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इस जंग में जीत के बाद लाहौर में दो महीने तक मनी दिवाली

साल 1813 में सिंधु नदी के किनारे हुई थी अटक की लड़ाई, जिसमें सिख सेना ने अफ़ग़ान सेना को हरा दिया था

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अटक में मिली जीत दुर्रानी सल्तनत के खिलाफ मिली पहली बड़ी जीत थी (तस्वीर: Wikimedia Coomons)

कश्मीर, दो न्यूक्लियर पावर देशों के बीच विवाद की सबसे बड़ी वजह. जेरुसलम के बाद शायद दुनिया में सबसे विवादित जमीन का टुकड़ा. कश्मीर के लिए भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मकश का इतिहास सिर्फ 75 साल पुराना है. क्योंकि पाकिस्तान वजूद में आया ही तब था. लेकिन कश्मीर को लेकर अलग-अलग ताकतों में जद्दोजहद सदियों से चली आई है. 18वीं सदी के मध्य और 19वीं सदी की शुरुआत में यही कश्मीर अफ़ग़ानिस्तान के दुर्रानी शासकों (Durrani Empire) और सिख साम्राज्य (Sikh Empire) के बीच तकरार की एक बड़ी वजह था. इसी के चक्कर में साल 1813 में सिखों और दुर्रानियों के बीच हुई थी एक जंग. जिसमें भाग लिया था हरी सिंह नलवा (Hari Singh Nalwa) ने.

जहां से फेमस हुई थी वो कहावत “सो जा बेटा वरना हरी सिंह नलवा आ जाएगा.” और इस जंग में मिली जीत के बाद सिख फौज के हौंसले इतने बढ़ गए कि न सिर्फ उन्होंने दुर्रानियों से कश्मीर को अपने कब्ज़े में किया, बल्कि सिख फौज दुर्रानी सल्तनत की सरहद तक पहुंच गई.

नादिर शाह और अहमद शाह अब्दाली 

18 वीं सदी के मध्य तक अफ़ग़ानिस्तान भारत का हिस्सा हुआ करता था. 1735 में नादिर शाह के आक्रमण के बाद इस स्थिति में चेंज आया. नादिर शाह ने न सिर्फ दिल्ली को लूटा बल्कि अफ़ग़ानिस्तान के इलाके पर भी कब्ज़ा कर लिया. दौरान अहमद शाह अब्दाली भी नादिर शाह के साथ आए थे . दिल्ली पर कब्ज़े के बाद अब्दाली कुछ दिन दिल्ली के लाल किले में रुके. एक रोज़ जब अब्दाली दीवान-ए-आम के आगे खड़े थे, तो आसफ जाह की उन पर नजर पड़ी. आसफ जाह के बारे में मशहूर था कि वो चेहरा देखकर किस्मत बता देते थे. उन्होंने अब्दाली को देखकर कहा, “तुम एक दिन बादशाह बनोगे ”.

नादिर शाह और अहमद शाह अब्दाली (तस्वीर: Wikimedia Commons)

ये बात नादिर शाह तक पहुंची. उन्होंने अब्दाली को अपने पास बुलाया. और अपना खंजर निकालकर अब्दाली के कान का एक हिस्सा काट डाला. इसके बाद नादिर शाह ने अब्दाली से कहा, “जब तुम बादशाह बनोगे, ये घाव तुम्हें मेरी याद दिलाता रहेगा”

साल 1747 में जब नादिर शाह की हत्या हुई, अब्दाली को नादिर शाह की ये बात याद थी. नादिर शाह का खून उनके ही अपने गार्ड्स ने कर डाला था. अब्दाली जब तक नादिर शाह की मदद को पहुंचे, उनका खून हो चुका था. किस्सा मशहूर है कि अब्दाली ने नादिर शाह के हाथ में बंधा कोहिनूर हीरा उतारकर खुद पहन लिया था. और यहीं से तय हो गया था कि अब्दालियों का अगला शासक कौन होगा.

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नादिर शाह की हत्या के बाद अहमद शाह कंधार पहुंचे. और पश्तून कबीलों के सहयोग से 1747 में खुद को अफ़ग़ानिस्तान का राजा घोषित कर दिया. इसी के साथ उन्होंने खुद को शाह, दुर्र-ए-दुर्रानी के टाइटल से नावाजा. दुर्र-ए-दुर्रानी का मतलब मोतियों में सबसे अनमोल मोती. यहीं से दुर्रानी वंश के शासन की शुरुआत हुई.

