सूत्र के बारे में कह सकते हैं कि गहरी बातों तक पहुंचने का सरल रास्ता, बशर्ते वो समझ में आ जाए. मतलब 'छोटी-छोटी, मगर मोटी बातें' टाइप्स. वायुपुराण में सूत्र का अर्थ कुछ यूं मिलता है-
अल्पाक्षरं असंदिग्धं सारवत् विश्वतोमुखम्। अस्तोभं अनवद्यं च सूत्रं सूत्र विदो विदुः॥
अर्थ-
सूत्रविद कम अक्षरों वाले, संदेहरहित, सार को समेटे हुए, निरन्तरता लिए हुए, त्रुटिहीन कथन को सूत्र कहते हैं.ये तो हुई भूमिका. लेकिन ये सब बातें अलग हैं. हम जिन सूत्रों की बात करने जा रहे हैं, उनका इस परिभाषा से खास लेना-देना नहीं है. उनके बारे में आप ये नहीं कह सकते कि वो 'त्रुटिहीन' और 'संदेहरहित' हों. हम बात कर रहे हैं मीडिया जगत के सूत्रों की. न्यूज़ चैनलों पर या किसी छपी हुई ख़बर में अक्सर 'सूत्रों के हवाले से' या 'सूत्रों के मुताबिक' दिखता ही है. इन्हीं सूत्रों को थोड़ा टटोलेंगे. सिर्फ यही नहीं, पत्रकारों की तरफ से इस्तेमाल किए जाने वाले ऐसे दूसरे तमाम टूल्स की भी बात होगी.
'सूत्रों के मुताबिक'
वेब सीरीज 'ब्रेकिंग बैड' में एक कैरेक्टर है. सॉल गुडमैन (बेटर कॉल सॉल). उसका एक डायलॉग है- I Know a guy, who knows a guy. सूत्रों का खेल यही है. कई बार ख़बरें 'अंदर से' आती हैं. जैसे- किसी संस्था/ऑफिस की ख़बर है. तब सूत्र अंदर का ही कोई व्यक्ति (अफसर/कर्मचारी) हो सकता है, जो जर्नलिस्ट को सूचना देता है. इसके अलावा सूत्र कोई डॉक्यूमेंट हो सकता है. किसी घटना का गवाह हो सकता है.
सूत्र किसी खास बीट को कवर करने वाले रिपोर्टर के बहुत काम आते हैं. मसलन कोई रिपोर्टर किसी राजनीतिक पार्टी को कवर करता है. ऐसे में पार्टी के अंदर तक उसकी पहचान होती जाती है. वहीं से उसे ख़बरें भी पता चल जाती हैं. इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म में भी सूत्र काम आते हैं. तब इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट की ज़िम्मेदारी होती है कि वो अपने सूत्रों का खुलासा न करे.

राजकुमार हिरानी की फिल्म 'संजू' में पुनीत शर्मा का एक गीत अंत में आता है, जिसमें 'सूत्रों' और उनकी विश्वसनीयता पर तंज किया गया है.
सूत्र कई बार सही होते हैं, कई बार एकदम ग़लत होते हैं. ये किसी ख़बर को ब्रेक करने का आधार हो सकते हैं, लेकिन इनके हवाले से ज़्यादातर ख़बर चलाने और उनके ग़लत निकलने पर विश्वसनीयता कमज़ोर पड़ती है. इसलिए जर्नलिस्ट का काम सूत्र की बात को भी क्रॉस चेक करना होता है. कुछ बातें 'ऑफ द रिकॉर्ड' भी होती हैं, लेकिन नॉर्मल एथिक्स है कि जर्नलिस्ट 'ऑफ द रिकॉर्ड' बातों का ज़िक्र अपनी रिपोर्ट या स्टोरी में नहीं करते. कई संस्थाओं में इसके ख़िलाफ़ पॉलिसी भी होती है.
'कथित तौर पर'
जब कोई बात आम तौर पर दूसरों की तरफ से कही जाती है, तब जर्नलिस्ट उसे अपनी तरफ से सीधे न बोलकर 'कथित तौर पर' का इस्तेमाल करता है. इसका मतलब कि हम नहीं बोल रहे, बल्कि ऐसा कहा जा रहा है या ऐसा आरोप लगाया जा रहा है. किसी घटना पर शक हो, तो भी उसके आगे कथित इस्तेमाल होता है.
जैसे- अभी राजस्थान की सियासी उठा-पटक में कथित तौर पर नेताओं के कई ऑडियो टेप सामने आए. इन्हें कथित टेप क्यों लिखा? क्योंकि इन्हें पत्रकार अपनी तरफ से नेताओं का टेप नहीं बता रहा है. जो लोग एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप कर रहे हैं, वो ये कह रहे हैं कि ये फलां नेता का टेप है. जर्नलिस्ट का काम उस सूचना को देना है, जो घटित हो रही है. अगर कोई बात जांच का विषय है, तो उस पर अपनी तरफ से जजमेंट देने से बचा जाता है.

राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट गुट के बीच उठा-पटक हुई. सचिन पायलन को पदों से हटाने के बाद गहलोत गुट की तरफ से कथित टेप जारी किए गए, जिनमें दावा था कि सरकार गिराने का षड्यंत्र रचा जा रहा था.
सांकेतिक तस्वीर-फाइल फोटो
ये ख़़बरों में फोटो के नीचे खूब पढ़ने को मिलता है. सांकेतिक तस्वीरें ज़्यादातर संवेदनशील मामलों में देखने को मिलती हैं. कई बार ऐसा होता है कि कुछ तस्वीरें सीधे नहीं दिखाई जा सकतीं. मसलन रेप, क्षत-विक्षत शरीर, हत्या, विचलित करने वाली कोई भी तस्वीर. ऐसे में सांकेतिक तस्वीर का सहारा लिया जाता है. इससे पाठक या दर्शक को इशारा मिल जाता है कि इस बारे में बात हो रही है.
इसके अलावा कुछ ख़बरों की रियल टाइम फोटो मौजूद नहीं होतीं. तब सांकेतिक तस्वीरों से काम चलता है. जैसे- किसी मामले में कुछ अपराधी पकड़े गए और उन्हें जेल भेज दिया गया. उनकी तस्वीर मौजूद नहीं है या दिखा नहीं सकते. तब किसी जेल की सांकेतिक तस्वीर इस्तेमाल हो जाती है. ऐसे ही अगर सीमा पर तनाव या मुठभेड़ की खबरें हैं और संवेदनशील मामला होने की वजह से तस्वीरें मौजूद नहीं होतीं, तो कई बार सेना के जवानों की फाइल या सांकेतिक तस्वीरें इस्तेमाल हो जाती हैं.
ये महज उदाहरण हैं. घटना के हिसाब से सांकेतिक तस्वीरें बदलती रहती हैं. ख़बर से मिलती-जुलती किसी फिल्म का कोई सीन, कोई पेंटिंग या स्केच भी सांकेतिक तस्वीर के तौर पर इस्तेमाल हो सकता है.

सांकेतिक तस्वीर या Symbolic Image
ऐसे ही किसी शख्स या घटना के बारे में बार-बार ख़बरें होती रहती हैं, तो उनकी पुरानी तस्वीरें भी बार-बार इस्तेमाल होती हैं. तब फाइल फोटो काम आती हैं. मतलब पुरानी तस्वीरों को घुमाते जाना.
'नाम न छापने की शर्त पर'
ये कई बार स्टोरीज में पढ़ने को मिलता है. जब किसी स्टोरी में वर्जन लेने के लिए पत्रकार किसी से बात करता है, तो ज़रूरी नहीं कि वो हमेशा अपना नाम बताना चाहे. इसकी तमाम वजहें होती हैं. नौकरी से लेकर सुरक्षा और प्राइवेसी तक. ऐसे में किसी का वर्जन लेने के बाद उसकी सहमति अगर हो, तो नाम इस्तेमाल होता है. अगर वो सहमति नहीं देता, तो ये लिख दिया जाता है कि नाम न छापने की शर्त पर फलां शख्स ने ये बात बताई.

पहचान जाहिर ना करने की शर्त पर अगर कोई ख़बर में वर्जन दे रहा है, तो उसकी पहचान गुप्त रखी जाती है, लेकिन उसकी बात वैसे ही पेश कर दी जाती है.
क्वेश्चन मार्क-एक्सक्लेमेटरी मार्क
इनका इस्तेमाल ज़्यादातर हेडिंग में होता है. क्वेश्चन मार्क लगाकर बताया जाता है कि ख़बर पुख्ता नहीं है. या इसके ज़रिए कोई सवाल भी छोड़ दिया जाता है. मतलब, कोई खबर उठानी तो है, पर इसकी सत्यता के बारे में ठीक-ठीक अभी नहीं मालूम. ऐसी स्थिति में '?' मार्क लगा देते हैं. पाठकों से कहते हैं कि भाई, हमें भी शक है. हम भी बता नहीं रहे, पूछ ही रहे हैं. हालांकि कई बार क्वेश्चन मार्क का इस्तेमाल इसके एकदम वास्तविक अर्थ में भी होता है. सवाल खड़े करना पत्रकारों का धर्म है, सो इसका इस्तेमाल सवाल पूछने में तो होता ही है.
अब देखते हैं एक्सक्लेमेटरी मार्क या विस्मयादिबोधक चिह्न (!) का इस्तेमाल. पाठकों का ध्यान हैरत में डालने वाली किसी बात की ओर खींचना हो, तो हेडिंग के अंत में '!' मार्क का लगा देते हैं. ये तो हुई सामान्य जानकारी. इसका एक और इस्तेमाल है. खबर थोड़ी अपुष्ट हो, मतलब थोड़ी पक्की-थोड़ी कच्ची-सी. कुछ-कुछ गॉसिपनुमा. ऐसे में भी '!' मार्क लगाकर अपना झंझट खत्म कर लेते हैं. भाई, हमें तो पहले ही शक था. हमें भी आपकी ही तरह अचरज हो रहा था. खबर बतानी थी, तो बता दी.
लुधियाना में पत्रकारिता के छात्रों ने बताया फेक न्यूज मिलता है तो क्या करते हैं?