पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना, डेमोक्रैटिक पीपल्स रिपब्लिक ऑफ कोरिया, फेडरल डेमोक्रैटिक रिपब्लिक ऑफ इथियोपिया. सिर्फ नाम पर चले जाएं तो लगेगा कि इन देशों से बढ़िया गणतंत्र, लोकतंत्र और संघीय व्यवस्था दुनिया में कहीं नहीं है. लेकिन आप अच्छी तरह से जानते हैं कि चीन, उत्तर कोरिया और इथियोपिया में इन मूल्यों की असल हालत क्या है. सबक ये, कि कह भर देने से कि हमारा मकसद नेक है, आप महान नहीं हो सकते. आपकी नीयत, आपका इरादा, आपके काम में भी साफ-साफ नज़र आना चाहिए. और इसके लिए चाहिए - पारदर्शिता. सवालों का जवाब देने की हिम्मत. और चूक स्वीकार कर लेने जितनी ज़िम्मेदारी. क्या हमारा भारत इस मानक पर खरा उतरता है? आइए इस सवाल का जवाब खोजते हैं.
पीएम केयर्स को नए ट्रस्टी तो मिल गए, लेकिन ये काम कब होगा?
हेट स्पीच से भरे टॉक शो और रिपोर्ट टेलीकास्ट करने पर टीवी चैनलों को सुप्रीम कोर्ट की फटकार

आपने सुना होगा, कि अगर किसी की असली पहचान करनी है, तो तनाव के समय उसका व्यवहार देखो. देखो कि वो अभूतपूर्व चुनौतियों के समय अपने बताए मूल्यों पर चल पाता है, या नहीं. भारत के संदर्भ में ये अभूतपूर्व चुनौती थी - कोरोना महामारी. और भारत सरकार ने इससे निपटने के लिए क्या किया? Prime Minister's Citizen Assistance & Relief in Emergency Situations Fund बनाया. माने PM CARES फंड. PM CARES को रतन टाटा, केटी थॉमस और करिया मुंडा की शक्ल में 3 नए ट्रस्टी मिल गए हैं. लेकिन ''ट्रस्ट'' नहीं मिल पा रहा. क्योंकि PM CARES में पारदर्शिता को लेकर जो सवाल उठाए गए थे, उनके जवाब दो साल में भी नहीं मिले हैं.
ताज़ा घटनाक्रम और सवालों पर आने से पहले आपको पीएम केयर्स फंड पर एक क्रैश कोर्स करवाते हैं. पीएम केयर्स फंड को 27 मार्च 2020 एक पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट के तौर पर पंजीकृत करवाया गया था. तब कोरोना महामारी का दौर शुरू हो रहा था और सरकार को उससे निपटने के लिए पैसे की ज़रूरत थी. तब कहा गया कि पीएम केयर्स फंड में सिर्फ स्वैच्छिक दान स्वीकार किए जाएंगे. कोई बंदिश नहीं होगी. लेकिन क्या रेलवे, क्या RBI और क्या IIT - हर संस्थान से जाने वाला चंदा कर्मचारियों की तनख्वाह में से आया. संस्थान कहते रहे कि ये स्वैच्छिक चंदा था. लेकिन ये बात हर जगह लागू नहीं होती. 16 अप्रैल 2020 को द हिंदू ने एक खबर छापी - No mandatory deduction for donation to PM-CARES: AIIMS admin to RDA.
इस खबर में ये बताया गया था कि AIIMS प्रशासन ने रेसिडेंट डॉक्टर्स असोसिएशन के उस प्रस्ताव को मान लिया है, जिसमें PM केयर्स फंड के लिए तनख्वाह की कटौती को ''स्वैच्छिक'' बनाने की मांग की गई थी.
इसका मतलब, कम से कम AIIMS में तो पीएम केयर्स के लिए अनिवार्य रूप से तनख्वाह कटने वाली थी. यही कहानी कई और सरकारी विभागों की थी. नोटिस में तो लिखा था कि चंदा स्वैच्छिक है, लेकिन चंदा न देने के विकल्प सीमित थे. इसके अलावा कई उद्योगपतियों ने भारी भरकम चंदा दिया, जिसका प्रचार भी हुआ. इस तरह 2019-20 में पीएम केयर्स के पास 3 हज़ार 76 करोड़ 62 लाख जमा हुए. अगले साल, माने 2020-21 में ये रकम बढ़कर 10 हज़ार 990 करोड़ 17 लाख हो गई.
