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नीतीश की वापसी और ललन सिंह के इस्तीफे की इनसाइड स्टोरी

नीतीश को कब भनक लगी कि उनके साथ खेला होने वाला है? कितने दिन से चल रही थी ये अंदरूनी जंग? पूरा मामला समझिए.

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राष्ट्रीय कार्यकारिणी में ललन सिंह के साथ नीतीश कुमार. (PTI)

जनता दल यूनाइटेड (JDU) के अस्तित्व में आने के बाद से शरद यादव पार्टी के अध्यक्ष थे. 2016 में शरद यादव ने नीतीश कुमार को नाराज़ किया. नीतीश कुमार ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया. नीतीश ने पार्टी की कमान अपने हाथों में ले ली. 2020 में बिहार में विधानसभा चुनाव हुए. नीतीश तब बीजेपी के साथ NDA में हुआ करते थे. चुनाव में NDA की जीत हुई. वो एक बार फिर मुख्यमंत्री बने. और पार्टी की कमान सौंपी करीब ढाई दशक से अपने सबसे विश्वस्त RCP सिंह को. कुछ ही दिनों में RCP ने नीतीश को नाराज़ कर दिया. 2021 में पहले अध्यक्ष पद गया, फिर उन्हें दरवाज़ा दिखा दिया गया. RCP सिंह के बाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने नीतीश के पांच दशक के साथी ललन सिंह. ढाई साल बीते. और इस बार ललन सिंह ने नीतीश कुमार को नाराज़ कर दिया. राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह को भी कुर्सी से उतार दिया गया है. नीतीश कुमार एक बार फिर जेडीयू के अध्यक्ष होंगे और बिहार के मुख्यमंत्री भी.

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कुछ घंटे पहले ललन सिंह जिसे अफवाह और बीजेपी का पैंतरा बताकर झुठला रहे थे, वो दरअसल सच था. 29 दिसंबर को राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में ललन सिंह ने औपचारिक रूप से इस्तीफा दे दिया. पर असल बात ये है कि उन्होंने नीतीश को अपना इस्तीफा पहले ही भेज दिया था. अब वो कह रहे हैं कि लोकसभा चुनाव की तैयारी करनी है, इसलिए इस्तीफा दिया. पर क्या वजह इतनी भर ही है? इस पूरे घटनाक्रम के पीछे कई पहलू हैं. एक-एक कर समझने की कोशिश करते हैं.

ललन सिंह का इस्तीफा क्यों?

1. सियासत में चुनावी हार से भी ज्यादा बुरा वक्त तब आता है, जब कोई नेता अपने आप को असुरक्षित महसूस करने लगता है. बिहार में भी कुछ ऐसा हो रहा था. ललन सिंह के इस्तीफे की जो सबसे बड़ी वजह अबतक सामने आई, वो है उनकी लालू और तेजस्वी से नज़दीकी. वैसे तो बिहार में जेडीयू और आरजेडी मिलकर सरकार चला रही हैं. नीतीश मुख्यमंत्री और तेजस्वी उनके डिप्टी हैं. लेकिन राजनीति में सबकुछ ब्लैक एंड व्हाइट नहीं होता.

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बिहार से आ रही खबरों के मुताबिक लल्लन सिंह डिप्टी सीएम की कुर्सी चाहते थे. लेकिन ये तब तक संभव नहीं था, जब तक नीतीश मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने रहें. जेडीयू से ही मुख्यमंत्री और जेडीयू से ही उपमुख्यमंत्री संभव नहीं था. ऐसे में जरूरत थी तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनाने की. इसीलिए कुछ दिन पहले सोशल मीडिया पर अचानक से हल्ला मचने लगा कि बिहार में कुछ बड़ा होने वाला है. तेजस्वी सीएम बनने वाले हैं.

बिहार की राजनीति को लंबे समय से कवर कर रहे आजतक के एडिटर रोहित सिंह की रिपोर्ट के मुताबिक ललन सिंह और लालू प्रसाद के बीच सेक्रेट डील हुई थी. इस डील के मुताबिक ललन सिंह को जनता दल यूनाइटेड के तकरीबन 12 विधायकों को तोड़कर तेजस्वी यादव की सरकार बनानी थी और इसके बदले में राजद उन्हें राज्यसभा भेजती. विधानसभा में अगर संख्या बल की बात करें, तो जनता दल यूनाइटेड के 45 विधायक, आरजेडी के 79, कांग्रेस के 19, CPIML के 12, CPI के 2, CPM के 2 और निर्दलीय 1 मिलाकर कुल 115 की संख्या है. ऐसे में तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनने के लिए 7 अन्य विधायकों की जरूरत थी. जिसका जुगाड़ करने में ललन सिंह लगे हुए थे.

रोहित बताते हैं कि 

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ये पूरा खेल इतनी सावधानी से रचा गया था कि यहां एंटी डिफेक्शन लॉ लग ही न पाए. जो विधायक बागी होकर लालू के साथ जाते, उन्हें पार्टी से निकाला जाता. वो खुद इस्तीफा नहीं देते. ऐसे में उनकी विधानसभा सदस्या रद्द नहीं होती. विधानसभा में ऐसे विधायकों को 'अनअटैच्ड MLA' कहा जाता. जो किसी भी तरफ जा सकते हैं. यानी तैयारी ऐसी थी कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.

जब ये बात पुख्ता होने लगी तब नीतीश असुरक्षित होने लगे. राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक से दो दिन पहले ललन सिंह की अध्यक्षता में जेडीयू के 11 विधायकों की बैठक होती है. सूत्र बता रहे हैं कि इस बैठक में नीतीश सरकार के एक मंत्री भी शामिल थे. लेकिन इसकी जानकारी नीतीश को हो गई. जिसकी भनक नीतीश को पहले से हो गई थी, अब वो सामने आ गया था. ललन के पर कतरने के अलावा और कोई चारा नहीं था.