महाराजा रणजीत सिंह की पहली बड़ी जीत 

राजा बनते ही अहमद शाह ने अपने राज्य का विस्तार करना शुरू किया और उनकी नजर गई पड़ोस में, यानी उत्तर भारत. इसके बाद दुर्रानी सल्तनत और सिख सरदारों के बीच जंग का एक लम्बा दौर शुरू हुआ. जिसमें कभी सिखों को जीत मिली तो कभी दुर्रानियों को. ये सिलसिला दुर्रानी वंश के दूसरे शासक तैमूर शाह के शासन में भी जारी रहा. इस दौर में दुर्रानियों ने मुल्तान तक अपना कब्ज़ा जमा लिया था. तैमूर शाह दुर्रानी के तीन बेटे हुए, शाह शुजा, ज़मन शाह और महमूद शाह.

सिख साम्राज्य की स्थापना करने वाले महाराजा रणजीत सिंह (तस्वीर: Wikimedia Commons)

1793 में तैमूर शाह की मौत के बाद ज़मन शाह को कंधार की गद्दी मिली. ज़मन शाह ने भी अपने पुरखों की तरह पंजाब पर आक्रमण जारी रखा.

साल 1797 की बात है. रणजीत सिंह सिर्फ 17 साल के थे, जब ज़मन शाह ने 12 हजार की फौज के साथ पंजाब पर आक्रमण किया. लेकिन वो पंजाब को हथियाने में सफल नहीं हो पाए. साल 1798 में ज़मन शाह ने एक और बार अपनी सेना भेजी. अबकी बार रणजीत सिंह ने सेना को लाहौर में घुसने दिया. और बाहर से डेरा डालकर उनकी रसद की सप्लाई लाइंस काट डालीं. इस दौरान रणजीत सिंह ने खेतों को जलाकर लाहौर में अनाज के सारे भण्डार नष्ट कर डाले. जिसके बाद अफ़ग़ान फौज को वापिस लौटना पड़ा.

इधर जमन शाह पंजाब को कब्ज़े में करने की सोच रहे थे, वहीं कंधार में उन्हें अपनी गद्दी बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा था. ज़मन शाह के गद्दी पर बैठते ही कई अफ़ग़ानी कबीले उनके विद्रोह में खड़े हो गए थे. इनमें से एक कबीले का नाम था बरक़ज़ई. इस विद्रोह से निपटने के लिए ज़मन शाह ने बरक़ज़ई सरदारों का क़त्ल करवा दिया, जिसके बाद बरक़ज़ई कबीला ज़मन शाह के भाई महमूद शाह के साथ हो लिया.

बरक़ज़ई कबीले की मदद से महमूद शाह ने ज़मन शाह को जंग में हराया. और उनकी आंखें फोड़ दीं. इस कहानी का एक दिलचस्प पहलू ये भी है कि जब ज़मन शाह को लगा उसकी हार निश्चित है तो उसने कोहिनूर हीरे को एक दीवार में छिपा दिया, जिसे कई साल बाद दोबारा खोजा गया.

जिस व्यक्ति ने कोहिनूर को दोबारा खोजा था, उसका नाम था शाह शुजा दुर्रानी. महमूद और ज़मन शाह का तीसरा भाई. शाह शुजा दुर्रानी ने 1803 में महमूद शाह को एक जंग में हराया और कंधार की गद्दी पर कब्जा कर लिया. 1809 में दोनों भाइयों में एक और बार जंग हुई. अबकी बार  शाह सुजा को कश्मीर में शरण लेनी पड़ी. और महमूद शाह दोबारा कंधार के शासक बन गए. 

कश्मीर पर चढ़ाई की तैयारी 

इसी दौर में महाराजा रणजीत सिंह अपने राज्य की सीमाएं बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे. 1811 में उन्होंने राजौरी पर हमला कर उसे अपने अधीन कर लिया. जब ये खबर कंधार तक पहुंची तो महमूद शाह ने काबुल के वज़ीर फ़तेह खान को निर्देश दिया कि वो कश्मीर पर हमले की तैयारी करे. इसके दो कारण थे. कश्मीर 1752 से दुर्रानियों के कब्ज़े में था. लेकिन 1810 आते-आते वहां के वज़ीर अता मुहम्मद खान ने विद्रोह कर दिया था. इसके अलावा उसने महमूद शाह के भाई शाह शुजा को भी अपने यहां शरण दी थी.

