बादशाह जलालुद्दीन अकबर के वक्त में एक सूबेदार हुआ करते थे. नाम था शेख़ फ़रीद बुख़ारी. बाद में ये जहांगीर के ख़ज़ांची भी रहे. इन्होंने ही बाद में फ़रीदाबाद शहर बसाया था. साल 1600 में शेख़ फ़रीद को अकबर ने एक खास काम से बुरहानपुर भेजा. वहां से शेख़ फ़रीद ने बादशाह के नाम एक संदेश भेजा. जिसकी समरी कुछ इस प्रकार थी,
असीरगढ़: इस किले का अकबर और अश्वत्थामा दोनों से रिश्ता है
असीरगढ़ का किला मुग़ल काल में दक्कन की चाबी समझा जाता था

“जनाब, ये किला है या क्या है. ऐसा किला तो हमने कभी देखा ही नहीं. फ़ौज कितनी ही देर घेराबंदी कर ले, सिर्फ़ बादशाह की अच्छी क़िस्मत ही इसे हमारे कब्जे में ला सकती है. हमारे आदमी, जो ईरान और रोम के किले देखकर आए हैं. उन्होंने भी ऐसा किला पहले कभी नहीं देखा. पहले तो ये ऊंची पहाड़ी पर बना है. उसके बाद इसके आगे तीन और किले हैं. ना आने का रास्ता दिखाई दे रहा है, ना अंदर जाने का.
आगे सपाट मैदान है. कहीं जंगल भी नहीं कि छिप सकें. और खबर मिली है कि अंदर 500 मन अफ़ीम का ढेर है. तो अनाज कितना होगा, इसका अंदाज़ा आप खुद ही लगा सकते हैं. किले पर 1300 के आसपास छोटी-बड़ी तोपें हैं. उनसे कोई बचकर किले के नज़दीक पहुंच भी जाए. तो किले की दीवार पर बड़े-बड़े कढ़ाहे बनाए गए हैं. जिसमें 30 मन तेल गरम कर हमला करने वालों पर फेंका जाता है.”
संदेश मिला तो अकबर के जनरल डींग हांकने लगे, जनाब हमें मौक़ा दीजिए. हम किले को गिराएंगे. मौक़ा मिला और ऐसा मिला कि 11 महीने तक सेना किले के बाहर ही खड़ी रह गई. शाही सेना को लगा कभी तो अनाज ख़त्म होगा. लेकिन हुआ नहीं. ऐसा क्यों? ये हम आपको बाद में बताएंगे. बहरहाल 11 महीने की सीज के बाद अकबर को एक बात समझ में आ गई. यहां दंड से काम नहीं चलेगा. कोई और उपाय लगाना पड़ेगा.
दक्कन की चाबी
शुरुआत ज़ौक़ के एक शेर से,
गरचे है मुल्क-ए-दकन में इन दिनों कद्र-ए सुख़न कौन जाए ज़ौक़ पर दिल्ली की गलियां छोड़कर
ज़ौक़ कह रहे हैं दक्कन (दक्षिण भारत) में इन दिनों शायरों की कद्र बढ़ गई है. लेकिन दिल्ली की गालियां छोड़कर जाने को जी नहीं करता. जिसके दरबार में कह रहे हैं वो मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र, दक्कन छोड़ो, मुकम्मल तौर पर पूरी दिल्ली का भी बादशाह नहीं रह गया है. ज़फ़र के पुरखे हिंदुस्तान पर राज करते थे. लेकिन तब भी दक्कन हिंदुस्तान में शामिल नहीं था.

इब्राहिम ज़ौक़ और बहादुर शाह ज़फ़र (तस्वीर: commons)
मध्य प्रदेश की सतपुड़ा पहाड़ियों पर असीरगढ़ का किला पड़ता है. मुग़ल काल में, ख़ासकर अकबर के जमाने में ये किला भारत को दो भागो में बांटता था. असीरगढ़ से दिल्ली तक हिंदुस्तान और असीरगढ़ से नीचे पूरा दक्कन. तब अगर उत्तर से दक्कन की ओर जाना हो तो असीरगढ़ के किले को पार करना ज़रूरी था. इसलिए इसे दक्कन की चाबी भी कहा जाता था. असीरगढ़ का किला पिक्चर में कैसे आया. ये समझने के लिए पहले तब की राजनीति को समझते हैं.
1577 तक मुग़ल बादशाह जलालुद्दीन अकबर ने मालवा और गुजरात पर कब्जा जमा लिया था. अगला नम्बर दक्कन का था. जहां का रास्ता खानदेश से होकर जाता था. खानदेश यानी आज के हिसाब से महाराष्ट्र में धुले और जलगांव डिस्ट्रिक्ट. खानदेश के अंतर्गत आता था बुरहानपुर. और बुरहानपुर से कुछ मील की दूरी पर था असीरगढ़ का किला. खानदेश के राजा का नाम था अली खान. अकबर ने उन्हें मुग़ल सल्तनत में जुड़ने का संदेश भेजा तो अली खान ने साफ़ इनकार कर दिया. तब मालवा से एक टुकड़ी खानदेश पहुंची.
अकबर का दक्कन कैम्पेन
खानदेश अपने आप में छोटा राज्य था. लेकिन वो दक्कन की बाकी रियासतों से जुड़ा था. 1518 तक दक्कन में बहमनी सल्तनत का राज था. लेकिन 1518 में विघटन हुआ और दक्कन 6 रियासतों में बंट गया. अहमदनगर, गोलकोंडा, बिदार, बेरार, बीजापुर और विजय नगर राज्य. एक ट्रिविया ये कि विजयनगर के राजा कृष्ण देव राय का भी आज ही के दिन जन्म हुआ था यानी 17 जनवरी 1471 को.

