27 जून से ओडिशा के पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा शुरू होने जा रही है. इस यात्रा को रथ महोत्सव या श्री गुंडिचा यात्रा के नाम से भी जाना जाता है. ओडिशा के पुरी में हर साल ये यात्रा निकालती है जिसमें भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा आज 12वीं शताब्दी के मंदिर यानी अपने निवास गुंडिचा मंदिर के लिए नौ दिवसीय प्रवास पर निकलते हैं. तो जानते हैं क्या है इस रथ यात्रा त्योहार की मान्यता और भगवान क्यों हर साल ‘सिक लीव’ पर जाते हैं.
जगन्नाथ रथ यात्रा की कहानी: मंदिर का ध्वज हवा से उल्टी दिशा में लहराने में कितनी सच्चाई?
Jagannath Mandir की वास्तु कुछ ऐसी है कि यहां धूप का नामोनिशान भी नहीं होता. लिहाजा यहां परछाई भी नहीं दिखती. एक तरफ आदिवासी परम्पराएं हैं, तो राजा जैसे ठाट बाट भी हैं.

बंगाल की खाड़ी का एक तटीय शहर. भारी हुजूम उमड़ा हुआ है. जय जगन्नाथ के जयकारे आसमान में गूंज रहे हैं. खींचे जा रहे हैं तीन रथ. ऐसे में एंट्री होती है एक शख्स की. बिखरे हुए बाल. अस्त-व्यस्त कपड़े. अपनी धुन में चूर. तीन में से एक रथ पर चढ़ने की कोशिश करता है. पुजारी न सिर्फ़ उसे धक्का देते हैं, उस पर अपशब्दों की बौछार कर देते हैं. झल्लाया हुआ वो शख्स समंदर की तरफ़ मुड़ता है. और बनाता है रेत के तीन रथ. इसका परिणाम क्या होता है? तीनों असली रथ जाम हो जाते हैं.
हाथियों, घोड़ों से खींचने के बावजूद रथ टस से मस नहीं होते. कहते हैं, भगवान जगन्नाथ, अपने भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ आए. और उन रेत के बने रथों में बैठ गए. ये रथ बनाये थे भक्त बलराम दास ने. इन्हीं के बुलावे पर भगवान को अपनी ही रथ यात्रा रोकने आना पड़ा. भले ही ये किंवदंती हो. भले ही इसके ऐतिहासिक प्रमाण न हों. लेकिन रथ यात्रा के जरूर हैं. जगन्नाथ मंदिर का भी भरा-पूरा इतिहास है और इससे जुड़े हैं तमाम किस्से.
पुरी, ओडिशा का एक तटीय शहर. चार धामों में से एक भगवान जगन्नाथ का धाम. यहां मठों की भी एक उल्लेखनीय परंपरा रही है. 8वीं सदी में आदि शंकराचार्य ने गोवर्धन पीठ की स्थापना की. रामानुजाचार्य के समय, रामानुज मठ और एमरा मठ बने. गुरु नानक और तुलसी दास जैसे महापुरुष भी पुरी आए और अपने केंद्र यहां स्थापित किए.
इन सबके बावजूद भगवान जगन्नाथ और उनकी रथ यात्रा पुरी की पहचान के साथ नत्थी है. यहां भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ भगवान लकड़ी की प्रतिमा में जगन्नाथ के रूप में विराजते हैं. श्याम वर्ण, गोल मटोल बड़ी-बड़ी आंखें, पहनावे में साथ ओडिशा के संस्कृति की झलक. कबीलाई परंपरा का पूजा पाठ, रथ यात्रा जैसे त्योहार इस मंदिर के इतिहास में अहम भूमिका निभाते आए हैं. मंदिर के 800 सालों के अतीत में ऐसा बहुत कुछ है, जिसे इतिहास, किंवदंतियां, रिवाज और रहस्य मिलकर बनाते आए हैं.
पुराण और इतिहास18 पुराणों में से एक, स्कन्द पुराण में नील माधव की कथा में इस मंदिर के बनने का विस्तृत उल्लेख मिलता है. इसके अनुसार राजा इन्द्रद्युम्न ने मंदिर का निर्माण करवाया था. वहीं, ब्रह्म पुराण और नारद पुराण में भी बलभद्र, सुभद्रा और जगन्नाथ की चर्चा मिलती है. कहते हैं कि ब्रह्मा और विष्णु ने मिलकर इन्हें रचा था. इस जगह को पुरुषोत्तम क्षेत्र भी कहा जाता है. महाभारत के वन-पर्व में पुरुषोत्तम क्षेत्र को एक यज्ञवेदी के रूप में दिखाया है. रामायण का उत्तर कांड भी जगन्नाथ को इक्ष्वाकुओं के कुलदेवता के रूप में प्रस्तुत करता है.
