हम एक सवाल पूछना चाहते हैं - भारत की फुटबॉल टीम का कप्तान कौन है? हमें मत बताइए, अपने मन में जवाब दीजिए. चीटिंग नहीं, गूगल नहीं. बस याद हो, तो बताना है. समय समाप्त. वो लोग खुशी मना सकते हैं, जिन्होंने जवाब दिया, सुनील क्षेत्री. हो सकता है कुछ लोगों के मन में बाइचुंग भूटिया आया हो, लेकिन अब वो रिटायर हो चुके हैं. सुनील क्षेत्री, बाइचुंग भूटिया. ये वो नाम हैं, जिनसे कुछ लोग परिचत तो हैं. बाकी भारतीय फुटबॉलर्स के तो हम नाम भी नहीं जानते. क्योंकि भारत ने इस खेल को कभी गंभीरता से लिया नहीं. हम पूरी विनम्रता के साथ इस बात को स्वीकार करते हैं, कि इस बुलेटिन की तैयारी से पहले हमें भी उस सवाल का जवाब नहीं मालूम था, जो हमने आपसे पूछा. और यही समस्या है. कि भारतीय फुटबॉल कहां है, किस हाल में है, हम न जानते हैं, न हमें परवाह है.
मेसी की जीत का जश्न तो मना लिया लेकिन भारत की टीम क्यों नहीं खेल पाती फुटबॉल वर्ल्ड कप?
लोगों के स्टेटस देखिए - एक ही चेहरा नजर आ रहा होगा. लियोनेल मेसी.

शायद यही वजह है कि अर्जेंटीना और फ्रांस के बीच हुए फीफा वर्ल्ड कप में हम विजेता से किसी तरह का कोई संबंध खोज लेना चाहते हैं. असम के बारपेटा से कांग्रेस सांसद अब्दुल खालिक को ही ले लीजिए. आज सुबह सुबह उन्होंने मेसी को तहेदिल से बधाई दी. साथ ही उनके असम से रिश्ते पर गर्व का अनुभव भी कर लिया. जब लोगों ने पूछा कि मेसी का असम से क्या रिश्ता है, तो सांसद जी ने कहा कि मेसी असम में पैदा हुए थे. जब सांसद जी को मालूम चला कि उनसे गलती हो गई, तो उन्होंने ट्वीट डिलीट भी कर दिया. लेकिन तब तक जनता ने मेसी को असमिया गमछा पहनाकर मीम बना दिया था.
लौटते हैं भारत और फुटबॉल पर. इस तर्क में कोई दम नहीं है कि भारत की आबादी 140 करोड़ है तो उसे ऑस्कर भी जीतना चाहिए, कान भी जीतना चाहिए, ओलंपिक भी जीतना चाहिए और फीफा भी. एक देश खेल या कला की हर विधा में अव्वल नहीं हो सकता. लेकिन क्या सिर्फ इतने भर से भारत में फुटबॉल की संभावनाओं को खारिज किया जा सकता है? खेल प्रशासन की खामियों पर पर्दा डाला जा सकता है? जिस देश में गेंद और पाले की बात किए बिना न राजनीति होती है न खबर लिखी जाती है, वहां फुटबॉल का हाल क्या है?
केरल से पूरी रात जश्न की तस्वीरें आईं, गोवा पूरी रात झूमता रहा. नॉर्थ ईस्ट भी खुशी के मारे नाच रहा था. क्या दिल्ली, क्या मुंबई, क्या चेन्नई और क्या कोलकाता...हर जगह से उल्लास में उछलते लोग देखे गए. फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप के बुखार ने पूरे इंडिया को जकड़ लिया. व्हाट्सऐप पर अपने जानने वाले लोगों के स्टेटस देखिए - एक ही चेहरा नजर आ रहा होग. लियोनेल मेसी. अर्जेंटीना की जीत पर पूरा हिंदुस्तान हर्ष में डूबा है, मानों जैसे हमने 1983, 2007 या 2011 दोहरा दिया हो. ना तो हमारे देश की टीम फीफा वर्डकप खेल रही थी. ना ही कोई भारतीय मूल का खिलाड़ी अर्जेंटीना की टीम का हिस्सा था. लेकिनल खुश होने को कोई वजह मिल जाए, तो उसमें मीन मेख नहीं निकालते. फिर फुटबॉल को चाहने वालों के लिए ये खेल भर तो नहीं है. एक इमोशन है, और यही इमोशन हिंस्दुस्तान के हर कोने में दिखा.
