यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (USAID). अमेरिका की एक सरकारी एजेंसी है. राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप (Donald Trump) और उनके खरबपति सहयोगी इलॉन मस्क (Elon Musk) इस एजेंसी के पीछे पड़ गए हैं. मस्क ने तो इसे आपराधिक संगठन तक कह दिया है. इस एजेंसी में काम कर रहे सरकारी कर्मचारियों को छुट्टी पर भेज दिया गया है. ऐसी रिपोर्ट्स हैं कि अमेरिकी सरकार इसके कर्मचारियों की संख्या 10 हजार से घटाकर 300 करना चाहती है. कुछ मजदूर संगठन ने इस संबंध में ट्रंप और मस्क के खिलाफ केस कर दिया है. एजेंसी के लेकर बहस बढ़ती जा रही है.
अमेरिका ने जिस एजेंसी से दुनिया में अपना रुतबा बनाया, उसके पीछे क्यों पड़ गए हैं ट्रंप और मस्क?
USAID में इस समय 10 हजार सरकारी कर्मचारी काम कर रहे हैं. ऐसी रिपोर्ट्स हैं कि इनकी संख्या घटाकर 300 कर दी जाएगी. आखिर USAID का काम क्या है और इसे बंद करने की बातें क्यों हो रही हैं?

ऐसे में हम जानेंगे कि आखिर USAID करती क्या है? इलॉन मस्क और डॉनल्ड ट्रंप इसके खिलाफ क्यों हैं? इसका समर्थन करने वाले क्या कह रहे हैं और इस एजेंसी के प्रभावित होने से दुनिया पर क्या असर पड़ेगा? एकदम शुरुआत से शुरू करते हैं.
दूसरी बार अमेरिकी राष्ट्रपति पद की शपथ लेते ही ट्रंप ने USAID के तहत दी जाने वाली वित्तीय सहायता पर 90 दिन की रोक लगा दी. एक हफ्ते के बाद USAID के दो शीर्ष सुरक्षा अधिकारियों को निकाल दिया गया. ऐसा इसलिए क्योंकि उन दोनों अधिकारियों ने इलॉन मस्क के नेतृत्व वाले डिपार्टमेंट ऑफ गवर्नमेंट इफिसिएंसी (DOGE) के एजेंट्स को USAID के प्रतिबंधित क्षेत्र में नहीं जाने दिया. फिलहाल USAID की वेबसाइट काम नहीं कर रही है.
डॉनल्ड ट्रंप ने अपने चुनावी प्रचार के दौरान बार-बार कहा था कि वो अमेरिका में सरकारी एजेंसियों और विभागों का साइज घटा देंगे. यानी बड़े स्तर पर सरकारी कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया जाएगा. ट्रंप के मुताबिक, ये विभाग और कर्मचारी 'डीप स्टेट' का हिस्सा हैं और इनके ऊपर आम लोगों की मेहनत की कमाई बेजा खर्च हो रही है. इसी नीति के तहत DOGE बनाया गया और अब USAID को बंद करने की बात हो रही है. ट्रंप का यह भी मानना है कि USAID के तहत दुनियाभर में उन संस्थाओं को भी वित्तीय सहायता दी जा रही थी, जो उनकी विचारधारा का विरोध करते हैं.
USAID का काम क्या है?USAID के बारे में कहा जाता है कि यह दुनिया में अमेरिका की सॉफ्ट पावर का एक टूल है. इसके जरिए अमेरिकी सरकार ने साल 2023 में लगभग 130 देशों में 43 अरब डॉलर (3.75 लाख करोड़ रुपये) के अलग-अलग प्रोजेक्ट्स फंड किए. यूक्रेन, इथोपिया, जॉर्डन, कांगो, सोमालिया, यमन, अफगानिस्तान, नाइजीरिया, दक्षिणी सूडान और सीरिया जैसे देशों में खूब पैसे पहुंचाए गए.
