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जब लालू बोले, 'एक मुसलमान बचाने को 10 यादव कुर्बान'

8 अक्टूबर 1990. लालू को पहली बार CM बने 7 महीने हुए थे. पटना के गांधी मैदान में एक महारैली में उन्होंने लगभग चिल्लाते हुए एक नारा दिया...

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Photo: Reuters
ताश की गड्डी में जिसे जोकर समझा गया, वह तुरुप का इक्का निकला. बिहार चुनाव में लालू प्रसाद यादव की हैरतअंगेज वापसी हुई. साथ ही बिहार में, 'एम-वाई' यानी 'माई' समीकरण भी चर्चाओं में लौट आया, जिसने लालू की पार्टी को दोबारा संजीवनी दी.
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'माई' यानी बिहार के मुस्लिम (M) और यादव (Y) समुदाय के 30 फीसदी वोटरों का गठजोड़, जो लालू का पारंपरिक वोट माना जाता है. इसी सोशल इंजीनियरिंग के आधार पर उन्होंने बिहार में पॉलिटिक्स शुरू की और इसी के दम पर बरसों तक राज किया.
'माई' समीकरण की अहमियत और ताकत लालू समझते हैं. इस पर याद आता है उनका एक बयान, जिसकी आज भी मिसालें दी जाती हैं और जो उनके राजनीतिक उभार को समझने की बुनियाद तैयार करता है.
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8 अक्टूबर 1990 की बात है. लालू को पहली बार मुख्यमंत्री बने 7 महीने हुए थे. पटना के गांधी मैदान में आरक्षण के समर्थन में रैली हुई थी. उस वक्त के प्रधानमंत्री वीपी सिंह समेत दिल्ली के बड़े-बड़े नेता पहुंचे हुए थे. बिहार से लाखों लोग जुटे थे, जिनमें जाहिराना तौर पर, यादव और मुसलमानों की खासी तादाद थी.
इसी दौरान नए नवेले सीएम लालू यादव ने चिल्लाते हुए नारा दिया कि आज से सांप्रदायिक दंगों मे मुसलमान भाइयों की जान-माल की हिफाज की जिम्मेदारी यादवों की होगी.
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'अगर एक मुसलमान को बचाने में दस यादवों की कुर्बानी देने पड़े, तब भी कोई बात नहीं.' ये उनके शब्द थे. इसके बाद बिहार की राजनीति में 'माई' समीकरण पैदा हुआ, जिससे लालू को नई राजनीतिक ताकत मिली और बिहार के मुसलमानों में पहली बार आत्मविश्वास भी जगा. इसी समीकरण के दम पर लालू दावा करते रहे कि जब तक वे मुख्यमंत्री हैं प्रदेश में दंगे नहीं होने देंगे.
लेकिन ठीक दो साल बाद स्थिति उलट थी. अक्टूबर 1992 में 'माई' समीकरण उनके लिए बुरा सपना बन गया था. उत्तरी बिहार में नेपाल से सटे 'यादव बहुल' सीतामढ़ी में दशहरे की रात सांप्रदायिक आग की लपटें भड़कीं तो लालू को लगा कि कहीं इसकी चपेट में उनकी कुर्सी ही न जल जाए. वे गुस्से से चीख पड़े, 'शरारती तत्वों ने सब कुछ बर्बाद कर दिया.' उन्होंने जोड़े हाथ और लगे लोगों को समझाने. यादवों से कहा, 'लाठी उठाओ और मुसलमानों की रक्षा करो. तुम सब खुद को लालू समझो और उन्हें बचाओ.'
सीतामढ़ी में लालू. साल 1992.
सीतामढ़ी में लालू. साल 1992.

वे सीतामढ़ी के मुहल्लों और दूर-दराज के गांवों तक गए. लोगों की फरियादें सुनीं, अधिकारियों के निकम्मेपन पर डांटा. दंगाइयों को देखते ही गोली मारने का आदेश जारी करवाया, कर्फ्यू लगवाया, अर्धसैनिक बल भिजवाए, अफसरों की पूरी फौज वहां भेज दी और फिर केंद्र की दंगा विरोधी रैपिड एक्शन फोर्स की चार कंपनियां सीतामढ़ी में तैनात कर दीं. तीन दिन बाद 44 लाशों और 500 जले मकानों-दुकानों के ढेर पर थमता दिखा.
खुसफुसाहट थी कि लालू की पार्टी के ही कुछ सांसद-विधायकों की वजह से यह दंगा भड़का और 'चिंता' वाली बात ये थी कि ये नेता 'माई' समाज के अंग थे. लिहाजा लालू का दुख सिर्फ ये नहीं था कि उनके शासनकाल में दंगा हो रहा था. दुख ये भी था कि यह सब उनके अपने 'माई' नेताओं की जिद और चूक के चलते हो रहा था.
जानकार मानते हैं कि सीतामढ़ी का दंगा लालू और मुसलमानों के बीच गहरी खाई बन सकता था. इसलिए लालू ने एड़ी-चोटी का जोर लगाकर सीतामढ़ी को भागलपुर नहीं बनने दिया. सीतामढ़ी में बैठकर दो दिनों के अंदर उन्होंने हालात पर काबू पा लिया और अपने 'माई' को बचा लिया.
2015 चुनाव में जब लग रहा था कि माई का 'वाई' यानी यादव छिटककर बीजेपी केे पाले में जा सकता है, लालू एक बार फिर अपने दुलारे कॉम्बिनेशन को बचा ले गए. 'माई' लालू की पॉलिटिक्स का माई-बाप है. इसी 'माई' ने बीते चुनावों में PM नरेंद्र मोदी के 'लोकप्रिय' चेहरे पर चुनाव लड़ने वाले NDA गठबंधन की माचिस लगा दी.

 

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