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सदन में कैसे चुने जाते हैं एंग्लो-इंडियन सदस्य, जिनकी मदद येदियुरप्पा को मिलते-मिलते रह गई?

क्या आपने सोचा है कि अंग्रेज 1947 में निकल लिए तो अब संसद और विधानसभाओं में एंग्लो-इंडियन सदस्य क्यों होते हैं ?

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एंग्लो इंडियन समुदाय के लोग अपनी जड़ें यूरोप और भारत दोनों जगह ढूंढते हैं.
प्रोलॉगः
कर्नाटक में येदियुरप्पा की सरकार रहेगी या बचेगी ये 19 मई को तय होना है. विधानसभा में विधायक आएंगे और वोट डालकर बताएंगे कि वो किसके साथ हैं. अगर येदियुरप्पा के पक्ष में 113 वोट पड़े, तो वो सीएम बने रहेंगे. वर्ना उनकी सरकार (जिसमें वो अकेले सीएम और मंत्री हैं) गिर जाएगी और फिर मौका मिलेगा कांग्रेस-जेडीएस के गठबंधन को. अब भाजपा के पास हैं 104 विधायक. तो 113 तक पहुंचने के फेर में एक-एक विधायक कीमती है. इसीलिए कांग्रेस-जेडीएस ने अपने विधायक ताले में रख दिए हैं. तो भाजपा को (माफ कीजिएगा गवर्नर साहब को) ये आइडिया आया कि अपन एक सदस्य अपने बूते जुगाड़ सकते हैं - एंग्लो इंडियन. कम से कम एक वोट का जुगाड़ तो होगा. यूरेका. लेकिन ये विचार क्रिया में परिणित होता, इससे पहले ही कांग्रेस-जेडीएस ने सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले (या विचार) के खिलाफ एक याचिका लगा दी. सुप्रीम कोर्ट ने 18 मई को जो आदेश पारित किए, उनमें से एक ये भी था कि जब तक विश्वास मत की कार्यवाही सदन में पूरी न हो जाए, कोई सदस्य मनोनीत न किया जाए. भाजपा का खेल बिगड़ गया.
इस पूरी बात में एक चीज़ ज़ेहन में अटक जाती है - एंग्लो इंडियन सदस्य. आज हम यही जानेंगे कि ये एंग्लो इंडियन सदस्य कौन होते हैं और कैसे चुने जाते हैं.
स्टोरीः
जब अंग्रेज़ हिंदुस्तान आए तो उन्होंने उन्होंने राजपाट खूब पसार लिया. पटरियां बिछाकर रेल चलाई. 'तार' के खंबे गाड़कर पोस्ट ऑफिस बनाए. ऐसे ही और कई विभाग थे, जिनमें काम करने के लिए अंग्रेज़ हिंदुस्तान बुलाए गए. क्योंकि भारतीयों को ये काम सिखाने में कुछ समय लगना था.
एंग्लो इंडियन समुदाय के ज़्यादातार लोगों का ताल्लुक रेल्वे के साथ था. (विकिमीडिया कॉमन्स)
एंग्लो इंडियन समुदाय के ज़्यादातार लोगों का ताल्लुक रेल्वे के साथ था. (विकिमीडिया कॉमन्स)

अब इन लोगों ने हिंदुस्तान में कुछ काम किया कुछ इश्क. काम से इन्हें तन्ख्वाह मिली और इश्क से परिवार. और ऐसे परिवार कहलाए एंग्लो इंडियन. एंग्लो इंडियन परिवारों में सबसे ज़्यादा का ताल्लुक रेल्वे से ही था. इन परिवारों के लोग आज भी खुद को 'रेल्वे चिल्ड्रन' कहते हैं. एंग्लो इंडियन समुदाय ने 1876 में अपना संगठन बनाया 'द ऑल इंडिया एंग्लो इंडियन असोसिएशन.' इसी संगठन के एक चर्चित अध्यक्ष हुए जबलपुर में पैदा हुए फ्रैंक एंथनी.
फ्रैंक एंथनी जबलपुर से थे. लेकिन दिल्ली आकर वकालत करने लगे. बाद में एंथनी एंग्लो इंडियन असोसिएशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष बने. मुल्क आज़ाद हुआ तो एंथनी संविधान सभा के सदस्य बने. एंथनी की दलील थी कि एंग्लो इंडियन समुदाय इतना छोटा है कि वो अपने दम पर प्रतिनिधी चुनकर संसद नहीं भेज सकता. लेकिन संसद में कोई तो होना चाहिए जो उनकी बात करे. ये व्यक्ति उन्हीं की कौम से होना चाहिए. इन्हीं दलीलों के मद्देनज़र संविधान में अनुच्छेद 331 जोड़ा गया. अनुच्छेद 331 के तहत राष्ट्रपति लोकसभा में एंग्लो इंडियन समुदाय के दो सदस्य नियुक्त करते हैं. इसी अनुच्छेद के तहत फ्रैंक एंथनी 7 बार बतौर सांसद मनोनीत हुए.
फ्रैंक एंथनी.
फ्रैंक एंथनी.

