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वरिष्ठता नियम पर सुनवाई के बीच इलाहाबाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट आमने-सामने

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट की उस सुनवाई पर आपत्ति जताई जिसमें जजों की वरिष्ठता तय करने के लिए एक समान नियम बनाने की बात हो रही थी.

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इलाहबाद हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट को अपने अधिकार क्षेत्र में दखल देने से मना किया

“सुप्रीम कोर्ट शुड कीप इट्स हैंड्स ऑफ़ हाईकोर्ट मैटर्स!” ये हम नहीं बता रहे, सुप्रीम कोर्ट के पांच-जज-बेंच के सामने इलाहबाद हाईकोर्ट को रिप्रेज़ेंट कर रहे सीनियर वकील राकेश द्विवेदी ने कहा है.

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देश के सर्वोच्च न्यायालय सुप्रीम कोर्ट और इलाहाबाद हाईकोर्ट के बीच की तना-तनी बीते कुछ समय में उभर कर सामने आ रही है. आपको याद होगा साल 2025 के ही अगस्त में इलाहबाद हाईकोर्ट के जज प्रशांत कुमार को सुप्रीम कोर्ट ने गलत तरह से सुनवाई करने के लिए फटकार लगा दी थी. साथ में उनसे सारे क्रिमिनल केस भी छीन लिए गए थे. लेकिन इसके बाद रोस्टर से जैसे ही नाम हटा, हाईकोर्ट के 13 जज, इन्क्लूडिंग चीफ जस्टिस अरुण भंसाली ने सुप्रीम कोर्ट को चिट्ठी भेज दी. लिखा कि 'सुप्रीम कोर्ट इस तरह से हाईकोर्ट के जज को ज़लील नहीं कर सकता.' इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने न केवल जज प्रशांत कुमार के रोस्टर को दुबारा लागू किया, बल्कि उनके खिलाफ की गयी अपनी टिप्पणी को भी वापस ले लिया.

अब एक नए मामले में हुआ ये है कि बीते दिन यानी 29 अक्टूबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट में एक केस चल रहा था. केस के लिए एक संवैधानिक बेंच बैठी थी पांच जजों की, जिसे हेड कर रहे थे चीफ जस्टिस बी.आर. गवई पहले मामला क्या था इसे समझते हैं.

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तो क्या है कि साल-दर-साल से डिस्ट्रिक्ट और सेशंस कोर्ट में जज लोगों की सीनियोरिटी कैसे तय की जायेगी इस पर विवाद था. संविधान के कुछ अनुच्छेदों को अगर पढ़ें तो ये निर्धारित करने का हक़ तमाम हाईकोर्ट्स के पास है कि उस राज्य के डिस्ट्रिक्ट और सेशंस कोर्ट में सीनियोरिटी किसकी और कैसे होगी. या तो जो जज उम्र में सीनियर हैं, उन्हें सीनियर का दर्जा मिले या फिर जिनका मेरिट लिस्ट में नाम ऊपर आएगा, वो सीनियर माने जायेंगे. लेकिन इतना आसान भी नहीं है. मामला फंसता वहां है जहां हर राज्य में जज लोगों का ट्रेनिंग पीरियड अलग-अलग है.

अब इस वजह से बहुत बार जिनका नाम मेरिट में ऊपर आता है वो रिलेटिवली लम्बे ट्रेनिंग पीरियड की वजह से सीनियोरिटी में पीछे रह जाते हैं और यहीं सारा मामला गड्डमड्ड हो जाता है. तो सुनवाई इसलिए चल रही थी ताकि सुप्रीम कोर्ट एक नियम, एक गाइडलाइन बना सके जिसके तहत सारे हाइयर जुडिशियरी यानी डिस्ट्रिक्ट और सेशंस कोर्ट में सीनियोरिटी एकरूपता से तय की जा सके.

लेकिन इस पूरी सुनवाई से इलाहबाद हाईकोर्ट को आपत्ति हो गयी. हाईकोर्ट के हिसाब से ये पूरा-पूरा उसके काम और ताक़त में दखल डालना है. जजों के नाम रेकमेंड कर पाने वाले हक़ का उल्लंघन. इलाहबाद हाईकोर्ट को रिप्रेसेंट करते हुए सीनियर लॉयर राकेश द्विवेदी ने कहा,

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“सुप्रीम कोर्ट को हाई कोर्ट के कामों में दखल नहीं देनी चाहिए. भर्ती, प्रमोशन या जिला जजों के कोटे से जुड़े मामलों में सुप्रीम कोर्ट को दखल नहीं करनी चाहिए. अगर कुछ कहना भी है, तो बस आम दिशा-निर्देश दे देने चाहिए. हाई कोर्ट अपने हालात को सबसे अच्छी तरह समझते हैं, इसलिए वही इन मामलों को संभालें. अगर कोशिश करते हुए कोई गलती भी हो जाए, तो उसे सुधारने का मौका भी हाई कोर्ट को ही मिलना चाहिए. हाई कोर्ट को नज़रअंदाज़ करना या उनकी ज़िम्मेदारी छीनना ठीक नहीं है. अब ज़रूरत है हाई कोर्ट और जिला अदालतों को मज़बूत बनाने की, न की कमज़ोर करने की.”

उन्होंने ये कहते हुए संविधान के पार्ट 6 का हवाला देते हुए कहा कि कुछ डिसीज़न मेकिंग पावर्स संविधान ने हाईकोर्ट को भी दी हैं. जिसके बीच सुप्रीम कोर्ट नहीं आ सकता.

सीनियर एडवोकेट राकेश द्विवेदी की बातों को सुनने के बाद चीफ जस्टिस बी.आर गवई ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट किसी भी तरह से हाईकोर्ट की पावर को डाइल्यूट नहीं करना चाहता. वो बस इतना चाहते हैं कि सारे राज्यों में जो अलग-अलग नियम बने हुए हैं, उसमें एकरूपता ले कर आएं ताकि कन्फ्यूज़न ख़त्म हो. उन्होंने कहा,

“हम हाई कोर्ट का नाम सुझाने का अधिकार नहीं छीन रहे हैं, लेकिन हर हाई कोर्ट के लिए अलग-अलग नियम क्यों होने चाहिए? हमारा ऐसा कोई इरादा नहीं है- न सीधे, न ही परोक्ष रूप से- कि हम आपकी ताक़त कम करें.”

इससे पहले भी इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के कुछ दिशा-निर्देशों पर अपनी आपत्ति बहुत ही खुल कर सामने रखी है. हमने आपको शुरुआत में ही एक वाक़्या बताया. लेकिन इसे टकराव की जगह न्यायपालिका के बीच एक हेल्दी डिस्कशन भी माना जा सकता है, जहां दोनों न्यायपालिका साथ में आपसी मतभेद को छिपाने की जगह मुखर रूप से सामने रखना चुनते हैं.


 

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