मैच के बाद दी लल्लनटॉप के बहुतेरे दर्शकों ने पूछा इंडिया की टीम वर्ल्ड कप क्यों नहीं खेलती? वर्ल्ड कप में हम कब तिरंगे को देखेंगे? हमें लगा, इसपर बात करनी जरूरी है. भारत वर्ल्ड कप कब खेलेगा,भारत में कोई मेसी कब होगा? जज्बातों के तूफान के बीच इस सवाल को टटोटला आज जरूरी हो गया है.ताकि आपको पता लगे कि यहां के सिस्टम में वो क्या खामिया हैं? जिनके चलते भारतीय टीम बड़े मंचों पर नहीं पहुंच पाती.
ये इतिहास की खुदाई का ज़माना है, तो चलिए पहले भारतीय फुटबॉल के इतिहास को ही खंगाल लेते हैं. इस काम में हमारी मदद की है दी लल्लनटॉप स्पोर्ट्स के हमारे साथी पुनीत ने. आपने शायद ऐसा सुना होगा कि इंडिया को 1950 में फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप खेलने के लिए न्योता दिया गया था, पर भारत ने इसमें हिस्सा नही लिया. इसकी वजह ये थी कि इंडिया में वर्ल्ड कप से बड़ा ओलंपिक्स को माना जाता था. सो टीम ने ओलंपिक खेला. 1952 ओलंपिक्स में टीम इंडिया को प्रिलिमनरी राउंड में ही युगोस्लाविया ने 10-1 से हराकर बाहर कर दिया था.
हालांकि यहां सब ख़त्म नही हुआ. 1962 के एशियन गेम्स में हमारे देश ने गोल्ड मेडल जीता था. फाइनल में इंडिया ने साउथ कोरिया को 2-1 से हराया. इसके दो साल बाद इंडिया ने AFC एशियन कप में दूसरे स्थान पर आई. उस दौर को इंडियन फुटबॉल के गोल्डन पीरियड के तौर पर जाना जाता है.क्योंकि उसके बाद ओलंपिक्स तो छोड़िए, टीम अगर एशियन कप के लिए क्वालिफाई कर जाए, तो ही बहुत बड़ी बात मानी जाती है. भारत ने 2019 में भी एशियन कप के लिए क्वालिफाई किया था, और 2023 में कतर में होने वाले एशियन कप में भी टीम हिस्सा लेने वाली है. स्थिति बेहतर है, पर उतनी भी नही कि भारत वर्ल्ड कप खेल जाए.
हमारे यहां आज अलग अलग तरह से ये सवाल पूछा जा रहा है कि मेसी या किलन एम्बापे हमारे यहां पैदा क्यों नहीं होते. इस सवाल पर विचार करने के लिए हमें इनकी कहानियां को समझना होगा. हम आपको अपनी ओर से लियोनेल मेसी के ''मेसी'' बनने की कहानी बता रहे हैं. क्योंकि इसी कहानी में आपको भारतीय फुटबॉल के हाल से जुड़े सवालों के जवाब मिलने शुरू हो जाएंगे, बाकी हम बताएंगे ही. आज की तारीख में जो फुटबॉल के बारे में नहीं जानते या मैच नहीं देखते, उनकी जुबान पर भी जाने अनजाने मेसी का नाम आ चुका है. फ्रांस के खिलाफ पेनल्टी शूटआउट में 4-2 से जीतकर अर्जेंटीना ने अपने कप्तान मेसी को वर्ल्ड कप का 'तोहफा' दिया. 'फुटबॉल का जादूगर' कहे जाने वाले मेसी को करियर में 18 साल बिताने के बाद वर्ल्ड कप जीतने का सुख मिला है. लेकिन मेसी ने इंटरनैशनल करियर शुरू करने से पहले एक बड़ी जीत हासिल की थी. ऐसी जीत, जो अगर नहीं मिलती तो शायद आज इस मुकाम पर नहीं होते.
