यह लेख डेली ओ से लिया गया है जिसे अकिल बख्शी ने लिखा है. दी लल्लनटॉप के लिए हिंदी में यहां प्रस्तुत कर रही हैं शिप्रा किरण.
मेरी बहन अपने से पांच साल छोटे लड़के से शादी कर रही है और मुझे उसपर गर्व है
शादी हमारे समय का यक्ष प्रश्न है. मेरी बहन यक्ष से जीत गई और वो भी अपनी शर्तों पर.

सन 2000 के शुरुआती दौर में मेरी बहन ने लॉ (क़ानून) की पढ़ाई पूरी की. फिर उसने एडवोकेट के तौर पर लोकल सेशन कोर्ट जॉइन किया. तब हमारे उस छोटे से पहाड़ी शहर में किसी लड़की का वकील बनना अपने आप में एक बड़ी बात थी. इसलिए उसके शुरुआती दिन थोड़े मुश्किल बीते. उसकी लड़ाई दो मोर्चों पर थी. एक तो उसे इस प्रोफेशन की व्यावहारिक चीजें सीखनी थीं. दूसरे, उसे मर्दों की दुनिया समझी जाने वाली वकालत की दुनिया में अपनी जगह भी बनानी थी. मुझे याद आती है वो शाम जब वो ऑफिस से थकी-मांदी आती और मां का हाथ बंटाने किचन में घुस जाती. हमारे लिए वो नार्मल था. लेकिन मेरी बहन के लिए वो उसका फ़र्ज़ था.
उन्हीं दिनों उसकी शादी की चर्चा शुरू हुई थी. तब पता चला कि उसकी ज़िंदगी में कोई है. तब से, जब वो LLB की पढ़ाई कर रहा थी. ख़ैर, वही हुआ जो आमतौर पर भारतीय परिवारों में ऐसे मुद्दों पर होता रहा है. अंतर्जातीय विवाह के लिए तैयार होना इतना आसान नहीं होता. औरत का अपनी मर्ज़ी से जीवन साथी चुनना किसी के गले से नहीं उतरता. मेरे पिता ने भी इस संबंध को पूरी तरह नकार दिया.

सबकी राय सुनते-सुनते मेरी बहन परेशान हो गई थी और अंत में उसने मामले को अपने हाथ में ले लिया.
इसे उसकी कूटनीति कहिए या ईमानदारी, किसी तरह उसने शादी के लिए सब को तैयार कर ही लिया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. आठ साल संबंध में रहने के बाद, तमाम वादों के बाद अब उस लड़के ने शादी से इंकार कर दिया था. उसने कभी ज़ाहिर नहीं होने दिया लेकिन इस घटना ने उसे बुरी तरह तोड़ दिया था. तब उसकी उम्र 30 साल थी. उसने पूरा ध्यान अपनी नौकरी और प्रोफेशनल तरक्की की तरफ लगा दिया. अगले दस साल वह पूरी तरह अपनी नौकरी में डूब गई. वह ज़्यादातर सतायी या पीड़ित औरतों से जुड़े केस ही अपने हाथ में लेती. उसकी अधिकांश क्लाइंट्स वही औरतें होती. वो शायद उन औरतों से ज़्यादा करीबी और अपनापन महसूस करती थी.
उब जब वो कामयाब थी, फिर उसका सामना यक्ष प्रश्न से हो गया - शादी. सवाल उठने लगे कि उसने अब तक शादी क्यों नहीं की. हमारे समाज में इस बात पर कोई यकीन ही नहीं कर पाता कि कोई महिला अपनी मर्ज़ी से अविवाहित रह सकती है. आत्मनिर्भर और गैर-शादीशुदा होते हुए खुश भी हो सकती है. लोग तरह-तरह के अंदाज़े लगाते. कोई उसके अतीत में झांकने की कोशिश करता तो कोई उसके चरित्र पर सवाल खड़े करता. लोगों को यह बात नही पच रही थी कि कोई औरत, किसी पुरुष को महत्व न देकर नौकरी और अपने करियर को इतनी तरजीह दे सकती है. कोई औरत बिना किसी मर्द के अपने जीवन की कल्पना कर भी कैसे सकती है?

उसकी शादी कराने के लिए न जाने हमारे कितने शुभचिंतक अचानक पैदा हो गए थे. वो कहा करते कि बहुत देर हो चुकी है, उसे जल्द से जल्द शादी कर लेनी चाहिए. अगर शादी में और देर हुई तो वो बच्चे पैदा नहीं कर पाएगी. उनके लिए औरत होने का मतलब सिर्फ़ बच्चे पैदा करना ही था. उनके लिए मेरी बहन की ख्वाहिशों के कोई मतलब नहीं थे. लेकिन फिर भी उसने हार नहीं मानी.
अाज उसकी उम्र 40 साल है. और आखिरकार उसने अपनी ज़िंदगी एक साथी के साथ बिताने का फैसला कर लिया है. लेकिन अपनी शर्तों पर. वो मेरी बहन से पांच साल छोटा है. लेकिन क्या फर्क पड़ता है. उनकी आपसी समझ इतनी अच्छी है कि उम्र जैसी चीज उनके रिश्ते के आगे कोई मायने नहीं रखती. अब वो अपना घर बसाने वाले हैं जिसमें दो आज़ाद ज़िंदगियां रहेंगी. वहां व्यक्ति की स्वतंत्रता सामाजिक अपेक्षाओं से उपर होंगी, सभी प्रतिबंध और सड़े-गले कायदे बेमानी होंगे. आज़ाद और खुला आसमान होगा उनका और ज़मीन भी होगी उनकी.

भले ही उसकी ये कहानी कुछ ख़ास न हो. लेकिन उसने जिस तरह बनी-बनाई धारणाओं को तोड़ा, पितृसत्ता और स्त्री-विरोध के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी, वो असाधारण है. पूरी ज़िंदगी उठाए उसके छोटे-छोटे कदम उदाहरण हैं उन सभी लड़कियों के लिए जो सामाजिक रूढ़ियों और दबावों के आगे घुटने टेकने को मजबूर हैं.
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