दक्षिण भारत में इस तरह के अनगिनत उदाहरण हैं. जिनसे ये पता चलता है कि यहां कभी दलितों के साथ किस स्तर का भेदभाव हुआ करता था. लेकिन 15 अगस्त 1947 को जब भारत को आजादी मिली. तो इस दलितों और पीछे वर्ग को लगा कि संविधान के जरिए अब सामाजिक एकरूपता आएगी. आयी भी, लेकिन सिर्फ दस्तावेजों में. आजादी के बाद भी ब्राह्मणों और दलितों के बीच टकराव बंद नहीं हुआ, बल्कि ये और बढ़ गया. कई ऐसे मौके भी हैं, जब ऐसे मामले न्याय की देहरी तक पहुंचे, लेकिन फिर भी पिछड़ों और दलितों को न्याय नहीं मिला. 1968 में भी एक ऐसी ही घटना हुई थी. उस साल 25 दिसंबर की रात तमिलनाडु के तंजावुर जिले के किल्वेंमनी गांव में 44 दलितों को जलाकर मार दिया गया था. मरने वालों में कई औरतें और बच्चे भी शामिल थे. हत्यारों में से किसी एक को भी सज़ा नहीं हुई. जबकि ये आजाद भारत में सबसे शुरुआती और सबसे हिंसक अपराधों में से एक था. आज हम इसी किल्वेंमनी हत्याकांड की बात करेंगे. कैसे हुआ था ये हत्याकांड? आखिर क्यों पूरे देश को हिलाने वाले इस हत्याकांड में किसी एक आरोपी को भी सजा नहीं हुई?
तारीख: तमलिनाडु के किल्वेंमनी हत्याकांड की पूरी कहानी
1892 से 1920 आ गया. समाज में थोड़ा बहुत बदलाव आया लेकिन, दक्षिण भारत टस से मस नहीं हुआ. त्रावणकोर में पिछड़ी जातियों को राजमार्गों पर चलने की तक मनाही थी. त्रावणकोर के राजा के मंदिर की ओर जाने वाले रास्ते पर दलितों का प्रवेश प्रतिबंधित था.
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