मुग़ल बादशाह अकबर और बेटा मुराद मिर्ज़ा (तस्वीर: commons)
अकबर ने जब खानदेश पर नज़र डाली तब दक्कन की रियासतें आपसी झगड़े से जूझ रही थी. 1565 में विजयनगर रियासत का अंत भी हो गया था. इसलिए खानदेश के राजा अली खान को उम्मीद नहीं थी कि दक्कन से कोई मदद आएगी. मुग़ल फ़ौज के डर से अली खान ने अकबर की सरपरस्ती स्वीकार कर ली. इसके बाद अकबर ने बेरार पर हमला बोला. तब अली खान ने पाला बदल लिया. उन्होंने अहमदनगर का साथ दिया और मुग़लों के ख़िलाफ़ जंग लड़ी. मुग़ल सेना को पीछे हटना पड़ा.
साल 1591 में फिर हालात बदले. अकबर किसी भी तरह दक्कन में एंट्री चाहते थे. उन्होंने दक्कन की सभी रियासतों को संदेश भेजा कि वो मुग़लों की अधीनता स्वीकार कर लें. खानदेश एक बार फिर मुग़लों के पाले में चला गया. और अली खान को पांच हज़ारी मनसबदार बना दिया गया. लेकिन अहमदनगर इसके लिए राज़ी नहीं हुआ. तब अकबर ने दक्कन कैम्पेन के लिए मालवा में एक परमानेंट फ़ोर्स बिठा दी. इस फ़ोर्स की कमान दी गई शहज़ादे मुराद को. और उनसे कहा गया कि जैसे ही मौक़ा मिले दक्कन में दख़ल देना शुरू कर दो.
बहादुर खान की गलती
1597 में अहमदनगर और मुग़लों की बीच हुई जंग में अली खान की मृत्यु हो गई. और खानदेश की कमान सम्भाली अली खान के बेटे कद्र खान ने. बादशाह बनते ही नाम हो गया, बहादुर खान. अब इन बहादुर खान के साथ एक बड़ी दिक़्क़त थी. खानदेश में चलन था कि जब भी सत्ता पर ख़तरा मंडराए तो परिवार को असीरगढ़ के किले में भिजवा दो. वो इतना सुरक्षित था कि बादशाह मार भी दिया जाए तो बादशाह का परिवार बचा रहता.