दक्षिण अमेरिकी देश अर्जेंनटीना के रोज़ारियो में जन्मे मेसी बचपन में ग्रोथ हार्मोन डिफिशिएंसी नाम की दुर्लभ बीमारी के शिकार थे. एक ऐसी बीमारी जिसमें शरीर का सही तरीके से विकास नहीं हो पाता है. हाइट सामान्य अनुपात में नहीं बढ़ पाती है. दूसरी तरह की कमियां भी शरीर में रह जाती हैं. मानव शरीर में पट्यूटरी ग्लैंड (पीयूष ग्रंथि) ग्रोथ हार्मोन रिलीज करता है जिससे बच्चों की हड्डियों और दूसरे हिस्सों का विकास होता है. लेकिन एक लाख में ऐसे 10 से 33 बदकिस्मत बच्चे होते हैं जिनकी बॉडी में ये हार्मोन रिलीज नहीं होता. ऐसी बीमारी के लक्षण तब दिखते हैं जब बच्चे अपनी उम्र के बच्चों की तुलना में औसतन छोटे दिखते हैं.
मेसी की हाइट अभी 5 फीट 7 इंच है. ये सामान्य कहा जा सकता है. लेकिन बचपन में सामान्य नहीं था. बचपन से फुटबॉल के शौकीन मेसी की इस बीमारी का पता 11 साल की उम्र में चला. द एथेलेटिक की रिपोर्ट के मुताबिक एक डॉक्टर डिएगो वॉर्ज्सटीन ने मेसी के परिवार को बताया था कि उनकी हाइट पिछले कुछ सालों में नहीं बढ़ी है. डॉ डिएगो ने मेसी का इलाज किया था. इसमें हर दिन उन्हें पैर में ह्यूमन ग्रोथ हार्मोन (HGH) इंजेक्शन लेना पड़ता था. ये सिलसिला करीब तीन सालों तक चला था.
ये इलाज काफी महंगा था. करीब 900 डॉलर हर महीने का खर्च. अभी के हिसाब से देखें तो 74 हजार रुपये महीना. और यहां से होती है मेसी की जिंदगी में देश के सिस्टम की एंट्री.अर्जेंटीना के फुटबॉल क्लब 'नेवेल्स ओल्ड बॉयज' ने तब मेसी में दिलचस्पी दिखाई थी. मेसी के पिता उन्हें लेकर उस क्लब में गए. नेवेल्स ने मेसी को अपने पास रखा, लेकिन जितने पैसे मिल रहे थे वो काफी नहीं थे. इसके बाद मेसी का परिवार 10 हजार किलोमीटर दूर स्पेन के बार्सिलोना क्लब पहुंचा. बार्सिलोना क्लब मेसी के इलाज का पूरा खर्च उठाने को तैयार हो गया. इसके बाद जो हुआ सब इतिहास में दर्ज है.
यहां आप देखिए छोटी उम्र में एक सुपरस्टार खिलाड़ी के टैलेंट को क्लब ने पहचान लिया.उसे स्पेनिश फुटबॉल क्लब बार्सिलोना ने हाथों हाथ लिया और कहानी चल निकली.सिर्फ 13 साल की उम्र में बार्सिलोना क्लब से जुड़े मेसी इसकी चर्चा पहले कर चुके हैं. गार्डियन की रिपोर्ट के मुताबिक एक इंटरव्यू में मेसी ने कहा था,
"मेरे लिए बार्सिलोना पहुंचना मुश्किल नहीं था, क्योंकि मैं जानता था ऐसा मुझे करना ही था. मुझे अपने इलाज के लिए पैसे की जरूरत थी और सिर्फ बार्सिलोना एकमात्र क्लब था जो मदद के लिए तैयार था. इसलिए जैसे ही उन्होंने मदद की, हम वहां पहुंच गए."
लड़कपन में ही बार्सिलोना से जुड़ने के बाद पिछले साल तक मेसी इसी क्लब के साथ जुड़े रहे. दोनों का साथ करीब 21 साल तक चला था. मेसी ने साल 2000 में सिर्फ बार्सिलोना के साथ कॉन्ट्रेक्ट साइन किया था. वहीं अपने देश अर्जेंटीना के लिए मेसी कुल 171 अंतरराष्ट्रीय मैच खेल चुके हैं.अब तक कुल जमा बात करेंगे तो 1,003 मैच. 793 गोल. 7 बैलन डी'ऑर. और, एक वर्ल्ड कप. ये हैं लियोनेल आंद्रेस मेसी.मेसी — द लिटल बॉय फ़्रॉम रोज़ारियो. एक साल या पांच साल नहीं, एक युग को डिफ़ाइन करने वाला खिलाड़ी. मेसी ख़ुदरंग हैं. मेसी के विवरण के लिए कोई भी उपमा कम है.फिलवक्त उन्हें पब्लिक G.O.A.T यानी बकरी नहीं, यानी ग्रेटेस्ट ऑफ ऑलटाइम कह रही है.