इतना पैसा जिस ट्रस्ट को मिल रहा था, उसमें बैठा कौन-कौन है, अब ये जान लेते हैं. पीएम केयर्स की वेबसाइट के मुताबिक प्रधानमंत्री पीएम केयर्स फंड के एक्स-ऑफिशियो चेयरमैन माने पदेन अध्यक्ष होते हैं. इसी तरह रक्षामंत्री, गृहमंत्री और वित्तमंत्री पदेन सदस्य होते हैं.
ट्रस्ट के चेयरमैन, भारत के तीन गणमान्य नागरिकों को ट्रस्टी बना सकते हैं. इसी शक्ति का इस्तेमाल करते हुए 20 सितंबर 2022 को प्रधानमंत्री मोदी ने ट्रस्ट के लिए रतन टाटा, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज केटी थॉमस और लोकसभा के पूर्व उपाध्यक्ष करिया मुंडा को मनोनीत किया है.
इस बैठक में पीएम केयर्स के एडवाइज़री बोर्ड के लिए तीन नामों की अनुशंसा भी हुई. ये हैं -
1. राजीव महर्षि - भारत के पूर्व CAG - माने नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक.
2. सुधा मूर्ति - इंफोसिस फाउंडेशन की पूर्व अध्यक्ष. शिक्षा एवं समाजसेवा में योगदान के लिए इन्हें 2006 में पद्मश्री भी मिला था.
3. आनंद शाह - पिरामल फाउंडेशन के पूर्व अध्यक्ष. उद्योगपति होने के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र में अपने काम के लिए जाने जाते हैं.
यहां तक आते आते दो बातें साफ हो जाती हैं. ट्रस्ट के पास जनता के दिए चंदे का पैसा है. और ट्रस्ट में भारत सरकार के सबसे ताकतवर मंत्रियों के साथ भारत के नामचीन लोग बैठे हुए हैं. लेकिन इसके बावजूद पारदर्शिता के मामले में ट्रस्ट का रिकॉर्ड बहुत खराब है. ट्रस्ट में एक तरह से पूरी सरकार बैठी हुई है, लेकिन ये सूचना के अधिकार RTI के दायरे से बाहर है. जब-जब याचिकाएं लगाई गईं, ट्रस्ट से जवाब मिला - पीएम केयर्स RTI एक्ट के तहत आने वाली एक पब्लिक अथॉरिटी नहीं है. ऐसा क्यों है, इसके पीछे पचास तकनीकी कारण दिए जा सकते हैं. ट्रस्ट के गठन और कानून की नज़र में उसकी स्थिति को रेखांकित किया जा सकता है. लेकिन यहां प्रश्न लोकतांत्रिक नैतिकता का है. कि अगर जनता का चंदा लिया जाता है, और उस पैसे के प्रबंधन में सरकार शामिल है, तो फिर हिसाब-किताब जनता को संसद के बने कानून के तहत क्यों नहीं दिया जाता? फंड अपनी ओर से खर्च का ब्योरा देता है, ये बात सही है, लेकिन स्वतंत्र रूप से हिसाब किताब न मांग पाना, पारदर्शिता पर बट्टा तो लगाता ही है.
ऐसा नहीं है कि पीएम केयर्स का ऑडिट हो ही नहीं रहा. लेकिन ये नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक CAG नहीं करता, जिसकी रिपोर्ट संसद में पेश होती है. पीएम केयर्स का ऑडिट करती है सार्क एसोसिएट्स नाम की कंपनी. ये कंपनी RBI जैसी संस्थाओं का भी ऑडिट करती है. लेकिन एक ऑडिटर की हैसियत में इस कंपनी की निष्पक्षता पर सवाल उठाए गए हैं. विनय सुल्तान ने कारवां पत्रिका में लिखे अपने लेख में रेखांकित किया है कि सार्क एसोसिएट के सुनील कुमार गुप्ता किस तरह अलग-अलग मंचों पर भारतीय जनता पार्टी के तमाम नेताओं के साथ नज़र आए हैं.
उन्होंने 2018 में शिकागो में हुई विश्व हिंदू कांग्रेस में भी भाग लिया था, जहां RSS के सरसंघचालक मोहन भागवत मुख्य वक्ता थे. विनय अपने लेख में इस बात का मर्म भी समझाते हैं. वो लिखते हैं -
"किसी व्यक्ति का किसी धर्म या राजनीतिक विचार का अनुयायी होना सामान्य हो सकता है. लेकिन अगर आप कई पीएसयू और पीएम केयर्स फंड के स्वतंत्र ऑडिटर हैं तो यह थोड़ी असुविधाजनक स्थिति हो जाती है.''
