पिछले कुछ समय से तुर्की में तीन चीजें रुकने का नाम नहीं ले रही हैं.
वित्तीय अधिकारियों के इस्तीफे राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन की ज़िद, और, तुर्की की मुद्रा का पतन. नतीजा. रोटी की दुकानों के बाहर लगी लंबी कतारें. सूखे पेट्रोल पंप. बंजर पड़े खेत. और, तुर्की का गौरवशाली इतिहास लौटाने का वादा करने वाले सुप्रीम लीडर अर्दोआन के ख़िलाफ़ चल रहे प्रोटेस्ट. उनके ही गढ़ में. आज जानेंगे, तुर्की के आर्थिक संकट की पूरी कहानी क्या है? क्या अर्दोआन की कुर्सी खिसकने वाली है? और, इस संकट से निकलने का रास्ता क्या है? पहले कुछ बयान पढ़ लीजिए.
‘हम दिनोंदिन ग़रीब होते जा रहे हैं. लेकिन देश चलाने वाले महाशय को लगता है कि देश में अच्छे दिन चल रहे हैं.’
दूसरा बयान.
‘हम अपने परिवार की बुनियादी ज़रूरतें पूरी करने में अक्षम हैं. हमारे सब्र की सीमा ख़त्म हो चुकी है.’
बयान नंबर तीन.
‘सरकार को अब कुर्सी खाली कर देनी चाहिए. उन्होंने अपना खज़ाना भरने के लिए हमारी ज़ेब खाली करना सीख लिया है. इसी वजह से हम सड़क पर हैं. हम और नहीं सह सकते.’
ये पंक्तियां महज बयान भर नहीं है, बल्कि तुर्की की आम जनता के दिल की भावनाएं हैं. 12 दिसंबर को तुर्की के इस्तांबुल में पांच हज़ार से अधिक लोगों ने प्रोटेस्ट किया. वे महंगाई में बढ़ोत्तरी और लीरा का दाम घटने से नाराज़ चल रहे थे. लीरा, तुर्की की आधिकारिक मुद्रा का नाम है. पिछले एक साल में लीरा का मूल्य आधा हो चुका है. हालांकि, अभी पतन रुका नहीं है. जानकारों की मानें तो हालात अभी और बदतर होने वाले हैं. इस साल महंगाई की दर 21 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है. मुद्रा का दाम घटने और महंगाई बढ़ने से लोगों पर दोतरफा मार पड़ रही है. उनके खरीदने की क्षमता कम हो चुकी है. प्रदर्शनकारी न्यूनतम मज़दूरी बढ़ाने की मांग भी कर रहे हैं. ताकि वे अपनी बुनियादी ज़रूरतें पूरी कर सकें. ब्लैक सी के मुहाने पर बसा राइज़ राष्ट्रपति अर्दोआन का होमटाउन है. राइज़ उन्हें अपना बेटा मानता है. आर्थिक संकट के बाद ये रिश्ता दरकने लगा है. राइज़ में भी लोग अर्दोआन के ख़िलाफ़ हो गए हैं. वे उनकी नेतृत्व-क्षमता पर सवाल उठा रहे हैं. शहर की इनकम का बड़ा हिस्सा चाय की खेती से आता है. खाद और पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों ने लोगों का जीना मुश्किल कर दिया है. अर्दोआन पिछले दो दशकों से तुर्की की सत्ता में हैं. वो 2003 से 2014 तक प्रधानमंत्री के पद पर रहे. 2014 से वो तुर्की के राष्ट्रपति हैं. 2016 में सेना के एक धड़े ने तख़्तापलट की साज़िश रची थी. उस समय वो छुट्टी मनाने राजधानी से बाहर गए हुए थे. अर्दोआन ने मोबाइल से वीडियो बनाकर विरोध की अपील की. इसके बाद आम जनता ने मोर्चा संभाला. जब तक वो वापस राजधानी पहुंचे, साज़िश नाकाम की जा चुकी थी. अर्दोआन के लिए जान ज़ोखिम में डालने वाले मध्यम और निम्न-आय वर्ग के लोग थे. यही वर्ग उनकी कुर्सी का आधार भी रहा है. हालांकि, जिस तरह से आर्थिक मोर्चे पर लगातार विफलता मिल रही है, अर्दोआन सपोर्ट खोते जा रहे हैं. तुर्की में 2023 में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव होने वाले हैं. बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2023 तक 90 लाख नए वोटर्स जुड़ जाएंगे. ये वोटर तुर्की की नई पीढ़ी है. उनके अंदर महंगाई और बेरोज़गारी को लेकर गुस्सा है. 2016 के विफल तख़्तापलट के बाद अर्दोआन निरंकुश हुए हैं. वो राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर विरोधियों को ठिकाने लगाने के लिए कुख्यात हो चुके हैं. सड़कों पर होने वाले प्रदर्शनों को भी उनकी सरकार बुरी तरह कुचलती है. लेकिन युवा पीढ़ी ने विरोध के नए रास्ते तलाश लिए हैं. टिकटॉक, सोशल मीडिया, यूट्यूब के ज़रिए वे अपना विरोध दर्ज़ करा रहे हैं. तुर्की में पांच में से एक युवा बेरोज़गार है. अगर अर्दोआन ने इस तरफ़ ध्यान नहीं दिया तो अगला चुनाव काफ़ी मुश्किल होने वाला है.
