर भी डीपी मिश्रा मुख्यमंत्री बन गए.
मुख्यमंत्री के डीपी मिश्रा वाले ऐपिसोड में आपने एक किस्सा सुना था. रानी बनाम सीएम वाला. क्विक रिकैप कर देता हूं. यूथ कांग्रेस के प्रोग्राम में मुख्यमंत्री मिश्रा ने रजवाड़ों का मजाक बनाया. सामने बैठी ग्वालियर की कांग्रेस सांसद विजयराजे सिंधिया को बुरा लगा. फिर 67 के चुनाव में उनके समर्थकों के टिकट कटे. उन्होंने निर्दलीय लड़ाए. डीपी फिर भी सीएम बन गए. मगर सिंधिया अपने बेटे माधवराव संग प्रयासों में लगी रहीं. अब आगे की कहानी.

गुलशेर अहमद ने अपनी हार के लिए डीपी मिश्रा को जिम्मेदार ठहराया था.
चुनाव जीतने और सरकार बनने का जश्न खत्म होते ही दो चीज़ों पर सबका ध्यान गया. पहली ये कि पहली बार कोई विपक्षी दल विधासभा में मज़बूती से पहुंचा - 78 विधायकों वाला जनसंघ. दूसरी ये कि रामपुर बघेलान (माने गोविंद नारायण की सीट) के बगल की सीट अमरपाटन से कांग्रेस प्रत्याशी गुलशेर अहमद चुनाव हार गए. गुलशेर ने कांग्रेस हाईकमान से लिखित शिकायत में इल्ज़ाम लगाया कि गोविंद नारायण की वजह से वो चुनाव हारे. सो जब मिश्र का कैबिनेट बना, तब गोविंद नारायण को नहीं लिया गया. गोविंद नारायण आग बबूला. और उनके अंदर की तपिश को पकड़ लिया राजमाता सिंधिया ने. गोविंद नारायण ने मिश्र के खिलाफ खेमाबंदी शुरू कर दी. दूसरी तरफ राजमाता ने भी मिश्र की मुखालफत के लिए अपने विधायकों का एक गुट बनाया जिसका नाम आगे चलकर हुआ 'जनक्रांति दल'.
अंक 3 पकड़ो-पकड़ो भागने न पाए

डीपी मिश्रा को बृजलाल वर्मा ने कहा था कि उनकी सरकार सुरक्षित है और उसे कोई खतरा नहीं है.
दलबदल की बातों के बीच मिश्र सरकार ने अपना बजट पेश किया और चर्चा चलने लगी. द्वारका प्रसाद को एक दूसरे कांग्रेस नेता बृजलाल वर्मा ने आश्वस्त किया - कोई दलबदल नहीं होने वाला, सरकार सुरक्षित है. अगले दिन सदन में बजट पास हो गया. इसके बाद खड़े हुए शिक्षा मंत्री परमानंद भाई पटेल जिन्होंने कई मांगें गिनवाईं. इसपर वोटिंग की नौबत आई तो कांग्रेस ने अपने विधायकों की गिनती शुरू की. 36 कांग्रेसी विधायक सदन में मौजूद नहीं थे. कहां थे, कोई नहीं जानता था.

एमएन बुच ने अपनी किताब में लिखा है कि सीएम गोविंद नारायण सिंह नोटों से भरा सूटकेस लेकर बैठते थे.
बात चल पड़ी कि राजमाता सिंधिया और जनसंघ के लोगों ने इन 36 विधायकों का अपहरण कर लिया है और मिश्र की सरकार गिराने की पूरी तैयारी कर ली गई है. 19 जुलाई, 1967 को छतरपुर के विधायक लक्ष्मण दास ने विधानसभा अध्यक्ष को लिखिल शिकायत में कहा कि उन्हें एमएलए रेस्टहाउस से उठाकर रात भर खंडहर में रखा गया और जबरन दलबदल के कागज़ पर दस्तखत करवाए गए. एमएन बुच अपनी किताब 'वेन द हार्वेस्ट मून इज़ ब्लू' में लिखते हैं कि उन दिनों गोविंद नारायण एमएलए रेस्टहाउस नंबर एक की सीढ़ियों पर नोटों से भरा सूटकेस लेकर बैठेते थे. विधायक चाहिए थे, किसी भी कीमत पर. तो विधायकों की धरपकड़ भी होती थी. गोविंद नारायण सिंह की आवाज़ रात में गूंजती थी -
'पकड़ों-पकड़ो भागने न पाए'

कांग्रेस से टूटे विधायकों ने इसी होटल में खाना खाया था.
जितने विधायक कांग्रेस से टूटने को तैयार हुए, उन्हें राजमाता ने भोपाल के सबसे आलीशान होटल - द इंपीरियल सेबर में खाना खिलाया. यहीं राजमाता ने गोविंद नारायण सिंह के साथ बैठकर विधायक तोड़ने की नीति बनाई थी. और इस सब में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था टूट से एक रात पहले तक मिश्र को भुलावे में रखने वाले बृजलाल वर्मा ने. यही बृजलाल आगे चलकर जनसंघ के अध्यक्ष और अटल आडवाणी के साथ मोरार जी सरकार में मंत्री भी रहे.