RTI और ऑडिट के बाद अब हम एक दूसरे और बड़े सवाल पर आते हैं. कि पीएम केयर्स फंड बनाया क्यों गया? फंड को महामारी के दौरान बनाया गया. लेकिन इसके नाम में इमरजेंसी शब्द का प्रयोग हुआ है, न कि कोरोना. इसका मतलब कोरोना से इतर दूसरी आपदाओं के लिए भी इसका इस्तेमाल हो सकता है. अब अगर ऐसा है, तो इस काम के लिए Prime Minister's National Relief Fund तो पहले से था.
ये फंड भी RTI के दायरे से बाहर है, और इस फंड का ऑडिटर भी CAG नहीं है. यहां भी ये काम बाहरी एजेंसी से करवाया जाता है. हाल के दिनों में ये अकाउंट सार्क असोसिएट्स के पास है. लेकिन PMNRF की शुरुआत हुई थी 1948 में. जब भारत एक नया नवेला देश था. पारदर्शिता को लेकर अब जैसा आग्रह और कानून तब नहीं थे. ऐसे में पीएम केयर्स की शक्ल में एक नया फंड बनाते हुए सरकार पारदर्शिता बढ़ाने का मौका सरकार चूक गई.
हैरान करने वाली बातें यहीं खत्म नहीं हो जातीं. भारत की संसद ने 2005 में आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 को मंज़ूरी दी. इस कानून का मकसद ही था अचानक आ जाने वाली आपदाओं के लिए सरकार को तैयार करना. अतः इसके तहत आपदा प्रबंधन प्राधिकरण जैसी एक एक्सपर्ट संस्था बनाई गई. एक डेडिकेटेड फोर्स बनाई गई, जिसे हम NDRF कहते हैं. और आपदा राहत के काम में सरकारी खज़ाने की मदद के लिए बनाया गया नेशनल डिजास्टर रिस्पॉन्स फंड NDRF.इस फंड की कई खूबियां हैं. मसलन PM केयर्स और PMNRF की ही तरह, इसमें चंदा देने पर भी भारत सरकार आयकर छूट देती है.
इस फंड में आने वाले पैसे और यहां से खर्च होने वाले पैसे की ऑडिटिंग भारत में लेखा-जोखा रखने वाली सबसे ताकतवर संस्था CAG करती है. और अगर कोई नागरिक इससे जुड़ी जानकारी प्राप्त करना चाहे, तो वो RTI याचिका लगा सकता है. जन सूचना अधिकारी इस याचिका पर जवाब देने के लिए बाध्य भी होते हैं. इसीलिए ये फंड काफी पारदर्शी माना गया. लेकिन आपको ये जानकर हैरानी होगी, कि साल 2020 तक भारत सरकार के किसी मुलाज़िम को इस फंड के लिए एक अदद बैंक खाता खोलने की फुर्सत नहीं मिली.
पत्रकार धीरज मिश्रा ने जब 2020 में अपनी खबरों में इस बात को रेखांकित किया, तब जाकर सरकार ने ये खाता खुलवाया. लेकिन खाता खोलने के बावजूद सरकार ने इसे ज़ोर शोर से प्रचारित नहीं किया. इससे ये बात स्थापित हो जाती है कि सरकार के पास PMNRF से इतर एक पारदर्शी फंड मौजूद था. किंतु सरकार ने उसकी अनदेखी करते हुए पीएम केयर्स जैसे एक फंड का गठन किया, जिसकी 'गोपनीय' कार्यप्रणाली को लेकर लगातार सवाल उठते रहे हैं.
आज हमने पीएम केयर्स को लेकर जो सवाल किए, उनमें पारदर्शिता को आधार बनाया. दर्शक जानते ही हैं कि पीएम केयर्स फंड से जो मेडिकल उपकरण खरीदे गए, उनकी गुणवत्ता पर भी सवाल उठे थे, जिन्हें हमने यहां नहीं छुआ. हम इस बात को समझते हैं कि पीएम केयर्स फंड को शुरू करने के पीछे सरकार का इरादा नेक था. लेकिन जैसा कि हमने शुरुआत में आपसे कहा, इरादों की नेकी कर्म से स्थापित होती है, न कि वचन से.
वीडियो: पीएम केयर्स में जमा पैसे का हिसाब CAG और RTI के ज़रिए मालूम क्यों नहीं पड़ता?