अमेरिका की कांग्रेसनल रिसर्च सर्विस के मुताबिक, USAID दुनियाभर में बेहतरी के लिए काम करता है. मसलन, लोगों को गरीबी से निकालना, गरीब देशों में स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराना, बीमारियों के इलाज के लिए नई-नई दवाओं और वैक्सीन बनाने की रिसर्च को फंड करना, अकाल से लड़ना, शिक्षा से जुड़े कार्यक्रम चलाना और हिंसाग्रत इलाकों में मानवीय सहायता पहुंचाना. जरा विस्तास से समझ लेते हैं-
- USAID के तहत ब्राजील में एमेजॉन के जंगलों के संरक्षित करने के लिए फंड दिया जा रहा था. साथ ही साथ कोलंबिया और पेरू सहित कई दक्षिण अमेरिकी देशों में ड्रग्स के खिलाफ चलाए जा रहे अभियानों की भी फंडिंग की जा रही थी.
- साउथ अफ्रीका में AIDS/HIV की रोकथाम के लिए हर साल 2.3 बिलियन डॉलर्स (लगभग 20 हजार करोड़ रुपये) की जरूरत होती है. USAID इसका 20 प्रतिशत खर्च कवर कर रहा था.
- हिंसाग्रस्त पूर्वी कांगो में लगभग 46 लाख लोगों के लिए पानी, बिजली, खाना और स्वास्थ्य सेवाओं का इंतजाम USAID की फंडिंग से ही हो रहा था.
- घाना में नई-नई मां बनीं महिलाओं और उनके बच्चों की देखभाल, मलेरिया और HIV एड्स जैसी बीमारियों की रोकथाम के कार्यक्रम भी USAID से ही चल रहे थे.
- USAID के तहत कई सारे उन देशों में स्वतंत्र मीडिया संस्थानों की फंडिंग की जा रही थी, जहां पर तानाशाही है. इसका एक उदाहरण म्यांमार है, जहां साल 2021 में सेना ने तख्तापलट कर दिया था.
- उत्तरी सीरिया वर्षों से हिंसा की जद में रहा है. साल 2023 में यहां एक भयंकर भूकंप भी आया था. इलाके के कई सारे फील्ड हॉस्पिटल USAID से ही फंड किए जा रहे थे. अब इनके बंद होने की नौबत आ गई है.
- कोसोवो को साल 1999 से USAID के तहत एक बिलियन डॉलर (लगभग 8.7 हजार करोड़ रुपये) से भी ज्यादा का फंड मिल चुका है. इस फंड का यूज वहां की महिलाओं के लिए बेहतर सुविधाएं उपलब्ध कराने और उनके सशक्तिकरण के लिए किया गया है.
- इसी तरह युगांडा में भी LGBTQ समुदाय के लोगों की बेहतरी के लिए कई कैंपेन USAID से ही चलाए गए.
- कंबोडिया में लैंडमाइन हटाने का काम भी USAID के तहत किया जा रहा था. अब कहा जा रहा है कि USAID की फंडिंग बंद होने के बाद ये काम चीन कर सकता है.
- रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद USAID के तहत यूक्रेन में खूब सारा पैसा पहुंचाया गया. इस पैसे से ही स्वास्थ्य कर्मचारियों की सैलरी दी गई, बॉम्ब शेल्टर्स बनाए गए और वहां के लोगों को ईंधन खरीदने के लिए भी पैसे दिए गए.

USAID के तहत अलग-अलग NGOs, अंतरराष्ट्रीय संगठनों, दूसरी अमेरिकी एजेंसियों और कई बार सीधे सरकारों को फंड दिया जाता है. इस एजेंसी के महत्व के बारे में रिफ्यूजीस इंटरनेशनल के प्रेसिडेंट जेरेमी कॉनीडाइक वॉशिंगट पोस्ट से कहते हैं,
यह अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा का एक टूल है, जो पिछले 60 सालों में कदम दर कदम विकसित किया गया है. अगर इस एजेंसी को खत्म कर दिया जाता है, तो इसे फिर से खड़ा करना आसान नहीं होगा.