महमूद शाह और ज़मन शाह (तस्वीर: Wikimedia Commons)

कश्मीर पर हमला करना दुर्रानियों के लिए आसान न था. पड़ोस में पंजाब था. जहां सिखों का राज्य था. और दोनों राज्यों के बीच पुरानी अदावत थी. 1812 में महराजा रणजीत सिंह और फ़तेह खान के बीच एक संधि हुई. तय हुआ कि दुर्रानी फौज कश्मीर पर हमला करेगी. और सिख चुप रहेंगे. इस हमले में एक छोटी सी सिख टुकड़ी भी शामिल होगी. और बदले में लूट का जितना माल होगा, उसका एक तिहाई हिस्सा सिखों को मिलेगा. 

झेलम के पास दोनों सेनाओं ने कश्मीर में एंट्री की. लेकिन पीर पंजाल पहुंचते-पहुंचते भारी बर्फ़बारी होने लगी थी. फ़तेह खान के ट्रूप्स को बर्फीली पहाड़ियों का अनुभव था. इसलिए उसने जल्दी-जल्दी अपनी टुकड़ी को घाटी तक पहुंचा दिया. दूसरी तरफ़ सिख सेना का नेतृत्व कर रहे थे दीवान मोखम चंद. उनकी टुकड़ी को बर्फ़ का रास्ता क्रॉस करने में दिक्कत आ रही थी. इसलिए उन्होंने राजौरी के राजा से मुलाक़ात की. और उनको पेशकश की कि अगर वो कश्मीर घाटी तक पहुंचने का एक छोटा रास्ता ढूंढने में मदद करें तो उन्होंने एक बड़ी जागीर दी जाएगी. इसके बाद जोध सिंह कलसिया और निहाल सिंह अट्टारी एक टुकड़ी को लेकर घाटी में प्रवेश कर गए. 

दोनों सेनाएं कश्मीर पहुंची. कश्मीर के वज़ीर अता मुहम्मद खान ने पहले ही हथियार डाल दिए थे. ऐन मौके पर फ़तेह खान ने समझौते की शर्तों से इनकार कर दिया. बोला, हम पहले आए हैं, इसलिए उसने सिखों को लूट का एक भी हिस्सा देने से इनकार कर दिया.

अटक की जंग 

मोखम चंद के पास छोटी सी टुकड़ी थी. वो कश्मीर में फ़तेह खान का सामना नहीं कर सकते थे. लेकिन उन्होंने बदला लेने के लिए एक काम किया. शाह शुजा, जो महमूद शाह का दुश्मन था, उसे वो लोग अपने साथ लाहौर ले गए. लाहौर में महाराजा रणजीत सिंह को जब पता चला की दुर्रानी अपने वादे से पलट गाए हैं तो उन्होंने एक नई चाल चली. अटक का किला सिंधु नदी के किनारे पर पड़ता था. इस किले को अकबर ने बनाया था. और इस पर दुर्रानियों का कब्जा था. इस किले की अहमियत ये थी कि इस पर अधिकार किए बिना आप सिंधु नदी पार नहीं कर सकते थे.

हरी सिंह नलवा (तस्वीर: Wikimedia Commons)

अटक किले का गवर्नर कश्मीर के वज़ीर मुहम्मद खान का भाई था. महाराजा रणजीत सिंह ने उससे हाथ मिलाते हुए अटक के किले पर कब्जा कर लिया. रणजीत सिंह को अहसास था कि दुर्रानी इस पर दोबारा कब्जा करने के लिए अपनी सेना भेजेंगे. इसलिए उन्होंने सिख सेना के सबसे पराक्रमी कमांडर हरी नलवा को किले की सुरक्षा के लिए तैनात किया. 

