The Lallantop

जजों की नियुक्ति में किसकी चलेगी सुप्रीम कोर्ट या सरकार की?

कौन जज बने और कौन नहीं, इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट और सरकार के बीच कहां बात फंसी है?

post-main-image
सांकेतिक फोटो (इंडिया टुडे)

तीन पहियों वाली एक गाड़ी की कल्पना कीजिए. रिक्शा, ट्राईसाइकिल या जो भी आपके दिमाग में आए. अब सोचिये कि इस गाड़ी के दो पहिए अलग-अलग दिशाओं में चलना चाहें, तो क्या होगा? गाड़ी चल नहीं पाएगी. ज़्यादा ज़ोर लगाएंगे तो पलट भी सकती है. कोई और गाड़ी होती, तो हम इस उदाहरण से आपका वक्त बर्बाद नहीं करते, लेकिन इस गाड़ी पर 140 करोड़ से भी ज़्यादा लोग सवार हैं. हम भारत की बात कर रहे हैं, जिसमें तंत्र के तीन पहियों में से दो आमने-सामने हैं. सारी लड़ाई इस बात की है, कि देश की सबसे ताकतवर अदालतों में जजों को नियुक्ति करते वक्त चलेगी किसकी. सरकार के पास चुनावी जीत से अर्जित जनमत है, संसद में कानून बनाने लायक संख्याबल है.

लेकिन सुप्रीम कोर्ट के पास संविधान से मिली वो ताकत है कि वो कानून को पलट दे, खारिज कर दे. इसीलिए कोलेजियम सिस्टम को लेकर बहस इतने ऊंचे स्तर पर चल रही है. कानून मंत्री किरेन रिजिजू नियमित रूप से कोलेजियम सिस्टम पर सवाल उठा रहे हैं. और दूसरी तरफ से कभी मौजूदा CJI तो कभी पूर्व सीजेआई कोलेजियम का बचाव कर रहे हैं. दोनों तरफ से दिये जा रहे तर्कों के बीच देश की सबसे ताकतवर अदालतों में नियुक्ति अधर में है. आज तो सुप्रीम कोर्ट ने पूछ भी लिया कि क्या सरकार इस बात से खफा है कि  National Judicial Appointments Commission कानून खारिज हुआ? क्या इसलिए कोलेजियम द्वारा भेजे गए नामों पर सरकार अपनी सहमति नहीं दे रही?

जजों की नियुक्ति को लेकर न्यायपालिका और सरकार के बीच गतिरोध को इतने स्पष्ट शब्दों में कम ही बार रखा गया है. 2014 में चुनाव जीतकर भाजपा गठबंधन ने सरकार बनाई और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने. अगस्त में NJAC एक्ट पास हो गया, जिसके तहत एक आयोग का गठन होता, जो हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति करता. इसके लिए भारत के संविधान में संशोधन किया गया था. लेकिन अक्टूबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को पलट दिया और जजों की नियुक्ति पुराने तरीके से होने लगी. ये पहले भी होता था कि कोलेजियम से भेजे गए नामों को सरकार स्वीकार न करे. लेकिन अगस्त 2014 से अक्टूबर 2015 तक की घटनाओं के संदर्भ में कोलेजियम और सरकार के बीच असहमति अलग से रेखांकित होने लगी. और अब आ रहे हैं बयान पर बयान.

जिस देश में सरपंच कौन बने, इसे लेकर मारपीट से लेकर हत्या तक हो सकती है, उस देश में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जैसी ताकतवर अदालतों में नियुक्ति को लेकर प्रतिस्पर्धा या खींचतान नहीं होगी, ये अपेक्षा करना बेमानी है. सवाल बस इतना है कि क्या प्रतिस्पर्धा एक स्वस्थ माहौल में हो रही है और क्या प्रतिस्पर्धा में शामिल पक्षों की नीयत पाक-साफ है?
आज सुप्रीम कोर्ट में एडवोकेट असोसिएशन बेंगलुरु की तरफ से लगाई गई एक कंटेम्प्ट पिटीशन पर सुनवाई चल रही थी. माने ऐसी याचिका, जिसके तहत अवमानना की कार्रवाई की मांग की गई हो. अवमानना, सुप्रीम कोर्ट के हुक्म की और इल्ज़ाम लगाया गया था भारत सरकार पर. इस याचिका में कहा गया कि केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम द्वारा भेजे गए 11 नामों को स्वीकार न करके सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश की अवहेलना की है, जिसमें कहा गया था कि सरकार को कोलेजियम द्वारा भेजे गए नामों पर 3 से 4 हफ्तों के भीतर कार्यवाही पूरी करनी होगी.