इस संकट का कारण क्या है?
इसके पीछे दो बड़ी वजहें बताई जा रहीं है. पहली, सरकार की नज़रअंदाज़ी. 2008 में तुर्की सरकार विदेशी निवेश लाने में कायमाब रही. उसने बुनियादी चीज़ों का उत्पादन बढ़ाने की बजाय कंस्ट्रक्शन इंडस्ट्री पर ध्यान दिया. इससे हुआ ये कि तुर्की बुनियादी ज़रूरतों के लिए आयात पर निर्भर हो गया. इसके चलते तुर्की की इकोनॉमी लीरा के मूल्य से नत्थी हो गई है. जैसे-जैसे लीरा का मूल्य घटता है, चीज़ों के दाम ऊपर जाने लगते हैं. दूसरी वजह है, राष्ट्रपति की ज़िद. अर्दोआन अपनी मर्ज़ी से सरकार चलाते हैं. उनका कहना है, हम एक्सपर्ट हैं, हमको सब पता है. इसी अहंकार में वो पिछले दो साल में सेंट्रल बैंक के तीन गवर्नर्स को बर्ख़ास्त कर चुके हैं. पिछले ही हफ़्ते उन्होंने वित्त मंत्री बदला है. उनकी सरकार में वही लोग कुर्सी पर बचे, जिन्होंने उनकी हां में हां मिलाया. इसका नतीजा ये हुआ कि आर्थिक मोर्चे पर अर्दोआन ही सबकुछ हैं. जानकारों का मानना है कि जब महंगाई की दर ऊपर जाती है, तब केंद्रीय बैंक ब्याज़ की दर बढ़ा देते हैं. ताकि लोग कम पैसा निकालें. इससे महंगाई की रफ़्तार धीमी पड़ जाती है. अर्दोआन यहां पर उलटा सोचते हैं. वो कहते रहे हैं कि ब्याज़ सभी बुराईयों की जड़ है. इसलिए, उन्होंने दबाव डालकर ब्याज़ दर घटा दिया. तुर्की के एक पूर्व प्रधानमंत्री ने कहा,
‘उसे और उसके आस-पास के लोगों को अर्थव्यवस्था की समझ नहीं है. अर्दोआन किसी और दुनिया में सफ़र कर रहे हैं. उन्हें कोई आइडिया नहीं कि उनके आस-पास क्या घट रहा है.’
तुर्की अपने इतिहास के सबसे बुरे आर्थिक संकट से जूझ रहा है. इस संकट-काल में देश की कमान ऐसे आत्ममुग्ध शख़्स के हाथों में है, जिसे लगता है कि वो एक चुटकी में सब ठीक कर सकता है. वो ख़ुद को सबसे बड़ा जानकार मानता है. ये जानते हुए कि उसी का घमंड देश को गर्त में ले जा रहा है.
आगे का रास्ता क्या है?
रास्ता यही है कि किसी जानकार के हाथों में आर्थिक मोर्चे की कमान सौंपी जाए. राष्ट्रपति को विशेषज्ञता पर भरोसा करने की ज़रूरत है. अपने अहंकार को दरकिनार करके. जानकारों का कहना है कि पहली बार तुर्की इकोनॉमिक थ्योरीज़ के विपरीत चल रहा है. कोई ये अनुमान नहीं लगा सकता कि आगे क्या होने वाला है. अगर अब भी नहीं संभले तो क्या होगा? नहीं संभले तो महंगाई बढ़ती रहेगी. सस्ती रोटी की दुकानों के आगे लगने वाली कतारें लंबी होती जाएंगी. खेतों का बंज़रपन बढ़ता जाएगा. फिर लोगों को भूख और विद्रोह में से एक विकल्प चुनना होगा. शायद उस दिन अर्दोआन को अपनी ग़लती का अहसास हो. यहां पर एक सवाल लाज़िमी हो जाता है. सैन्य विद्रोह से सुरक्षित निकलने वाले अर्दोआन क्या जनता के रोष से बच पाएंगे?