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इतिहास में चलते हैंअब थोड़ा सा इतिहास भी जान लेते हैं. USAID की जड़ें दूसरे विश्व युद्ध तक जाती हैं. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यूरोप तबाह हो चुका था. दुनिया में दो बड़े पावर सेंटर उभर आए थे. एक तरफ था पूंजीवादी अमेरिका और दूसरी तरफ साम्यवादी सोवियत रूस. जर्मनी के बीचो बीच लकीर खिंच गई थी. पश्चिमी जर्मनी अमेरिका के खेमे में था और पूर्वी जर्मनी सोवियत रूस की तरफ. अमेरिका को डर था कि सोवियत रूस पूरी दुनिया पर अपना मॉडल थोप देगा. ऐसे में जरूरत थी कुछ ऐसा करने की, जिससे अमेरिका के विचारों और उसकी सॉफ्ट पावर को चुनौती मिलना बंद हो जाए.
दूसरे विश्व युद्ध के तुरंत बाद एक मार्शल प्लान बनाया गया. जिसके तहत यूरोप के देशों को अमेरिका की तरफ से तमाम मदद दी गई. आर्थिक, तकनीकी और सैन्य, हर तरह की मदद. ये सहायता अमेरिका की विदेश नीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनी. इस बीच 1959 में अमेरिका के बगल में एक देश में साम्यवादी क्रांति हो चुकी थी. इस देश का नाम है क्यूबा. इसको देखते हुए तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी ने 1961 में 'अलायंस फॉर प्रोग्रेस' नाम का प्लेटफॉर्म लॉन्च किया. इसके तहत दक्षिण और मध्य अमेरिका में लोकतंत्र और आर्थिक विकास के तमाम कार्यक्रम चलाए जाने थे. इसको दक्षिण अमेरिका में कम्युनिज्म से लड़ने के अमेरिका के एक प्रभावी कदम के तौर पर देखा गया.
इसके बाद 1961 में ही अमेरिकी संसद में एक कानून पारित हुआ. इस कानून के तहत एक ऐसी स्थाई एजेंसी बनाई गई तो सक्रिय रूप से पूरी दुनिया में अमेरिकी विदेश नीति को आगे बढ़ाए. नाम रखा गया- USAID.
आरोप क्या लग रहे हैं?ये तो बात थी USAID के इतिहास और उसके कामकाज की. अब बात एजेंसी पर लग रहे आरोपों की. वॉइट हाउस ने एक ऐसी लिस्ट जारी की है, जिसमें कहा गया है कि USAID के तहत दुनियाभर में बेमतलब के कैंपेन फंड किए जा रहे हैं. मसलन, इराक में कठपुतलियों के शो, जमाइका और युगांडा में LGBTQ कार्यक्रमों के लिए 55 लाख डॉलर (48 करोड़ रुपये) का खर्च, मिस्र में पर्यटकों से जुड़े प्रोग्राम के लिए 60 लाख डॉलर (52 करोड़ रुपये), सर्बिया में विविधता, बराबरी और समावेशन से जुड़े कार्यक्रमों को चलाने के लिए 15 लाख डॉलर (13 करोड़ रुपये), पेरू में ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों से जुड़े कैंपेन के लिए 32 हजार डॉलर (27 लाख रुपये), चीन की वुहान लैब में बैट वायरस रिसर्च के लिए 50 लाख डॉलर (43 करोड़ रुपये) का खर्च.
ये भी आरोप लगे कि पॉलिटिको और एसोसिएटेड प्रेस जैसे मीडिया संस्थानों को डेमोक्रेटिक पार्टी का एजेंडा चलाने के लिए करोड़ों रुपये दिए गए. दोनों मीडिया संस्थानों ने इन आरोपों से इनकार किया है. उनका कहना है कि अमेरिकी सरकार ने एक कस्टमर की तरह ही उनकी सेवाएं लीं और भुगतान किया.

इधर, इस लिस्ट का जिक्र करते हुए हुए वॉइट हाउस की प्रेस सेक्रेटरी कैरोलीन लेविट ने कहा,
क्या USAID को बंद कर सकते हैं ट्रंप?मुझे आपके बारे में नहीं पता लेकिन एक अमेरिकी टैक्सपेयर के तौर पर मैं नहीं चाहती कि मेरा पैसा इस तरह के बेफिजूल के कार्यक्रमों पर खर्च किया जाए. और मैं जानती हूं कि अमेरिका के लोग भी ऐसा नहीं चाहते. राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने इसी काम की जिम्मेदारी इलॉन मस्क को दी है.