फ़ील्ड तो फ़ील्ड है, मेसी कमाई के मामले में भी मेसी हैं. इनसाइडर की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, मेसी की कुल नेटवर्थ 600 मिलियन डॉलर यानी क़रीब 4 हज़ार 958 करोड़ रुपये है. वर्ल्ड कप जीतने पर अर्जेंटीना को मिले 348 करोड़. यानी पूरी टीम को जितने मिले, मेसी का नेटवर्थ उससे चौदह गुना ज़्यादा है.फोर्ब्स के मुताबिक़, मेसी ने पिछले साल में 75 मिलियन डॉलर (620 करोड़ रुपये) की ऑन-फ़ील्ड कमाई की. मतलब फ़ीस वाली कमाई. दुनिया के किसी भी खिलाड़ी से ज़्यादा. हफ़्ते का लगा लें, तो 6 करोड़ रुपये से थोड़ा ज़्यादा. एक दिन का 86 लाख. एक घंटे का 7 लाख रुपये. मिनट और सेकंड का गणित आप दर्शकों के हवाले.
खेल के अलावा भी मेसी कई मशहूर ब्रैंड्स के प्रमोशन से मोटा पैसा उठाते हैं।जिनकी एक लंबी लिस्ट है.मेसी की साल 2021 की ऑफ़-फ़ील्ड कमाई 55 मिलियन डॉलर (455 करोड़ रुपये) के क़रीब है. इस मामले में उनसे ऊपर केवल दो लोग हैं।टेनिस खिलाड़ी रॉजर फ़ेडरर और बास्केटबॉल खिलाड़ी लेब्रॉन जेम्स.ये कहानी बताती है कि अभाव में जन्मे एक बच्चे के टैलेंट को पहचान लिया जाए और वक्त पर सिस्टम से मदद मिल जाए तो वो अकेले आपके लिए दुनिया जीत सकता है।
अब अर्जेंटीना से लौटकर भारत आते हैं.यहां के फुटबॉल सिस्टम, कल्चर और इन्फ्रास्ट्रक्चर को समझते हैं.भारतीय फुटबॉल जहां है, उसके वहां होने की कई बड़ी वजहें हैं, पहली तो ये, कि कोलकाता, गोवा और नॉर्थ ईस्ट को छोड़ दे तो फुटबॉल छोटे-छोटे कस्बों का खेल बन कर रह गया है. आप घर से निकलेंगे तो आपको अगर 10 गलियों में क्रिकेट खेलते बच्चे नज़र आए, तो शायद एकाध गली में फुटबॉल खेलते बच्चे दिखें.दिख सकते हैं, दिखेंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है.लल्लनटॉप के लिए स्पोर्स्टस कवर करने वाले पुनीत लिखते हैं कि देश में फुटबॉल के मैदान बहुत कम हैं. जितने वर्ल्ड क्लास स्टेडियम्स हैं, उन्हें छोड़ दें तो मैदान की घास देख आपको लगेगा कि यहां या तो बीती रात कोई बारात आई होगी, या सुबह गाय-भैंस यहीं चरती होंगी.मोटा-मोटा, मैदान है नहीं, है तो मेंटेनेंस ज़ीरो है. अगर 200 किमी के दायरे में एक अच्छा स्टेडियम है भी, तो वहां पहुंचना हर बच्चे के लिए मुमकिन नही. आधा टैलेंट तो यहीं ख़त्म हो जाता है.
दूसरी वजह- कितने ही ऐसे लोग हैं, जो फुटबॉल सिर्फ फीफा वर्ल्ड कप के दौरान देखते हैं. हो सकता है मैं आपकी ही बात कर रहा हूं. एक वर्ग ऐसा है, जो इंग्लैंड, स्पेन, इटली, जर्मनी का क्लब फुटबॉल फॉलो करता है, पर इंडिया में फुटबॉल में क्या चल रहा है, इसकी कोई ख़बर नहीं रखता. इंडियन फुटबॉल पर गौर करने वालों की संख्या बहुत कम है और यूथ लेवल पर ध्यान देने की बात करें तो वो और भी कम. इंडिया की आबादी ही उसकी ताकत है और जब तक एक आम भारतीय फुटबॉल में दिलचस्पी नहीं लेगा, ये हाल ऐसा ही रहेगा. क्योंकि इस गेम के डेवलेपमेंट के लिए पैसे चाहिए और वो तभी आएंगे, जब लोग इस गेम से जुड़ेंगे.