अब बात इतिहास के पन्नों से. जगन्नाथ मंदिर का निर्माण 12वीं सदी में अनंतवर्मन चोड़गंग देव के शासन में हुआ. जैसा कि केंदुपटन कॉपर प्लेट से पता चलता है. अनंतवर्मन कलिंग के गंग राज्य के संस्थापक थे. इसकी तस्दीक राजराज तृतीय के दसगोबा प्लेट और कूर्मेश्वर मंदिर शिलालेख से होती है. अनंतवर्मन ने मंदिर का काम शुरू कराया गया. उसके बाद अनंगभीम देव द्वितीय ने 12वीं सदी के आखिरी दशक में इसका काम पूरा कराया.
फिर राजा अनंगभीम देव तृतीय गद्दी पर बैठे. उन्होंने भगवान जगन्नाथ की सेवा के लिए करीब तीन दर्जन किस्म के सेवकों को पुरी में बसाया. इन सेवकों में राजगुरु, पुरोहित, महाजन, खुंटिया, पाढ़ीयारी और दैतापति जैसे सेवक शामिल थे. यहीं देवदासी परंपरा के भी साक्ष्य मिलते है. देवदासियों को भगवान जगन्नाथ की पत्नियां माना जाता था और वो संगीत और नृत्य से जुड़ी होने के साथ-साथ अच्छा जीवन व्यतीत करती थीं. मंदिर का विकास गजपति वंश के शासनकाल में भी जारी रहा, जिसने इसे धार्मिक, सांस्कृतिक, और सामाजिक गतिविधियों का केंद्र बनाया.
मंदिर की वास्तुकलामंदिर का वास्तु इसके आकर्षण का एक जरूरी तत्व है. जगन्नाथ मंदिर कलिंग शैली में बना है, जिसमें ऊंचा आधार, वक्राकार शिखर यानी देऊल, मंडप यानी जगमोहन और महीन नक्काशियां शामिल हैं. वास्तुकला के मामले में ये ओडिशा में सबसे बड़ा और सबसे ऊंचा मंदिर है जो करीब 4 लाख वर्गफीट में फैला है. ऊंचाई करीब 215 फीट है. मंदिर के चार द्वार हैं, जिनमें से हर एक का अपना महत्व है.
- पूर्व में सिंह द्वार: मुख्य प्रवेश, दो सिंह आकृतियों से सुशोभित
- पश्चिम में व्याघ्र द्वार : इस पर बाघों की आकृतियां उकेरी गई हैं
- उत्तर में हस्ती द्वार: हाथियों की आकृतियों से सजाया गया है
- दक्षिण में अश्व द्वार: घोड़ों की आकृतियों से अलंकृत है

बाहरी चौहद्दी 22 फुट ऊंची है, जिसे मेघनाद प्राचीर कहा जाता है. सौ से ज़्यादा छोटे बड़े मंदिर हैं. इन्हीं के बीच विराजते हैं भगवान जगन्नाथ. मंदिर की दीवारें और छतें देवी-देवताओं के चित्रों से सजी हुई हैं.
अब ज़रा बचपने को याद कीजिए. याद कीजिए गर्मी की छुट्टियों में नानी-बुआ के घर जाना. कुछ वैसे ही आषाढ़ यानी जून-जुलाई के महीने में जगन्नाथ, बलभद्र, और सुभद्रा भी भव्य रथों पर विराजते हैं और अपनी बुआ के घर, गुंडीचा मंदिर, तक जाते हैं.
रथ यात्रा जगन्नाथ मंदिर की वो सांस्कृतिक विरासत है, जो अब समूचे विश्व में जानी जाती है. हर साल दुनिया भर से लाखों तीर्थयात्रियों और सैलानी आते हैं. ये हिन्दू धर्म से इतर लोगों के लिए भी विशेष अवसर होता है, क्योंकि जो मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते, वो भी यात्रा का हिस्सा बन सकते है. इस यात्रा में तीन रथ होते हैं. श्री जगन्नाथ के रथ का नाम नंदीघोष है. तीनों रथों में सबसे बड़ा और सबसे ज्यादा चक्के इसी में होते हैं. ये रथ सुदर्शन चक्र के पहिये से ढका हुआ होता है.