विजयराजे सिंधिया और गोविंद नारायण सिंह ने मिलकर कांग्रेस विधायकों को तोड़ लिया, जिसमें बृजलाल वर्मा ने भी साथ दिया था.
पत्रकार दीपक तिवारी अपनी किताब राजनीतिनामा में बताते हैं, जब विधायक इकट्ठे हुए, तो चांपा के विधायक बिसाहूदास महंत को याद आया कि वो कपड़े साथ नहीं लाए हैं. वो एक विधायक शारदाचरण तिवारी को लेकर एमएलए रेस्टहाउस के लिए निकले ताकि अपना बैग ला सकें. शारदाचरण तिवारी रास्ते में भोपाल टॉकीज़ पर उतर गए और बिसाहूदास जब एमएलए रेस्टहाउस पहुंचे तो उन्हें श्यामाचरण शुक्ल ने पकड़कर कमरे में बंद कर दिया.

वापस लाए गए सभी विधायकों को जयविलास पैलेस में बंद किया गया था.
अगले दिन बचे 26 विधायक. राजमाता इन्हें बस में बैठाकर पहले ग्वालियर ले गईं फिर दिल्ली. मिश्र का डर ऐसा कि आगे-पीछे राजमाता की निजी सेना चलती थी. दिल्ली से कांग्रेस एक विधायक को फिर छल से तोड़ लाई. ये कहकर कि पिताजी बीमार हैं. इसके बाद राजमाता सख्त हो गईं. सभी को वापस ग्वालियर ले आईं और जयविलास पैलेस में बंद कर दिया. पूरा गेम फिट होने के बाद 28 जुलाई को राजमाता अपने विधायकों को लेकर भोपाल के लिए निकलीं. ग्वालियर से ब्यावरा तक का रास्ता राजमाता कि पूर्व रियासत का था. तो वहां तक सब ठीक चला. लेकिन ब्यावरा से आगे जाते ही काफिले का रास्ता रोककर खड़े हो गए गौतम शर्मा. गौतम शर्मा के लोगों के साथ राजमाता के लोगों की लड़ाई हो गई. फिर भी विधायक भोपाल पहुंच गए.
रात में सभी विधायकों को स्पीकर काशी प्रसाद पांडे के बंगले पर रोका गया. विधायकों ने रात स्पीकर के लॉन में गुज़ारी. घास पर लेटे-लेटे. लेकिन किसी ने आजिज़ आकर वहां से जाने की कोशिश नहीं की. क्योंकि रात भर गोविंद नारायण सिंह अपने कंधे पर रिग्बी 275 राइफल लेकर पहरा देते रहे.
अंक 4 – सदन में सियासी वध का वक्त
अगले दिन विधानसभा की कार्रवाई शुरू हुई. शिक्षामंत्री परमानंद पटेल फिर बोलने खड़े हुए. शिक्षा के लिए अलग से विभाग मांगा. पटेल के बोलते-बोलते राजमाता के पाले वाले कांग्रेसी विधायक विपक्ष की बेंच पर जाकर बैठ गए. जनसंघ और दीगर विपक्षी दल मेज़ पीटने लगे और कांग्रेस के विधायक हाय-हाय करने लगे. कांग्रेसियों ने अपने विधायक वापस अपनी बेंच पर लाने के लिए खूब झूमा-झटकी की. उतने में गोविंद नारायण सिंह ने स्पीकर से कह दिया कि हम लोग कांग्रेस से दलबदल करके आए हैं. हमपर दबाव डाला जा रहा है. जान का खतरा है.

डीपी मिश्रा ने मध्यावधि चुनाव की मांग की, लेकिन इंदिरा गांधी चुनाव करवाने को राजी नहीं हुईं.
सदन में स्पीकर के सामने दलबदल के ऐलान के बाद कांग्रेस के पास करने को कुछ रह नहीं गया. शिक्षा विभाग की मांग पर वोट पड़े और कांग्रेस सरकार हार गई. डीपी मिश्र तुरंत राज्यपाल के पास चले गए और मध्यावधि चुनाव की मांग कर दी. राज्यपाल ने इस्तीफा लेकर कह दिया कि नई सरकार बनते तक काम करते रहिए. डीपी मिश्र नहीं जानते थे कि इंदिरा गांधी राज्यपाल को चुनाव करवाने के लिए हरी झंडी नहीं देंगी.

