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UP में एक सीट जीतने वाली बसपा की राजनीति को आकाश क्या वापस चमका पाएंगे?

बसपा में एक कल्चरल शिफ्ट दिख रहा है. मायावती का उदय क्रमिक था. कैराना, बिजनौर, हरिद्वार से चुनाव लड़ीं, हारीं, फिर धीरे-धीरे वोट बढ़े, स्वीकार्यता बढ़ी. आकाश का उदय इससे अलग है. 2019 में डेब्यू, 4 साल में उत्तराधिकारी.

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भतीजे आकाश के साथ मायावती (फोटो-X)

बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपना उत्तराधिकारी चुन लिया है. आकाश आनंद. 12 दिसंबर को पार्टी की बैठक हुई, जिसमें मायावती ने ये बड़ा एलान किया. आकाश पद में फिलहाल बसपा के नेशनल कोऑर्डिनेटर हैं और रिश्ते में मायावती के भतीजे. इस फ़ैसले का आगे पार्टी पर और हिन्दी पट्टी की दलित राजनीति पर क्या असर होगा, जानने के लिए हमने इस क्षेत्र के कुछ एक्सपर्ट्स से बात की. 

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ये बातचीत मोटा-माटी इन पॉइंट्स पर आधारित रही.

# आकाश राजनीति में काफी नए हैं तो योग्यता पर सवाल उठेंगे. और मायावती के भतीजे हैं तो परिवारवाद के आरोप लगेंगे. ये दोनों फैक्टर पर रिएक्शन.

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# बसपा को 2017 के विधानसभा चुनाव में यूपी में 19 सीट, 2022 में सिर्फ एक सीट मिली थी. 2014 के लोकसभा चुनाव में ज़ीरो सीट, 2019 में 10 सीट. बसपा के साथ समस्या कहां आई है? क्योंकि वही आकाश के लिए चैलेंज होगा.

# अब आनंद कुमार और सतीश मिश्रा जैसे सीनियर नेताओं का क्या रोल होगा? क्या आकाश की पार्टी में नेचुरल स्वीकार्यता होगी? चंद्रशेखर आज़ाद जैसे युवा दलित नेताओं से तुलना में आकाश आनंद कहां हैं?

# बसपा में एक कल्चरल शिफ्ट दिख रहा है. मायावती का उदय क्रमिक था. कैराना, बिजनौर, हरिद्वार से चुनाव लड़ीं, हारीं, फिर धीरे-धीरे वोट बढ़े, स्वीकार्यता बढ़ी. आकाश का उदय इससे अलग है. 2019 में डेब्यू, 4 साल में उत्तराधिकारी.

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# कल्चरल शिफ्ट की बात में ही एक बात और जुड़ती है. कांशीराम के समय के लगभग सभी नेता (जैसे- आरएस कुशवाहा, नसीमुद्दीन सिद्दकी, आरके चौधरी वगैरह) एक-एक करके पार्टी से बाहर हो गए. क्या ये समय और बदलती राजनीति की मांग थी या मायावती का स्टाइल ऑफ लीडरशिप?

इन सब सवालों को सामने रखकर हमने बात की वरिष्ठ पत्रकार और पॉलिटिकल एनालिस्ट अभय दुबे से. उनका कहना है कि योग्यता और चुनौतियों पर बात होनी चाहिए लेकिन आकाश आनंद के लिए नहीं, मायावती के लिए. योग्यता उन्हें साबित करनी है. अभय दुबे कहते हैं, 

"पार्टी की स्थिति बेहद ख़राब है, सीटें आ नहीं रहीं, भ्रष्टाचार के आरोप हैं. बसपा के साथ समस्या ये है कि कांशीराम ने जो वोट बैंक खड़ा किया था, जिन लोगों को साथ जोड़ा था, वो सब अब पार्टी का साथ छोड़ते जा रहे हैं. जाटवों के साथ से ये पार्टी खड़ी हुई. आगे चलकर अति पिछड़े और ग़रीब मुस्लिमों का भी साथ मिला. लेकिन मायावती इनमें से किसी भी वोट बैंक को 2012 के बाद साथ नहीं रख सकीं. कुछ साबित करना है तो मायावती को. उन्हें अपना और पार्टी का पॉलिटिकल रेलवेंस साबित करना है."