अबुल फ़ज़ल और अकबर की मुलाक़ात (तस्वीर: Commons)
बहादुर खान ने अपनी ज़िंदगी के कुल तीस साल इसी किले में गुज़ारे थे. और उन्हें बाहर की ज़िंदगी का कोई अता-पता था नहीं. खानदेश का राजा बनते ही उनसे एक बड़ी गलती हो गई. वैसे तो छोटी ग़लतियां भी हुई, जैसे राजा बनने के बाद अकबर को कोई गिफ़्ट ना भेजना. दिल्ली दरबार में हाज़िरी ना लगाना. लेकिन सबसे बड़ी गलती हुई 1599 में. अबुल फ़ज़ल दक्कन की ओर जा रहे थे. शहज़ादे मुराद का साथ देने.
रास्ते में बुरहानपुर में उनकी मुलाक़ात हुई बहादुर खान से. यहां उन्होंने पहले तो अबुल फ़ज़ल का अभिवादन नहीं किया. जो बादशाह अकबर को रिप्रेसेंट करते थे. दूसरा उन्होंने दक्कन के कैम्पेन में जुड़ने से इनकार कर दिया. और सिर्फ़ 2 हज़ार घोड़े अबुल फ़ज़ल को दिए. अबुल फ़ज़ल पहुंचते, इससे पहले ही दक्कन में 12 मई 1599 को मुराद की मौत हो गई. बेटे की मौत से दुखी अकबर को बहादुर खान की हरकत का पता लगा तो उन्होंने सोचा ‘इसका अब कुछ करना होगा’.
वहां दक्कन में भी शाही सेना की हालत ख़राब थी. कमान अब शहज़ादे दानियाल ने सम्भाल ली थी. जनवरी 1600 में दानियाल बहादुर खान से मिलने बुरहानपुर पहुंचे. लेकिन बहादुर खान ने मिलने से मना कर दिया. उन्होंने वही किया जो उनके पुरखे करते आए थे. पहुंच गए असीरगढ़ के किले में.
किले की घेराबंदी
मुग़लों की तरफ़ से फिर शेख़ फ़रीद बुख़ारी को भेजा गया. जिसके बारे में हमने आपको शुरुआत में बताया था. बुख़ारी ने किले की खबर दी तो 8 अप्रैल 1600 को अकबर खुद बुरहानपुर पहुंचे. असीरगढ़ के किले को चारों तरफ़ से घेर लिया गया था. शाही फ़ौज सीज लगाकर बैठी थी. तब तरीक़ा यही हुआ करता था. किले पर हमला ना कर सको तो घेराबंदी कर लो. खाने की कमी होगी तो ‘मरता क्या ना करता’ वाली हालत हो जाएगी.

असीरगढ़ का किला (तस्वीर: burhanpur.nic.in)
जनवरी 1600 के अंतिम दिनों से शुरू हुई घेराबंदी दिसंबर 1600 तक पहुँच गई. सेना घेराबंदी किए बैठी रही. ना कोई बाहर आया ना कोई अंदर जा पाया. इस दौरान लगातार तोपें दागी गई. लेकिन किले को कोई असर ना हुआ. फिर एक मुग़ल जनरल ने तरकीब भिड़ाई कि एक छोटी सी सुरंग बनाकर, विस्फोट से किले को उड़ा दो. 180 मन बारूद से सुरंग में विस्फोट किया गया. लेकिन ये भी बेहासिल रहा.
दिसम्बर 1600 के रोज़ बहादुर खान अकबर के सामने पेश हुए. और अकबर से माफ़ी मांगते हुए संधि का प्रस्ताव रखा. बहादुर खान किले से क्यों निकले? इसके दो कारण बताए जाते हैं. मुग़ल इतिहासकारों के हिसाब से किले की बंद हवा में बीमारी फैलने लगी थी. सैनिक बीमार पड़े तो मजबूरी में बहादुर खान को किला छोड़ना पड़ा.
लेकिन KK बसु के आर्टिकल 'The Siege of Asir—A New Study' में इसको लेकर हमें एक और नज़रिया मिला. बसु के अनुसार अकबर को जब कोई रास्ता नज़र नहीं आया तो उन्होंने एक नई चाल चली. उन्होंने एक आदमी को बहुत सा सोना देकर किले के पास भेजा. जिसने वहां जाकर ऐसा पेश किया मानों वो मुग़लों से बचाकर खानदेश का सोना लेकर आया हो. इस आदमी को अंदर लिया गया और उसने वहां के पानी में ज़हर घोल दिया. जिसे पीकर सैनिकों की मौत हो गई. और इस तरह बहादुर खान को किले से बाहर निकलना पड़ा.
एक तीसरी थियरी भी है. जिसके अनुसार अकबर ने सोना तो भिजवाया लेकिन ज़हर मिलाने के लिए नहीं. बल्कि उन्होंने किले के पहरेदारों को घूस दी और अपनी तरफ़ मिला लिया. जिसके बाद किले की सुरक्षा कमजोर हुई. और बहादुर खान को किले से बाहर निकलना पड़ा.
किला फिर भी खाली नहीं हुआ
इनमें से जो भी सच हो, लेकिन इतना तय है कि 21 दिसम्बर को अकबर और बहादुर ख़ान की मुलाक़ात हुई. दोनों में सहमति बनी. और बहादुर खान ने अपने एक जनरल मुकर्रिब खान को वापस फ़ोर्ट में भेजा. ताकि वो लोग भी सरेंडर कर दें. मुकर्रिब पहुंचा तो किले के सरदार ने मुकर्रिब की ओर देखकर कहा, “नमकहराम तू हमारे राजा को अकबर के हाथों कैद करा आया . और अब तू हमसे किला खाली करने को कह रहा है.”