अब सवाल आता है कि क्या डॉनल्ड ट्रंप सच में USAID को हमेशा-हमेशा के लिए बंद कर सकते हैं? इसका कोई सीधा जवाब नहीं है. अमेरिका के विदेश मंत्री मार्को रूबियो कह चुके हैं कि एजेंसी के बहुत सारे काम जारी रहेंगे, लेकिन ये देखना होगा कि इसके तहत हो रहा खर्च राष्ट्रीय हितों के हिसाब से ठीक है या नहीं. ऐसी बातें भी चल रही हैं कि अमेरिकी विदेश मंत्रालय में ही इस एजेंसी का विलय कर दिया जाएगा.
जैसा कि हमने बताया कि 1961 में अमेरिकी संसद में कानून पारित होने के बाद ही USAID अस्तित्व में आई थी. 1998 में इस एजेंसी को लेकर एक दूसरा कानून पारित हुआ, जिसने इसे एक स्वतंत्र एजेंसी का दर्जा दे दिया. इसका मतलब है कि ट्रंप सिर्फ किसी एग्जीक्यूटिव ऑर्डर के जरिए एजेंसी को बंद नहीं कर पाएंगे. अगर वो ऐसा करते हैं तो उन्हें संसद और अदालतों में चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा.
USAID को बंद करने के लिए अमेरिकी संसद को एक नया कानून बनाना होगा. संसद के दोनों सदनों में ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी के पास साधारण बहुमत है. इन जटिलताओं को देखते हुए ही एजेंसी को विदेश मंत्रालय के तहत लाने की बातें कही जा रही हैं. साल 2020 में ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने देश के इंटरनेशनल डेवलपमेंट डिपार्टमेंट का विदेश मंत्रालय में विलय कर दिया था.
चीन को गिफ्टUSAID को बंद करने या इसके तहत हो रही फंडिंग को उल्लेखनीय तौर पर घटाने के सवाल के साथ यह सवाल भी उठता है कि इससे दुनिया पर क्या असर पड़ेगा? विश्लेषकों का कहना है कि ऐसा होने पर मानवीय सहायता के तमाम कार्यक्रम प्रभावित होंगे और इससे हाशिए पर मौजूद लोगों का जीवन और कठिन हो जाएगा. साथ ही साथ चीन को एक मौका मिलेगा कि वो अमेरिका की तरफ से खाली छोड़ी गई जगह को भर सके. विश्लेषक कह रहे हैं कि डॉनल्ड ट्रंप खुद चीन को ये मौका दे रहे हैं, वो भी तस्तरी में परोसकर.
साल 2018 में चीन की सरकार ने एक एजेंसी स्थापित की थी. नाम रखा था- चाइना इंटरनेशनल डेवलपमेंट को-ऑपरेशन एजेंसी. इस एजेंसी का उद्देश्य चीन के विदेशी निवेश को देखना है, खासकर इसके बेल्ट एंड रोड इनिसिएटिव (BRI) प्रोजेक्ट के संबंध में. विलिमय एंड मैरी ग्लोबल रिसर्च इंस्टीट्यूट के मुताबिक, चीन ने BRI के तहत साल 2000 से 2021 के बीच विकासशील देशों को 1.34 खरब रुपये लोन के तौर पर दिए.

चीन इस तरह से दुनियाभर में अपनी सॉफ्ट पावर बढ़ाने की कोशिश कर रहा है. एक तीखा मुकाबला एशिया-प्रशांत क्षेत्र में हैं, जहां अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और दूसरे सहयोगी छोटे-छोटे लेकिन रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण देशों के साथ अलग-अलग क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने के लिए समझौते कर रहे हैं. अभी जब तक अलग-अलग देशों को USAID से सहायता मिल रही थी, तो उनके पास चीन से मोलभाव करने की ताकत भी थी. USAID की गैर-मौजूदगी में उनके विकल्प घट जाएंगे और मोलभाव की ताकत खत्म हो जाएगी.