इंदिरा गांधी के ज़माने में फ्रैंक एंथनी को पंजाब के गवर्नर पद की पेशकश की गई थी. बाद में उप-राष्ट्रपति पद की भी पेशकश हुई. एंथनी ने दोनों पदों को लेने से इनकार कर दिया था. एंथनी ने एंग्लो इंडियन समुदाय के बच्चों की पढ़ाई के लिए ऑल इंडिया एंग्लो इंडियन एडुकेशनल ट्रस्ट की स्थापना की जो कई स्कूल चलाता है. एंथनी ने ही काउंसिल फॉर द इंडियन स्कूल सर्टिफिकेट एग्ज़ामिनेशन्स बनाया. ये काउंसिल 'द इंडियन सर्टिफिकेट ऑफ सेकेंडरी एडुकेशन' माने ICSE स्कूल चलाता है.
खैर, वापस मनोनीत सदस्यों वाली कहानी पर लौटते हैं. संसद की तरह ही राज्यों की विधानसभाओं में एंग्लो इंडियन्स के लिए प्रावधान किया गया है. संविधान के अनुच्छेद 333 के तहत अगर किसी सूबे के राज्यपाल को ये लगता है कि राज्य के एंग्लो इंडियन समुदाय को सदन में प्रतिनिधित्व की ज़रूरत है लेकिन सदन में चुने हुए प्रतिनिधियों के बीच एंग्लो-इंडियन समुदाय को समुचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला है, तो वो एंग्लो इंडियन समुदाय से एक सदस्य मनोनीत कर सकते हैं.
एंग्लो इंडियन कौन कहलाएगा, इसके लिए भी नियम है. संविधान के अनुच्छेद 366 (2) के तहत एंग्लो इंडियन ऐसे किसी व्यक्ति को माना जाता है जो भारत में रहता हो और जिसका पिता या कोई पुरुष पूर्वज यूरोपियन वंश के हों. एंग्लो इंडियन्स भारत का अकेला समुदाय हैं जिनका अपना प्रतिनिधी संसद और राज्यों की विधानसभा में होता है. हालांकि इस तरह के इल्ज़ाम भी लगते रहे हैं कि मनोनीत सदस्यों ने अपनी कौम के लिए ज़्यादा कुछ किया नहीं.
सदस्य मनोनीत करते हुए राज्यपाल सूबे के कैबिनेट की सलाह लेते हैं. इसलिए मनोनीत सदस्य कमोबेश सत्ताधारी पार्टी के करीबी ही होते हैं. इसीलिए इस बार जब विनिशा नीरो का नाम कर्नाटक विधानसभा के लिए मनोनीत किए जाने की खबरें आईं तो हंगामा खड़ा हो गया. सबको यही लगा कि विनिशा भाजपा के पक्ष में ही वोट डालेंगे. लेकिन बाद में मालूम चला कि नीरो का नाम यूं ही उछाल दिया गया था. द ऑल इंडिया एंग्लो इंडियन असोसिएशन ने भी सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर करके कहा कि उन्हें मिले संवैधानिक अधिकारों का राजनैतिक इस्तेमाल उन्हें रास नहीं आएगा.
डेरेक ओ ब्रायन पहले एंग्लो इंडियन थे जिन्होंने सदन में वोट डाला.
डेरेक ओ ब्रायन पहले एंग्लो इंडियन थे जिन्होंने सदन में वोट डाला.

क्या एंग्लो इंडियन सदस्य सदन में वोट डाल सकते हैं?
मनोनीत सदस्यों के पास वो सारी ताकतें होती हैं, जो एक आम सांसद के पास होती हैं. लेकिन वो राष्ट्रपति चुनाव में हिस्सा नहीं ले सकते. डेरेक ओ ब्रायन संभवतः अकेले एंग्लो इंडियन थे, जिन्होंने 2012 में राष्ट्रपति चुनाव में वोट डाला था. लेकिन ऐसा इसलिए हुआ था कि डेरेक तृणमूल कांग्रेस से सांसद हैं.
रही बात उनके किसी एक पार्टी को साथ देने की, तो संविधान की 10वीं अनुसूचि के मुताबिक कोई एंग्लो इंडियन सदन में मनोनीत होने के छह महीने के अंदर किसी पार्टी की सदस्यता ले सकते हैं. ऐसा हो जाने पर वो पार्टी व्हिप से बंध जाते हैं. माने उन्हें पार्टी के कहे मुताबिक सदन में वोट डालना पड़ता है. संभवतः यही वजह है कि कांग्रेस-जेडीएस नहीं चाहते कि कोई सदस्य कर्नाटक विधानसभा में मनोनीत हो.


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