फिर आता है बलभद्र का रथ. तालध्वज नाम के इस रथ की बनावट और पहिये भी कमोबेश नंदीघोष जैसे ही होते हैं, बस आकार कुछ कम होता है. सुभद्रा 12 पहियों वाले पद्मध्वज रथ में विराजती है. आम बोलचाल में इसे देवदलना कहते है. डेढ़ हफ्ते का ये कार्यक्रम आषाढ़ के शुक्लपक्ष की द्वितीया से शुरू होता है.

इससे ठीक पंद्रह दिन पहले स्नान पूर्णिमा के बाद भगवान जगन्नाथ एकांतवास में चले जाते हैं, जिसे अनासर काल कहते हैं. मान्यता ये है कि इस दिन 108 घड़े पानी से स्नान करने के बाद भगवान बीमार पड़ जाते हैं. इस पखवाड़े में वो किसी को दर्शन नहीं देते हैं. उनका औषधीय उपचार भी किया जाता है. उन्हें फुलौरी का तेल लगाया जाता है. इस दौरान मंदिर के कपाट बंद रहते हैं. अनासर काल के बाद भगवान स्वस्थ होकर भक्तों को दर्शन देते हैं, जिसे नब जोबाना कहते हैं. इसके ठीक अगले दिन भगवान रथ यात्रा के लिए तैयार होते हैं.
रथ यात्रा से जुड़ी एक प्रचलित मान्यता है. पुरी के एक राजा थे पुरुषोत्तम देव. दक्षिण में कांची के राजा की बेटी थी पद्मावती. पुरुषोत्तम देव पद्मावती से शादी करना चाहते थे. लेकिन कांची के राजा ने इस रिश्ते से ये कहते हुए इनकार कर दिया, कि पुरी के राजा रथों के सामने झाड़ू से रास्ता साफ करते हैं. क्रोधित होकर, पुरुषोत्तम देव ने युद्ध छेड़ दिया. पुरुषोत्तम जीते और पद्मावती के साथ लौटे. आज भी, पुरी के नामित राजा रथ यात्रा में सोने की झाड़ू लगाते हैं. क्या राजा क्या कबीले, जगन्नाथ के सामने सब एक नजर आते हैं.
मंदिर का संबंध आदिवासी परंपराओं से विशेष रूप से जुड़ता है. मंदिर के सेवक दैतापतियों का दावा है कि वो खुद आदिवासी हैं. मंदिर के कई रीति-रिवाज भी जनजातियों के विश्वासों से प्रभावित हैं. दीना कृष्ण जोशी के लेख लॉर्ड जगन्नाथ : दी ट्राइबल डाइटी से भी ऐसे किस्से सामने आते हैं. जगन्नाथ को नीला माधब के रूप में सावार कबीले के राजा विस्वावसु पूजते थे. मंदिर के पुजारी भी आदिवासी समुदाय से आते हैं. तीनों मूर्तियां भी लकड़ी की बनी हुई हैं. और यहां की प्रसादम परंपरा में भी सबको एक समान दर्ज़ा दिया जाता है.
झंडे का रहस्यइन सब जानकारियों के बीच मंदिर से जुड़े कुछ कौतूहल के विषय भी सामने आते हैं. हर रोज एक आदमी बिना किसी सुरक्षा सामान के मंदिर के शिखर पर चढ़ता है और इसका ध्वज बदलता है. अमूमन जिस दिशा में हवा चल रही हो, झंडे उसी दिशा में लहराते नजर आते हैं. लेकिन जगन्नाथ मंदिर की पताका हवा की विपरीत दिशा में लहराती है. अगला कौतुहल इस मंदिर के सबसे ऊपर लगा सुदर्शन चक्र है. एक टन से ज्यादा वजन का ये चक्र हर कोण से समान दिखाई देता है.
इसके अलावा मंदिर की वास्तु कुछ ऐसी है कि यहां धूप की परछाई भी नहीं दिखती. एक तरफ आदिवासी परम्पराएं हैं, तो राजा जैसे ठाट बाट भी हैं. वास्तु की भव्यता है, तो बारीक कलाकृतियां भी है. जगन्नाथ मंदिर और रथ यात्रा भारत की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत हैं.
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