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USAID और भारतUSAID के तहत भारत में भी कई सारे कैंपेन्स को फंड किया गया है. आजादी के बाद अमेरिका से मिली आर्थिक सहायता के जरिए भारत में 8 कृषि विश्वविद्यालय, पहला भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान और 14 क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कॉलेज खोले गए. साथ ही साथ टीकाकरण, परिवार नियोजन, HIV एड्स, टीबी, पोलियो और दूसरी बीमारियों की रोकथाम के लिए भी USAID की मदद ली गई.
हालांकि, इस वित्तीय सहायता के लिए अमेरिका ने अपनी तरफ से शर्तें भी रखीं. एक उदाहण 1965 का है. USAID के तहत 67 मिलियन डॉलर (लगभग 6 अरब रुपये) के लोन से तब के मद्रास और अब के चेन्नई में एक केमिकल फर्टिलाइजर फैक्ट्री स्थापित करने की बात हुई. अमेरिका की शर्त यही थी कि इस फैक्ट्री पर नियंत्रण भारत सरकार का ना होकर, एक निजी अमेरिकी कंपनी का हो और क्षेत्र में कोई दूसरी केमिकल फर्टिलाइजर फैक्ट्री स्थापित ना की जाए.
साल 2004 में भारत सरकार ने यह साफ कर दिया कि USAID के तहत ऐसी कोई भी वित्तीय सहायता नहीं ली जाएगी, जिसके साथ अमेरिका की शर्तें भी आएं. इसके बाद से इस फंड में कमी आती गई. साल 2001 में भारत के लिए USAID फंड की उपलब्धता 208 मिलियन डॉलर (लगभग 1800 करोड़ रुपये) की थी. साल 2023 में यह 153 मिलियन डॉलर (लगभग 1300 करोड़ रुपये) हो गई और साल 2024 में 141 मिलियन डॉलर (लगभग 1200 करोड़). विश्लेषकों का कहना है कि भारत को USAID की वित्तीय सहायता की ऐसी कोई खास जरूरत नहीं है.
USAID से आतंकी फंडिंग?बात भारत की हो रही है तो पिछले कुछ दिनों में ऐसी भी रिपोर्ट्स छपीं, जिनमें बताया गया कि USAID से एक ऐसे संगठन की फंडिंग की गई, कथित तौर पर जिसके संबंध आतंकवादी संगठन जमात-उद-दावा से जुड़े चैरिटेबल और पॉलिटिकल समूहों से हैं. इस संगठन का नाम हेल्पिंग हैंड फॉर रिलीफ एंड डेवलपमेंट (HHRD) बताया गया. कहा गया कि अक्टूबर 2021 में USAID से HHRD को 1.1 लाख डॉलर (लगभग 96 लाख रुपये) की वित्तीय सहायता दी गई. और ये फंड तब दिया गया, जब नवंबर 2019 में अमेरिकी कांग्रेस के 3 सदस्य आपत्ति जता चुके थे.
HHRD ने साल 2017 में पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा में एक कार्यक्रम आयोजित किया था. इस कार्यक्रम में फलह-ए-इंसानियत फाउंडेशन (FIF) और मिनी मुस्लिम लीग (MML) के लोग आए थे. ये दोनों संगठन जमात-उद-दावा से जुड़े हैं. लश्कर-ए-तैयबा (LeT) भी जमात-उद-दावा से जुड़ा है. और साल 2008 के मुंबई हमलों के पीछे भी लश्कर-ए-तैयबा का हाथ ही बताया जाता है. अमेरिकी सरकार ने साल 2010 में FIF और साल 2018 में MML पर प्रतिबंध लगा दिया था.
साल 2008 के मुंबई आतंकी हमले में 166 लोग मारे गए थे. इस हमले में शामिल 10 में से 9 आतंकी लश्कर-ए-तैयबा से थे. एकमात्र जिंदा पकड़े गए आतंकी अजमल कसाब को 2012 में फांसी पर चढ़ा दिया गया था. इस आतंकी संगठन का फाउंडर हाफिज सईद भारत के मोस्ट-वांटेड आतंकियों में से एक है.
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