ऐसा कब होता है कि आप जिससे मिलें, वो एक ही विषय पर बात कर रहा हो - नेता, अभिनेता, राजनेता, प्रधानमंत्री, आपके दोस्त और रिश्तेदार तक. ज़्यादातर को फिल्म पसंद है. कुछ को नहीं भी है. लेकिन बात सब कर रहे हैं. आज हम इसकी वजह खोजेंगे. कि कश्मीर फाइल्स की इतनी बात हो क्यों रही है? इसके पीछे कौन कौन से कारक हैं? भारत हर साल औसतन 2 हज़ार फिल्में बनाता है. लेकिन जैसा बवंडर कश्मीर फाइल्स ने खड़ा किया है, वो सालों साल देखने को नहीं मिलता. पिछली बार ऐसा कब हुआ था कि प्रधानमंत्री ने सिर्फ फिल्म के निर्देशक और टीम के साथ तस्वीर खिंचाई, बल्कि फिल्म के समर्थन में एक बयान तक दे डाला. कश्मीर फाइल्स के मुरीदों में प्रधानमंत्री मोदी अकेले नहीं हैं. 11 मार्च को रिलीज़ हुई कश्मीर फाइल्स को गुजरात, मध्य प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक और बिहार जैसे राज्यों में टैक्स फ्री कर दिया गया है. इन सभी राज्यों के कैबिनेट मंत्रियों के ट्विटर हैंडल देख लीजिए, आपको कश्मीर फाइल्स की तारीफ दिख जाएगी. फिर ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ ट्विटर क्रांति हो रही है. असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने अपने पूरे कैबिनेट के साथ मिलकर फिल्म देखी है. जिन सूबों में भाजपा की सरकार नहीं है, वहां भी फिल्म को लेकर गतिविधियां तेज़ हैं. मुंबई में भारतीय जनता युवा मोर्चा ने फिल्म की स्पेशल स्क्रीनिंग करवाई. पश्चिम बंगाल में नेता प्रतिपक्ष सुवेंदू अधिकारी ने सभी भाजपा विधायकों के साथ मिलकर फिल्म देखी. ऐसा नहीं है कि भाजपा या संघ परिवार से इतर लोगों को कश्मीर फाइल्स पसंद नहीं आ रही. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने पूरे सूबे के विधायकों को कश्मीर फाइल्स देखने का न्योता दे दिया है. और इसकी जानकारी ट्विटर पर भी डाल दी है. यहां तक आते आते आपको ये तो अच्छे से समझ आ गया होगा कि कश्मीर फाइल्स में कुछ तो ऐसा है, जिसे सियासी दल अपने अपने हिसाब से इस्तेमाल करना चाहते हैं. पहले भाजपा की बात कर लेते हैं. भाजपा की राजनीति में कश्मीर हमेशा से महत्वपूर्ण रहा है. वो नारा याद कीजिए - जहां हुए बलिदान मुखर्जी, वो कश्मीर हमारा है. अनुच्छेद 370 को लेकर भी पार्टी की लाइन हमेशा से साफ थी. पार्टी इसके खिलाफ थी, और उसने उसे निष्प्रभावी भी किया. कश्मीरी पंडितों को पुनः घाटी में बसाने पर भी पार्टी का स्टैंड क्लीयर रहा है - कि पंडितों का विस्थापन त्रासद था, और उनकी वापसी होनी चाहिए. इसीलिए लाज़मी ही था कि पार्टी कश्मीर फाइल्स के साथ खड़ी हो. अब चूंकि कश्मीर फाइल्स के साथ एक दल या एक विचार खड़ा नज़र आ रहा था, तो बाकी क्यों पीछे रहते. फिर कश्मीर फाइल्स इस बात का उदाहरण भी है कि ऐसी फिल्मों का कितना ज़्यादा असर होता है. तभी तो सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव ने ये बयान दिया. अखिलेश, लखीमपुर फाइल्स बनवाना चाहते हैं, और तेलंगाना से भाजपा विधायक टी राजा चाहते हैं कि गोधरा में जलाए गए हिंदुओं, केरल-बंगाल में मारे गए हिंदुओं और 1984 सिख नरसंहार पर भी एक एक फिल्म बननी चाहिए. ये सारे नेता पहले भी फिल्में देखते ही थे. लेकिन अचानक मुरीद कैसे बन गए, इसके लिए आपको कश्मीर फाइल्स पर एक क्रैश कोर्स करवाते हैं. फिल्म