इंडियन क्लब्स के सबसे बड़े मैचों में ठीक-ठाक भीड़ देखने को जरूर मिलती है, पर पूरे सीज़न स्टेडियम्स या तो आधे-खाली दिखते हैं, या कंप्लिमेंट्री सीट्स से भरे जाते हैं. इंडियन सुपर लीग इंडिया की टॉप लीग है. ये लीग अब तक क्लोस्ड थी, यानी 11 की 11 टीम्स ही इसमें खेलती थी. अब नया नियम बनाया गया है, कि I-league जीतने वाली टीम को इंडियन सुपर लीग में जगह मिलेगी. इससे टीम्स और खेल में एक स्पर्धा देखने को मिलेगी. I-league को इंडियन फुटबॉल का प्री स्कूल माना जाता है.इसे आप क्रिकेट के रणजी की तरह समझ सकते हैं
सबसे महत्वपूर्ण कारण है - कल्चर. ब्राज़ील, अर्जेंटीना और यूरोप के कई देशों में फुटबॉल जिंदगी का अंग हैं. स्कूल में सुबह फुटबॉल खेलने से दिन शुरू होता है. माता-पिता अपने बच्चों को हर साल एक फुटबॉल और एक जर्सी तो जरूर देते ही हैं.हर मुहल्ले से कोई-न-कोई स्टार बना चुका होता है, तो लोकल सुपरहीरो और इंसपीरेशन ढूंढना भी मुश्किल नहीं है.मगर हमारे यहां की सच्चाई है कि 130 करोड़ लोग मिलकर 11 टॉप प्लेयर्स नहीं खड़ा कर पा रहें.ऐसे नहीं है कि टैलेंट नहीं है, बस उसकी कद्र नहीं है. खिलाड़ी तैयार करने का सिस्टम नहीं है, तैयार हो गया तो जो व्यवस्था होनी चाहिए वो नहीं.इसलिए इंडिया का ज्यादातर टैलेंट बर्बाद हो जाता है. जो अपनी मेहनत से आगे बढ़ता है वो इंडिया के लिए या किसी विदेशी क्लब के लिए खेल लेता है.ऐसे हाल में वर्ल्ड कप के सपने देखना, सच कहें तो किसी रेगिस्तान में मृग मारिचिका पा लेने जैसा है.
इस पर इंडियन वुमेन्स फुटबॉल टीम की खिलाड़ी डालिमा छिब्बर ने बताया कि भारतीय फुटबॉल की दुनिया में बदलाव आ रहे हैं और सुधार भी हो रहा है. कुल मिलाकर मौके मिल रहे हैं, मगर FIFA का वो मंच कब मिलेगा.शायद कोई नास्त्रेदमस या बाबा वेगा जैसा भविष्यवक्ता बता सके.फिलहाल तो ये जवाब किसी के पास नहीं है.मार्के की बात ये है कि सिस्टम और कल्चर के इन झमेलों से जब तक मुक्ति नहीं मिलेगी.हम दूसरे मुल्कों में अपने हीरो तलाशते रहेंगे और उनकी खुशी में अपनी खुशी.वैसे भी डॉक्टर कहते हैं खुश रहना चाहिए.FIFA जीतने वाले अर्जेंटीना को 348 करोड़ प्राइज मनी मिला, रनरअप रही फ्रांस को 248 करोड़ मिले.जिन टीमों ने भी FIFA वल्डकप खेला उन्हें कम से कम 74 करोड़ तो मिलेंगे ही.हमें भी मिला था 2011 में क्रिकेट विश्वकप जीतने पर करीब 50 करोड़.जिसकी हमें बहुत खुशी है. लेकिन ये ज़रूरी है कि हम क्रिकेट के साथ साथ बाकी खेलों की संभावनाओं पर भी ध्यान दें.
दी लल्लनटॉप शो: मेसी का ये राज़ समझ लिया को भारत भी FIFA पहुंच सकता है!