मायावती ने कांशीराम की विरासत को कैसे संभाला और अब अगली पीढ़ी को विरासत किस तरीके से सौंप रही हैं? इस पर अभय दुबे कहते हैं कि 2007 में पार्टी को अभूतपूर्व सफलता मिली. ऐसी सत्ता UP के इतिहास में कम ही पार्टियों को मिली है. 100 में 70 जाटव उनके साथ थे. गरीब मुस्लिम, अति पिछड़ा साथ था.

अभय दुबे मानते हैं कि द्विज जातियों को लेकर 2007 के पहले से जो प्रयोग शुरू हुए थे, वो 2007 में रंग लाए. द्विज जातियों के साथ मैत्री मुहिम चलाई गई. राजपूत सम्मेलन, ब्राह्मण सम्मेलन किए. साथ मिला, सत्ता बनी. लेकिन इस साथ को मायावती 5 साल भी बरकरार नहीं रख सकीं. वे आगे कहते हैं,

"कांशीराम के पास RK चौधरी जैसे नेता थे, जिनके पास गजब का सांगठनिक कौशल था. लेकिन उन्होंने मायावती को आगे बढ़ाया, क्योंकि वो जाटव समुदाय से आती थीं. आज ये समुदाय भी मायावती के साथ नहीं है. मायावती, बसपा और आकाश आनंद को यकीनन आज़ाद जैसे नेता से चुनौती मिल सकती है. लेकिन फिलहाल दलित ब्यूरोक्रेसी का बसपा पर भरोसा कायम है और जब तक ये भरोसा है, बसपा के पास कुछ चांस है. ये भरोसा कब तक रहेगा, कह नहीं सकते."

बसपा कार्यालय में मायावती (फोटो- X)

बता दें कि इसी साल आकाश आनंद ने भी 'सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय संकल्प यात्रा' निकाली थी. यानी बसपा एक बार फिर 2007 वाला प्रयोग करती दिख रही है. इस बार नेतृत्व मायावती नहीं, आकाश कर रहे हैं.

हमने इसे समझने के लिए लेखक बद्री नारायण से भी बात की. बद्री नारायण 'कांशीराम- लीडर ऑफ दलित' नाम से किताब लिख चुके हैं. उनका कहना है कि बसपा अब नए लोगों को आगे बढ़ाने की तरफ देख रही है. राजनीति में अधिकतर उदाहरण ऐसे हैं, जहां सीनियर लीडरशिप की तरफ से एक नाम आगे रखा गया तो आज नहीं तो कल पार्टी में स्वीकार्यता बन ही जाती है. वे आगे कहते हैं,

"कांग्रेस को ही देख लीजिए. ये सब इस पर भी निर्भर करता है कि आकाश आने वाले चुनावों में पार्टी के लिए क्या रिज़ल्ट लाते हैं. लेकिन परिवारवाद पर तो बसपा को जवाब देना ही पड़ेगा. पुराने कई नेता तो एक-एक करके बाहर हो गए हैं. पार्टी का ग्राफ भी अभी नीचे है. आकाश को काडर के स्तर पर स्वीकार्यता बनाने के लिए तो मेहनत करनी होगी."

मायावती और बसपा की फ्यूचर लीडरशिप की चुनौतियों को लेकर कुछ समय पहले लल्लनटॉप ने JNU के प्रोफेसर विवेक कुमार से भी बात की थी. तब विवेक कुमार ने कहा था कि कांशीराम ने पैन इंडिया लेवल से को-ऑर्डिनेटर तैयार किए थे. पंजाब से हरभजन लाखा, महाराष्ट्र से सुरेश माने वगैरह. प्रोफेसर विवेक के मुताबिक, 

"मायावती के आने के बाद को-ऑर्डिनेटर UP से ही निकलने लगे, बाकी राज्यों की भूमिका कम हुई, कांशीराम की तरह नेता तैयार करने का चलन कम हुआ. पावर सेंटर एक होने से पुराने नेता प्रासंगिकता खोने लगे और नये नेता निकले नहीं. पार्टी वहीं अटक गईं."

आकाश आनंद को उत्तराधिकारी बनाया जाना उनके लिए तो चुनौती है ही, उनसे बड़ी चुनौती ये मायावती के लिए नज़र आ रही है. 2024 के लोकसभा चुनाव सामने हैं. मायावती ने फिलहाल उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की कमान अपने हाथ में ही रखी है. ये 6 महीने बसपा के लिए अहम होंगे.

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