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अटक पर कब्ज़े की खबर जैसे ही कंधार पहुंची, फ़तेह खान कश्मीर से अपनी सेना लेकर रवाना हो गए. अप्रैल 1813 के आसपास ये सब हो रहा था. फ़तेह खान और अफ़ग़ान फौज से निपटने के लिए महाराजा रजीत सिंह ने दीवान मोखम चंद को एक घुड़सवार टुकड़ी के साथ भेजा. पीछे पीछे आर्टिलरी और पैदल फौज भी पहुंची. दोनों सेनाओं से एक दूसरे से 13 किलोमीटर की दूरी पर डेरा डाला हुआ था. जून के महीने में दोनों खेमों के बीच कुछ छिटपुट झड़पें हुई. लेकिन आक्रमण करने को कोई तैयार नहीं हुआ. 12 जुलाई आते-आते अफ़ग़ान सेना की रसद ख़त्म होने लगी थी. दीवान मोखम चंद को जब लगा कि अब युद्ध निश्चित है तो वो 8 किलोमीटर की दूरी पार कर हैदरु पहंच गए. इसके बाद 13 जुलाई यानी आज ही के दिन दोनों सेनाओं की आपस में भिड़ंत हुई. 

जंग में क्या हुआ?

दीवान मोखम चंद ने अपनी घुड़सवार टुकड़ी को चार हिस्सों में बांटा. इनमें से एक हिस्से का नेतृत्व मोखम चंद खुद और दूसरी का नेतृत्व हरी सिंह नलवा कर रहे थे. 
अफ़ग़ान घुड़सवार फौज भी दो हिस्सों में बंटी हुई थी. जिन्हें फतेह खान और उनका भाई दोस्त मुहम्मद लीड कर रहे थे. फ़तेह खान ने अपनी घुड़सवार फौज को आगे भेजा लेकिन सिख आर्टिलरी की गोलाबारी ने उन्हें पीछे खदेड़ दिया. इसके बाद दोस्त मुहमद अपनी टुकड़ी के साथ आगे बड़े. उन्होंने सिख आर्मी के एक विंग को तहस-नहस करते हुए उनकी आर्टिलरी पर कब्ज़ा कर लिया.

अटक का नक्शा और जंग की तस्वीर (तस्वीर: Wikimedia Commons)

आर्टिलरी पर कब्ज़ा होते ही लगने लगा था कि सिख युद्ध हार रहे हैं. तब दीवान मोखम चंद खुद एक हाथ पर सवार हुए. और अपनी घुड़सवार टुकड़ी के साथ उन्होंने अफ़ग़ान कैम्प पर धावा बोल दिया. इस बीच अफ़ग़ान कैम्प में अफवाह फ़ैल गई कि दोस्त मुहमद खान की मौत हो गई है. भाई की मौत के बारे में सुनते ही फ़तेह खान के हौंसले टूट गए और वो जंग से पीछे हैट गए. और इसी के साथ अटक की जंग में सिख फौज के जीत हो गई. सिखों के लिए दुर्रानी सल्तनत के ऊपर मिली ये अब तक की सबसे बड़ी जीत थी. 

महाराजा रणजीत सिंह तक ये खबर पहुंची तो पूरे पंजाब में जश्न का माहौल हो गया. कहते हैं रणजीत सिंह इस जीत से इतने खुश थे कि उन्हों पूरे राज्य को रौशन करने का आदेश दिया. अमृतसर, लाहौर सहित सिख साम्राज्य के सभी बड़े शहरों को अगले दो महीने तक रौशन रखा गया. इसके बाद साल 1814 में महाराजा रणजीत सिंह ने एक बार फिर कश्मीर को सिख साम्राज्य में मिलाने की कोशिश की. लेकिन वो इसमें सफल नहीं हो पाए.

1818 में उन्होंने मुल्तान को अपने कब्ज़े में कर पंजाब से अफ़ग़ान सल्तनत का सफाया कर दिया. और जुलाई 1818 में कश्मीर को भी अपने राज्य में मिला लिया. 1819 में पेशावर पर भी सिख साम्राज्य का कब्ज़ा हो गया. 1837 में जमरूद की जंग में अफ़ग़ान फौज ने पेशावर पर कब्ज़े की दुबारा कोशिश की. लेकिन वो इसमें सफल नहीं हो पाए और उन्होंने पंजाब की तरफ फिर कभी मुंह मोड़ कर नहीं देखा. जमरूद की जंग में हरी सिंह नलवा की भी मृत्यु हुई थी.

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