2021 में लगी इस याचिका की आज तारीख लगी थी. और सुनवाई कर रहे थे जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस ए एस ओक. सरकार की तरफ से उसके सबसे बड़े वकील पेश हुए थे - अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमानी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता. इन दोनों की मौजूदगी में सुप्रीम कोर्ट ने साफ साफ शब्दों ने कानून मंत्री किरेन रिजिजू के बयानों पर नाराज़गी जताई.

क्या कहा था रिजिजू ने?

25 नवंबर के रोज़ कानून मंत्री एक निजी समाचार चैनल के कार्यक्रम में शरीक हुए. और बोले,

''अगर आप सरकार से ये अपेक्षा करते हैं कि वो किसी जज के नाम को सिर्फ इसलिए स्वीकर कर ले क्योंकि कोलेजियम ने उसकी अनुशंसा की है, तो फिर सरकार की भूमिका कहां बचेगी?...ये नहीं कहा जाना चाहिए कि सरकार (कोलेजियम द्वारा भेजे गए नामों की) फाइल पर बैठी रहती है. आप फाइलें सरकार को भेज ही क्यों रहे हैं, आप खुद ही नियुक्ति कर लीजीए. सिस्टम इस तरह काम नहीं कर सकता. कार्यपालिका और न्यायपालिका को साथ काम करके देश-सेवा करनी होती है.''

किरेन की इन टिप्पणियों पर सुप्रीम कोर्ट का ध्यान जाना तो लाज़मी था. लेकिन बात इसलिए बड़ी हो गई, क्योंकि किरेन ने कोलेजियम को ''एलियन टू कॉन्सटीट्यूशन'' कह दिया. माने कोलेजियम की व्यवस्था संविधान के लिए वैसी ही है, जैसे कोई अजनबी. इशारों इशारों में मंत्रीजी ने कोलेजियम की नींव पर चोट कर दी थी.  

किरेन ने अपनी बात में ये जोड़ा था कि सरकार कोलेजियम सिस्टम का सम्मान करती है और तब तक करती रहेगी, जब तक इसकी जगह कोई बेहतर सिस्टम नहीं आ जाता. लेकिन ''एलियन टू कॉन्सटीट्यूशन'' और ''खुद ही नियुक्ति कर लीजिये'' जैसी बातों को सुप्रीम कोर्ट की शक्तियों और विवेक पर सवाल की तरह देखा गया. क्योंकि जैसा कि हमने बताया, अगर SC कोई फैसला दे दे, तो उसका वज़न कानून जितना ही होता है, भले वह बात संविधान में अलग से न लिखी हो. और कोलेजियम की व्यवस्था SC के फैसलों से ही आती है. संभवतः इसीलिए प्रायः किसी बयान पर प्रतिक्रिया न देने वाले जज साहिबान ने आज भरी अदालत में मंत्रीजी की बातों पर नाराज़गी ज़ाहिर की.

आज की सुनवाई का ब्योरा हमने कानूनी मामलों पर रिपोर्टिंग करने वाली वेबसाइट लाइव लॉ की रिपोर्ट से लिया है. सुनवाई के दौरान वरिष्ठ वकील विकास सिंह ने रिजिजू की''आप ही नियुक्ति कर लीजिए'' वाली टिप्पणी का ज़िक्र किया. इसपर जस्टिस कौल ने कहा,

''ऐसा नहीं होना चाहिए था. मिस्टर अटॉर्नी जनरल, हमने तमाम मीडिया रिपोर्ट्स को अनदेखा किया, लेकिन ये टिप्पणी एक ऊंचे पद पर आसीन शख्स की ओर से आई है. हम इससे ज़्यादा कुछ नहीं कहना चाहते.''

इसपर सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बेंच से आग्रह किया कि मीडिया रिपोर्ट्स पर राय कायम न की जाए. तब जस्टिस कौल ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा,

''वो एक इंटरव्यू है. आप एक इंटरव्यू के दौरान जो कहते हैं, उसे नकारना मुश्किल हो जाता है. हम कुछ नहीं कहना चाहते. बस ये चाहते हैं कि अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल अपने दायित्य का निर्वाह करते हुए सरकार को सलाह दें. ताकि इस अदालत द्वारा स्थापित कानून का पालन हो.''

सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणियों में ये भी स्थापित करने की कोशिश की, कि न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच गतिरोध के चलते लोग अब जज ही नहीं बनना चाहते. न्यायालय ने कहा,

''हम युवाओं को जज बनने के लिए प्रेरित कर रहे हैं, लेकिन वो पूछते हैं कि इस बात की क्या गैरंटी है कि नियुक्ति समय से हो जाएगी. कई अनुशंसाएं 4 महीने से लंबित हैं. एक वकील, जिनके नाम की अनुशंसा की गई, उनका तो देहांत भी हो गया. एक वकील खुद पीछे हट गए हैं. ये हमारे लिये चिंता का विषय है कि ऐसे वकील, जो काबिल हैं, इस गतिरोध के चलते जज नहीं बनना चाहते.''

अपनी टिप्पणियों के माध्यम से कोर्ट ने एक गंभीर मसले को भी उठाया. बेंच ने कहा,  हमें ऐसा लगता है कि नामों को लंबित रखकर एक तरह से लोगों पर दबाव डाला जा रहा है कि वो स्वयं अपना नाम वापस ले लें. कभी कभी सरकार भेजी गई लिस्ट में से किसी को चुनती है, किसी को नहीं. इससे सीनियॉरिटी पर असर पड़ता है.

ये सारी टिप्पणियां अपने आप में गंभीर हैं. लेकिन सबसे गंभीर था जस्टिस कौल का एक सवाल जिसमें उन्होंने पूछा कि क्या सरकार इसलिए खफा है कि NJAC को अदालत से हरी झंडी नहीं मिली? क्या इसलिए कोलेजियम द्वारा भेजे गए नामों को आगे नहीं बढ़ाया जा रहा?

इन सारी टिप्पणियों पर अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमानी ने बेंच से कहा कि उन्होंने सचिव स्तर के अधिकारियों से चर्चा की है और वो गतिरोध दूर करने के प्रयास में लगे रहेंगे.

चलते चलते आपको संक्षेप में ये बता दें कि कोलेजियम सिस्टम है क्या. जवाब ये रहा - कोलेजियम के ज़रिए भारत की सभी हाईकोर्ट्स और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति और ट्रांसफर किए जाते हैं. दोनों तरह की अदालतों में अपने कोलेजियम होते हैं. सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम में भारत के मुख्य न्यायाधीश माने CJI के साथ उनके बाद कोर्ट के चार वरिष्ठतम जज बैठते हैं. वहीं हाईकोर्ट के कोलेजियम में संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश माने चीफ जस्टिस के साथ उनके बाद के दो वरिष्ठतम जज बैठते हैं.

कोलेजियम की व्यवस्था संविधान में नहीं दी गई थी. लेकिन जजेस केस कहलाने वाले मामलों में SC ने संविधान की जो व्याख्या की, उससे कोलेजियम की संरचना और अधिकार तय हुए. इसीलिये दोनों बातें सही हैं - ये कि कोलेजियम संविधान में नहीं है, और ये भी, कि कोलेजियम संविधान से निकला है, क्योंकि संविधान में निहित प्रावधानों की व्याख्या का अधिकार सुप्रीम कोर्ट के पास है.

इन दो बातों में विरोधाभास नज़र आ सकता है, इसीलिए गतिरोध भी बना हुआ है. क्योंकि कोलेजियम की व्यवस्था में सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट के पास अधिकार तो हैं, लेकिन जवाबदेही तय करने का स्पष्ट इंतज़ाम नहीं है. जब कोलेजियम किसी वकील को जज बनाने की अनुशंसा करता है, तब केंद्र सरकार संबंधित व्यक्ति को लेकर IB के माध्यम से एक इनक्वायरी कराती है. कभी कभी केंद्र अपनी असहमति दर्ज कराता है, लेकिन अगर कोलेजियम दोबारा अनुशंसा भेज दे, तो सरकार को उसे स्वीकार करना ही होता है.

वीडियो: देश के सबसे ताकतवर जज की नियुक्ति का अधिकार SC को या सरकार को?