अकबर की मृत्यु के समय भारत का नक़्शा (तस्वीर: getty)
किले का सरदार और कोई नहीं मुकर्रिब के पिता याकूत खान ही थे. पिता का ये उलाहना सुन मुकर्रिब ने खुद के सीने पर कटार भोंक कर वहीं आत्महत्या कर ली. अब हालत ये थी कि किले का राजा तो अकबर के कब्जे में था. लेकिन किला अब भी शाही सेना से पार नहीं हो रहा था. अगले एक महीने तक यही हाल रहे. इस दौरान याकूब ने बहादुर खान के परिवार के कुछ लोगों को खानदेश का राजा घोषित करने की कोशिश की. लेकिन इनमें से एक भी अकबर के डर से तैयार न हुआ. अंत में याकूब ज़हर की शीशी उठाई. बोले, “खुदा से कहूंगा, यहां एक भी मर्द नहीं”. इसके पास याकूब ने ज़हर की शीशी अपने गले में उड़ेलकर आत्महत्या कर ली.
इसके बाद आज ही के दिन यानी 17 जनवरी 1601 को असीरगढ़ के किले पर अकबर का कब्जा हो गया. शुरुआत में हमने आपको बताया था कि 11 महीने सीज के बाद भी किले का राशन ख़त्म नहीं हुआ था. इसका कारण था किले की बनावट. शाही सेना अंदर दाखिल हुई तो उन्होंने पाया कि वहां अनाज का इतना भंडार था कि 11 महीने तक हज़ारों की सेना खाती रही, फिर भी अन्न का 10 प्रतिशत भी यूज़ नहीं हुआ. बाद में मुग़ल सेना के 40 हज़ार हाथी और घोड़े इस किले पर तैनात रहे और अगले एक साल तक भी वो अनाज ख़त्म नहीं हुआ. इसका कारण था खानदेश के राजाओं की तैयारी. “पुट ऑल एग्स इन वन बास्केट” वाली बात यहां लागू हो रही थी.
खानदेश के सभी राजाओं ने ये इंश्योर किया था कि असीरगढ़ का किला अभेद्य रहे. वहां दवाइयों, क़ीमती शराब, जड़ी बूटियों का अम्बार था. बारिश का पानी इकट्ठा करने के लिए जलाशय बने हुए थे. लगभग एक शहर के बराबर लोग एक बार में अंदर रह सकते थे. जब किला खाली कराया गया तो लगभग एक हफ़्ता लग गया सभी लोगों को बाहर आने में. मुग़ल इतिहासकारों के अनुसार जब तक कोई व्यक्ति असीरगढ़ के किले को खुद ना देख ले. उसे यक़ीन नहीं होगा कि यह कितना भव्य था. बादशाह अकबर जब किले में पहुंचे तो वहां धन दौलत देखकर बोले, “नामुराद ने इतना पैसा अपनी सेना को दिया होता तो आज मैं यहां पर खड़ा नहीं होता.”
असीरगढ़ में आते हैं अश्वत्थामा?
इसके बाद अकबर ने खानदेश, बेरार और अहमदनगर के कुछ इलाक़ों को मिलाकर एक नया सूबा बनाया. और शहज़ादे दानियाल को वहां का गवर्नर नियुक्त कर दिया. अकबर का दक्कन कैम्पेन सफल हो पाता. इससे पहले ही शहज़ादे सलीम ने बग़ावत कर दी. और उन्हें आगरा लौटना पड़ा. 1605 में उनकी मृत्यु हो गई.

अश्वत्थामा का मंदिर (तस्वीर: burhanpur.nic.in)
अंत में असीरगढ़ के किले से जुड़ा एक और ट्रिविया आपको बताते चलते हैं. अगर कोई असीरगढ़ के किले में जाए तो उससे जुड़ी कई सुपर नेचुरल कहानियां सुनने को मिलती हैं. जैसा कि आमतौर पर पुराने किलो के साथ होता ही है. इनमें से एक किस्सा जुड़ा है अश्वत्थामा से. महाभारत वाले अश्वत्थामा. गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र जिन्हें अमरता का वरदान मिला था. स्थानीय लोग बताते हैं कि असीरगढ़ किले के पास एक शिव मंदिर में रोज़ अश्वत्थामा पूजा करने आते हैं. इसलिए यहां हर सुबह शिवलिंग पर फूल चढ़े मिलते हैं.
अब इस बात को सही या ग़लत साबित करने का कोई तरीक़ा तो नहीं है. लेकिन असीरगढ़ और अश्वत्थामा का रिश्ता ऐतिहसिक दस्तावेज़ों में भी दर्ज़ है. आइन-ए अकबरी में असीरगढ़ किले के बारे में दर्ज़ है,
“पहले ये इलाक़ा पूरी तरह से वीरान था. सिर्फ़ चंद लोग यहां रहते थे. ये इनकी पूजा की जगह हुआ करती थी. और इसका नाम अश्वत्थामा था”