2. पर सवाल ये उठता है कि क्या ललन सिंह इतने बड़े नेता हैं, जो नीतीश को मात देते हुए जेडीयू तोड़ सकें? 

राष्ट्रीय स्तर ललन सिंह की ज्यादा बड़ी पहचान न हो, लेकिन उनकी कारीगरी नीतीश कुमार अच्छे से जानते थे. जो काम ललन अबतक नीतीश के लिए करते आ रहे थे, वो इस बार नीतीश के खिलाफ भी हो सकता था. बिहार की राजनीति को ढाई दशक से नज़दीक से देख रहे वरिष्ठ पत्रकार मनोज कुमार अपने फेसबुक ब्लॉग 'मनोज का मूड' में लिखते हैं-

2005 विधानसभा चुनाव में राम विलास पासवान किंग मेकर की भूमिका में थे. लेकिन न वो NDA के साथ जा रहे थे और न ही आरजेडी के. पासवान के 17 विधायकों को तोड़कर NDA की सरकार बनाने की कोशिश की गई. कोशिश असफल हुई. विधानसभा भंग हो गई. लेकिन पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी टूट गई. इस पूरे खेल के रचयिता थे ललन सिंह. 2013 में लालू की पार्टी आरजेडी तोड़ी गई. तब उनके पास सिर्फ 22 विधायक थे. इस ऑपरेशन के खिलाड़ी भी ललन सिंह थे. फिर 2018 में जब बीजेपी और जेडीयू का दोबारा गठबंधन हुआ, तब ललन सिंह ने कांग्रेस को तोड़ा. 2020 में जब विधानसभा चुनाव के बाद जेडीयू को कम सीट मिली, तब ललन सिंह ने बीएसपी के एक मात्र MLA जमा खान को तोड़ा, लोजपा के एक मात्र MLA राज कुमार सिंह को तोड़कर जेडीयू में शामिल करा लिया.

नीतीश ये बात जानते हैं कि ललन सिंह पार्टी तोड़ने में माहिर हैं. और इसीलिए बताया जा रहा है कि नीतीश ने पहले बागी होने की कगार पर खड़े विधायकों को अपने भरोसे में लिया. और फिर ललन सिंह को काबू में किया.

यह भी पढ़ें: जॉर्ज फर्नांडीस से लेकर शरद यादव और PK से लेकर ललन सिंह - नीतीश के करीबी गुम क्यों हो जाते हैं?

3. यहां एक सवाल और उठता है कि क्या ललन सिंह के बिना नीतीश का काम चल सकता है?

दरअसल, इसका जवाब जेडीयू की राजनीति का तौर तरीका देता है. नीतीश ने 1994 में लालू का साथ इसलिए छोड़ा था क्योंकि लालू बिहार में यादव सेंट्रिक पॉलिटिक्स को बढ़ावा दे रहे थे. नीतीश ने अपनी जाति आधारित पॉलिटिक्स तो नहीं की, लेकिन पिछड़ो की राजनीति जरूर की.

ललन सिंह भूमिहार जाति से आते हैं. भूमिहार फिलहाल बीजेपी का वोटर माना जा रहा है. ललन सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष जब बनाया गया था, तब नीतीश कुमार बीजेपी के साथ सरकार में थे. लेकिन अब वो बीजेपी के खिलाफ हैं. ऐसे में उन वोट बैंक से आने वाले अध्यक्ष की नीतीश को जरूरत नहीं महसूस होती, जो बीजेपी का वोटर माना जा रहा हो.

इस पर इंडियन एक्सप्रेस के सीनियर एसोसिएट एडिटर कहते हैं-

जेडीयू में कोई भी जनरल कैटेगरी वाला नेता बहुत देर तक शोहरत में नहीं रह सकता. जेडीयू की राजनीति के हिसाब से वो फिट नहीं बैठता. ऐस प्रशांत किशोर के समय भी देखा जा चुका है.

4. ललन सिंह ने कुछ महीने पहले नीतीश कुमार को ये सपना दिखाया था कि वो प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनेंगे. सपना ये भी दिखाया था कि राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर रहते हुए वो पार्टी का विस्तार दूसरे राज्यों में करेंगे. लेकिन जमीन पर ऐसा कुछ न हो सका. INDIA की बैठक में ममता बनर्जी ने मल्लिकार्जुन खरगे का नाम लेकर नीतीश कुमार को साइड कर दिया. और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने ममता का समर्थन भी कर दिया. दरअसल, इस बात में कोई संदेह नहीं है कि नीतीश कुमार की तरह ममता बनर्जी और केजरीवाल की भी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाएं हैं. हर बड़े नेता का सपना प्रधानमंत्री की कुर्सी होता है. नीतीश के साथ-साथ ममता और केजरीवाल भी इसी कतार में शामिल हैं.

दूसरी बात कि पार्टी का विस्तार होगा, ऐसा भी कुछ हो न सका. मध्य प्रदेश के चुनाव में जेडीयू को 0.02 प्रतिशत वोट मिले. इससे बहुत ज्यादा लोगों ने तो नोटा दबाया था. यानी पार्टी विस्तार भी सपना का सपना ही रह गया.

हालांकि, सूत्रों के हवाले से आ रही खबरें कह रही हैं कि नीतीश कुमार को INDIA का कन्वीनर जरूर बनाया जा सकता है. क्योंकि राहुल गांधी उनसे ऐसा कह चुके हैं. लेकिन इसके लिए कम से कम अपनी पार्टी पर नीतीश की पूरी पकड़ तो होनी ही चाहिए. और नीतीश ने आज पार्टी की कमान अपने हाथ में ले ली है.

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