30 जुलाई को गोविंद नारायण ने मुख्यमंंत्री पद की शपथ ली थी.
30 जुलाई को गोविंद नारायण सिंह ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली. कांग्रेस से टूटकर आए विधायकों ने खुद को नाम दिया लोक सेवा दल. राजमाता के विधायक कहलाते थे जनक्रांति दल. इनके साथ आया जनसंघ. समाजवादी और लेफ्ट वाले भी आए. तो सरकार का नाम हुआ संयुक्त विधायक दल. शॉर्ट में 'संविद'. जनसंघ के वीरेंद्र कुमार सखलेचा बने डिप्टी सीएम. एक समन्यवय समिति बनी, जिसकी अध्यक्ष हुईं विजयाराजे सिंधिया.
अंक 5- आंग्रे इज एंग्री
संविद सरकार जोड़तोड़ का नतीजा थी. गोविंद नारायण सिंह की टांग तीन दिशाओं में खिंची जाती थी. कांग्रेसी, जनसंघी और सिंधिया खेमा. गोविंद का पूरा वक्त कलह सुलझाने में जाता. सरकार बनाने में पैसा भी बहुत खर्चा था. सो सबको कमाने की भी जल्दी थी. ये हुई पोस्टिंग-ट्रांसफर को उद्योग बनाकर. ठेकों में रिश्वत भी चरम पर पहुंची. और चरम पर पहुंचा राजमाता सिंधिया का दखल. जबकि गोविंद नारायण अपने बाप अवधेश प्रताप के जमाने से ही रजवाड़ों से दूर और लोक के साथ होने लगे थे.

सरदार आंग्रे (दाएं) गोविंद नारायण सिंह को लगातार विजयाराजे सिंधिया के आदेश फोन पर सुनाते रहते थे.
सिंधिया के सहायक सरदार आंग्रे लगातार गोविंद नारायण को फोन पर 'हर आईनेस' के आदेश सुनाते रहते. नियुक्ति-ट्रांसफर के इन कामों में सवाल-जवाब की जगह नहीं होती. शुरुआत में गोविंद नारायण ने ये आदेश माने. लेकिन बाद में वो आजिज़ आने लगे. राजमाता चाहती थीं कि गोविंद नारायण डीपी मिश्र पर किसी बहाने कार्रवाई कर दें. लेकिन गोविंद नारायण ने ऐसा नहीं किया. यहां से खिंचाव शुरू हुआ.

अर्जुन सिंह ने कांग्रेस अध्यक्ष एस निजलिंगप्पा से बात की और गोविंद नारायण सिंह कांग्रेस में वापस आ गए.
साल 1969 में गोविंद नारायण ने बिजली बोर्ड के अध्यक्ष पद पर नियुक्ति कर दी. सरदार आंग्रे को जैसे ही ये मालूम चला, उन्होंने गोविंद नारायण को फोन करके कहा कि मेरी अनुमति न लेकर आपने राजमाता का अपमान किया है. गोविंद नारायण इस बार अड़ गए. मार्च 1969 की एक सर्द रात को गोविंद नारायण अर्जुन सिंह से मिलने गए. कहा, कांग्रेस में वापस आना चाहता हूं. अगली सुबह अर्जुन सिंह के पास गोविंद नारायण का एक खत पहुंचा. अर्जुन सिंह इस खत को लेकर खुद बंगलौर गए कांग्रेस अध्यक्ष एस निजलिंगप्पा के पास. वहां से संदेश मिलने के बाद गोविंद नारायण ने राजमाता को संदेश भिजवा दिया. डीपी मिश्र पर कार्रवाई वाली बात पर. दो टूक - कांग्रेसी हूं, कांग्रेसी ही रहूंगा. इसके बाद गोविंद नारायण का इस्तीफा महज़ औपचारिकता रह गई थी. ये काम हुआ 10 मार्च, 1969 को.
अंक 6 और अंत में.
इंदिरा ने गोविंद को वापस लिया, लेकिन वापस मध्य प्रदेश की सियासत में नहीं जाने दिया. दिल्ली में बसेरा करवा दिया. राजीव राज में वो बिहार के राज्यपाल बने, मगर वित्तीय गड़बडियों के इल्जाम के चलते ये पारी भी अचानक खत्म हो गई. और यहीं ये कहानी भी खत्म होती है.

राजीव गांधी ने गोविंद नारायण को बिहार का राज्यपाल बनाया, लेकिन वो लंबे वक्त तक पद पर नहीं रह सके.
मुख्यमंत्री के अगले एपिसोड में आपको बताएंगे मध्यप्रदेश के पहले आदिवासी मुख्यमंत्री की कहानी जो 13 दिन मुख्यमंत्री रहा. 14 वें दिन उसने इस्तीफा दिया और फिर कभी राजनीति को पलटकर नहीं देखा.
एमपी के पहले और इकलौते आदिवासी सीएम नरेश चंद्र सिंह की कहानी
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