का विषय है कश्मीरी पंडितों का विस्थापन. 1990-91 में आतंकवादियों ने बड़े पैमाने पर कश्मीरी पंडितों की हत्याएं कीं और पूरे समाज को घाटी छोड़ने पर विवश कर दिया. आज भी कई कश्मीरी पंडित परिवार अपने ही देश में शरणार्थी बनकर रहते हैं. विवेक अग्निहोत्री की कश्मीर फाइल्स कृष्णा पंडित नाम के एक लड़के की कहानी है. उसके दादा पुष्कर नाथ को 1990 में कश्मीर छोड़ना पड़ा. आज भी उनका सपना है कि वो एक बार वापस अपने घर जा सकें. कृष्णा दिल्ली में ENU नाम के टॉप कॉलेज में पढ़ता है. कृष्णा कही-सुनी बातों पर विश्वास करने की बजाय खुद कश्मीर जाकर देखता है कि वहां क्या चल रहा है. इस दौरान उसे अपनी लाइफ का सबसे बड़ा राज़ पता चलता है, जो जीवन और कश्मीर के प्रति उसका पर्सपेक्टिव बदल देता है. ये सब कैसे होता है, ये देखने आपको सिनेमाघर जाना होगा. कश्मीर फाइल्स रिलीज़ से पहले ही खासी चर्चा बटोर रही थी. अमूमन फिल्म की रिलीज़ से पहले ट्रेलर आता है. और प्रमोशन के लिए फिल्मकार सिनेमा बीट के पत्रकारों से मिलते हैं, इंटरव्यू होते हैं, ट्रेलर समीक्षा होती है. इस तरह फिल्म के लिए एक माहौल बनाने की कोशिश होती है. अलग अलग फिल्मकार अलग अलग तरीके अपनाते हैं. लेकिन मोटा-माटी पैटर्न यही होता है कि इंटरव्यू आदि में फिल्म की कहानी और कॉन्टेंट की चर्चा की जाती है. लेकिन कश्मीर फाइल्स ने जैसे चर्चा बटोरी, वो काफी अलग था. पहले सामने आए एक नामी फिल्म समीक्षक पर विवेक अग्निहोत्री के आरोप. इंटरनेट की कीवर्ड वाली दुनिया में - कश्मीर फाइल्स इस तरह पिक हुआ. फिर एक और विवाद हुआ. इस बार विवेक अग्निहोत्री और एक समाचार संस्थान के बीच. रिलीज़ डेट करीब आई, तो बंबई हाईकोर्ट में याचिका लगाकार फिल्म पर रोक लगाने की मांग कर दी गई. भारत में अदालतें पारंपरिक रूप से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भरपूर संरक्षण देती आई हैं. इसीलिए मुस्लिम भावनाओं को ठेस पहुंचाने के आरोप में फिल्म बैन करवाने की मांग खारिज हो जाएगी, ये सब जानते थे. ऐसा ही हुआ भी. लेकिन एक बार फिर नतीजा वही रहा - कश्मीर फाइल्स इंटरनेट पर एक कीवर्ड के रूप में मज़बूत होती गई. इसके अलावा एक और बात थी. विवेक अग्निहोत्री ने कश्मीरी पंडितों के खिलाफ हुई हिंसा के लिए जेनोसाइड शब्द का इस्तेमाल किया था. कश्मीरी पंडित समाज की ये शिकायत रही है कि उनपर हुए ज़ुल्म को पर्याप्त कवरेज नहीं मिली. उसे कम करके बताया गया. खालिस फिल्मों की बात करें तो कश्मीर फाइल्स से पहले कश्मीरी पंडितों की व्यथा को चुनिंदा फिल्मों में ही दिखाया गया. तो कश्मीर फाइल्स एक वैक्यूम को भरने आई. दी लल्लनटॉप ने फिल्म को लेकर कश्मीर के जानकारों से संपर्क किया. उन्होंने इस बात की तस्दीक की, कि कश्मीर फाइल्स में कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार के दृष्य तथ्यात्मक रूप से सही हैं. ये भी संभव है कि ज़ुल्म इससे भी बदतर था, लेकिन पूरी तरह परदे पर नहीं आ पाया. क्योंकि परदे की भी अपनी सीमा है. यही कारण था कि जिन विस्थापित पंडित परिवारों ने कश्मीर फाइल्स को देखा, वो थिएटर में ही फूट फूटकर रोए. और इसके वीडियो सोशल मीडिया पर भी आए. इंटरनेट की दुनिया में एक मज़बूत कीवर्ड बनना और एक वीभत्स सत्य को जस का तस परदे पर उतारना. इन दो कामों में कोई