8 और 9 मई की मध्य रात्रि, ऑपरेशन सिंदूर के दौरान पाकिस्तान की वायुसेना ने अपने दोस्त चीन के बनाए दो फाइटर जेट-JF-17 और J-10C-को मैदान में उतारा. हवा में उनकी तेज़ी और पैंतरे देख कर एक सवाल फिर से हवा में तैर गया: हमारा तेजस कहां है? इससे जुड़ा दूसरा सबसे बड़ा सवाल उठ खड़ा होता है कि आखिर क्यों भारत आज भी अपने लड़ाकू विमान के लिए इंजन विदेशों से मंगवा रहा है?
JF-17 vs Tejas: इंजन की लड़ाई में क्यों पीछे रह गया भारत?
China ने अपने फाइटर जेट JF-17 और J-10 में खुद बनाए इंजन लगाए हैं, लेकिन भारत अब भी अपने Tejas के लिए आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है. 'मेड इन इंडिया' के इस प्रोजेक्ट में क्यों पीछे रह गया भारत?

अब आप कहेंगे, “यार, भारत तो तेजस बना ही चुका है!” हां, बनाया जरूर, लेकिन इसके ऑपरेशन सिंदूर में इस्तेमाल को लेकर कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है. और सबसे अहम बात- इस फाइटर जेट का दिल यानी इंजन तो अब भी बाहर से मंगाना पड़ता है. और यहां से शुरू होती है वो लंबी कहानी, जो अमेरिका की बेरुखी, रूस-फ्रांस की दगाबाजी और चीन की जिद से होकर गुजरती है.
जब दुनिया इंजन बना रही थी, हम 'सपनों' में थेफाइटर जेट का इंजन बनाना कोई बच्चों का खेल नहीं. ये एक ऐसा क्षेत्र है जहां अमेरिका, रूस और फ्रांस दशकों से अरबों डॉलर झोंक रहे हैं. अमेरिका के GE और Pratt & Whitney जैसे ब्रांड इंजन के मामले में "Rolls Royce of the skies" हैं. रूस के Saturn AL-31 और फ्रांस के Safran M88 जैसे इंजन भी वर्ल्ड क्लास हैं. और अब चीन-जिसे हम अब भी 'कॉपीकैट' समझते हैं-वो भी WS-10 जैसे स्वदेशी इंजन बना चुका है.
तो सवाल उठता है, हम क्यों पीछे रह गए?
अमेरिका से धोखा, रूस-फ्रांस से ठंडा रिस्पॉन्सभारत ने कोशिश तो की. अमेरिका से GE-414 इंजन की टेक्नोलॉजी ट्रांसफर मांगी, लेकिन मामला अटक गया. अमेरिकी दोस्ती बस प्रेस कॉन्फ्रेंस तक ही रही. रूस और फ्रांस, जिनके साथ ब्रह्मोस और राफेल जैसे प्रोजेक्ट हैं, उन्होंने भी इंजन टेक्नोलॉजी देने में हाथ खींच लिए.
भारत के GTRE (Gas Turbine Research Establishment) ने कावेरी इंजन पर काम तो शुरू किया था, लेकिन ये प्रोजेक्ट समय, बजट और भरोसे तीनों की परीक्षा बन गया. नतीजा-तीस साल बीत गए, लेकिन इंजन अभी भी 'टेस्टिंग मोड' में ही है.
अब चलिए जरा पड़ोसी की कहानी सुनते हैं. चीन को भी कोई जादू की छड़ी नहीं मिली थी. उसने भी शुरुआत में रूस से इंजन मंगवाए, टेक्नोलॉजी चुराई, खुद बनाई, फेल हुआ, फिर से खड़ा हुआ. उसने WS-10 इंजन में कम से कम 15 बार फेल होकर फिर उसे उड़ाया. लेकिन फर्क था-इरादा.
सरकार ने अरबों डॉलर झोंक दिए, रिसर्चरों को फुल सपोर्ट मिला, प्राइवेट कंपनियों को भी साथ जोड़ा और इंतजार किया. आज नतीजा है कि J-10 और J-20 जैसे फाइटर अब मेड इन चाइना इंजन पर हवा चीरते हैं.
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इंजन बनाना क्यों इतना मुश्किल?फाइटर जेट का इंजन बनाना मतलब आग से खेलना-सच में! इसकी एक नहीं कई वजहें हैं. जिन्हें पॉइंट दर पॉइंट समझ लेते हैं.
- 1,600°C से ऊपर झेलने वाली मेटल चाहिए.
- माइक्रोमीटर लेवल पर परफेक्शन जरूरी है.
- सैकड़ों घंटे की टेस्टिंग, हजारों बार फेल होने की तैयारी.
- टर्बाइन ब्लेड में ज़रा सी गड़बड़, और इंजन फेल.
- रॉकेट बनाना आसान है, फाइटर इंजन बनाना उससे भी कठिन.
आज भारत आत्मनिर्भरता की बात कर रहा है, लेकिन आत्मनिर्भर बनना सिर्फ नारे से नहीं होगा. इंजन जैसी कोर टेक्नोलॉजी में निवेश, धैर्य और रिस्क तीनों चाहिए. सरकार ने अब Safran और Rolls Royce जैसी कंपनियों के साथ नए करारों की बात शुरू की है, लेकिन ये तभी सफल होंगे जब हम Make in India को Invent in India तक ले जाएं.
अगर भारत को अगली बार 'ऑपरेशन सिंदूर' जैसी किसी परिस्थिति में तेजस को JF-17 और J-10 से बेहतर दिखाना है, तो हमें सिर्फ विमान नहीं, उसके दिल यानी इंजन को भी अपने दम पर बनाना होगा.
चीन से पिछड़ने का दर्द तभी मिटेगा, जब तेजस सिर्फ दिखे नहीं, दहाड़े-अपने स्वदेशी इंजन के साथ.
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