बुराई नहीं खोजी जा सकती. लेकिन फिर हमारे सामने कुछ और चीज़ें आती हैं. ये भी सिनेमा के अंदर बने वीडियो हैं. इनमें फिल्म खत्म होने के बाद लंबे लंबे भाषण हो रहे हैं. जिनके विषय अलग अलग हैं, लेकिन कैटेगरी एक ही है - हेट स्पीच. कश्मीर फाइल्स की स्क्रीनिंग में से और भी वीभत्स और भड़काउ हेट स्पीच के उदाहरण सामने आए हैं. देश के लगभग हर हिस्से में ये घटनाएं हुई हैं. कई जगह दर्शक उग्र हुए. कहीं फिल्म की प्रिंट खराब नज़र आई तो हंगामा हो गया. राजधानी के ऐन बगल में नोएडा है. यहां दर्शकों ने आरोप लगा दिया कि थिएटर के मैनेजर एजाज़ खान ने जानबूझकर स्क्रीनिंग रोक दी. बवाल हुआ, तो पुलिस भी आई. और तब जाकर ये साफ हुआ कि एसी खराब हो गया था, इसीलिए स्क्रीनिंग रोकी गई. गोवा में तो एक थिएटर में फिल्म लगी भी थी. बस बाहर पोस्टर नहीं लगा था. इसी बात पर सिनेमा हॉल के स्टाफ से पूछताछ हो गई. ये सारी चीज़ें हमें बताती हैं कि कश्मीर फाइल्स को लेकर लोगों का जो रिएक्शन है, वो सिर्फ एक दर्शक का तो हरगिज़ नहीं है. यहां तक आते आते हमें तीन बातें समझ आती हैं - >> 1. कश्मीर फाइल्स में दिखाई पंडितों की पीड़ा असली है >>2. सरकार कश्मीर फाइल्स को एक सही ''मैसेज'' मानती है. फिल्मकार दिबाकर बैनर्जी से हमने इस बारे में बात की, तो उन्होंने कहा कि टैक्स माफ करने से साफ होता है कि तंत्र चाहता है कि ऐसी फिल्में और बनें. ये सहयोग का ऐलान है. अगर कोई फिल्म हिंदू व्यथा की बात करती है और उसपर टैक्स माफ होता है, तो इसमें कोई बुराई नहीं खोजनी चाहिए. हमें बस ये भी देखना होगा कि क्या इसी तरह दलित व्यथा, मुस्लिम व्यथा, निर्धनों की व्यथा, ट्रांसजेंडर्स की व्यथा और स्त्रियों की व्यथा पर बनी फिल्मों पर भी टैक्स माफ होगा. अगर ऐसा होने लगे , तो हमें टैक्स माफी में सरकार के रुझान खोजने की ज़रूरत नहीं होगी. >>3. कश्मीर फाइल्स में जो सामग्री है, उसे देखकर समाज का एक हिस्सा, दूसरे हिस्से को संशय की नज़र से देख रहा है. क्या इसकी वजह ये है कि फिल्म में दिखाया सच, ''पूरा'' नहीं था, ये हमने खुद फिल्म के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री से पूछा था. उन्होंने हमें बताया
विश्व युद्ध में बहुत से जर्मन भी मरे थे नाज़ी भी मरे थे. साथ में और भी कई मारे गये लेकिन किसी भी होलोकास्ट मूवी में उनका पक्ष नहीं देखा. सिर्फ यहूदी में फोकस रहा. अगर वाक़ई में मुसलमानों के साथ इतना आतंक हुआ तो आज वो भी वहां कैसे रह रहे हैं.
इसी बारे में हमने सुरिंदर कौल से भी प्रश्न किया था. कौल ने ही विवेक अग्निहोत्री को फिल्म बनाने का आइडिया दिया था.उन्होंने बताया
हम इसपर लम्बे अरसे से बात कर रहे थे लेकिन इसका असर उतना नहीं होता जितना एक फिल्म के ज़रिए होता है. इसलिए हमने उन्हें अप्रोच किया और मूवी बनी.
इस पूरे मसले पर हमारा क्या मानना है, अब ये भी बता देते हैं. हम मानते हैं कि कोई दरार भरे, उसके लिए पहली शर्त है सच कबूलना. सच कबूला जाएगा, तभी हम ज़ख्मों को भुलाने की बात कर पाएंगे. इसीलिए सच दिखाने में कोताही की ज़रूरत नहीं है. लेकिन हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि रीकंसीलिएशन के नाम पर हम जो ट्रुथ दिखा रहे हैं, क्या वो वाकई पूरा सच है. क्योंकि अधूरा होने पर सत्य का कोई मोल नहीं रह जाता.