वरिष्ठ पत्रकार और लेखक माजिद शेख, पाकिस्तान के अखबार डॉन में एक किस्से का जिक्र करते हैं. साल 1948 की बात है. लन्दन में समर ओलंपिक्स चल रहे थे. भारत और पाकिस्तान की हॉकी की टीमें भी खेलने पहुंची. भारत ने गोल्ड जीता, पाकिस्तान टीम चौथे नंबर पर रही. हर मैच से पहले राष्ट्रगान गाया जाता था. लेकिन दिक्कत ये थी कि पाकिस्तान का राष्ट्रगान ‘कौमी तराना’ तब तैयार नहीं हुआ था. तो पाकिस्तान की टीम एक दूसरा गीत गाया करती थी, ‘मेरा रंग से बसंती चोला.’ वो गीत जिसे रामप्रसाद बिस्मिल ने जेल में लिखा था. बाद में ये गीत फिल्मों के जरिए भगत सिंह की पहचान बन गया.
भगत सिंह को पाकिस्तान कैसे याद करता है?
भगत सिंह- भारत के लिए हीरो और पाकिस्तान के लिए? जानिए कैसे याद करता है पाकिस्तान शहीद-ए-आजम को.
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23 मार्च, 1931 के रोज़ भगत सिंह फांसी पर चढ़े. आजादी की खातिर. हालांकि तब पाकिस्तान नहीं बना था लेकिन जैसे भगत सिंह भारत के हीरो हैं. उसी तरह पाकिस्तान के भी हीरो हैं. लेकिन क्या ये देश उन्हें हीरो मानता है? खासकर तब, जब उनकी पैदाइश उसी देश में हुई थी. वहीं बचपन और जवानी का एक मानी ख़ेज़ वक्त गुजरा. और वहीं फांसी पर चढ़ाए गए. चलिए जानते हैं, पाकिस्तान भगत सिंह को कैसे देखता है और याद करता है.
पाकिस्तान में पैदाइशपंजाब का खटकर कलां गांव. भारत में इसे भगत सिंह का पैतृक गांव माना जाता है. हालांकि उनका जन्म यहां नहीं हुआ था. भगत सिंह पाकिस्तान में पैदा हुआ थे. शहर लायलपुर, गांव बंगा में. अब ये शहर आपको पाकिस्तान के नक़्शे में नहीं दिखाई देगा. साल 1977 में इस शहर का नाम बदलकर फैसलाबाद कर दिया गया. सऊदी अरब के शाह फैसल के नाम पर.

खटकर कलां को पैतृक गांव माने जाने के पीछे कुछ और वजह है. दरअसल भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह का जन्म खटकर कलां में हुआ था. साल 1900 में भगत सिंह के दादा अर्जुन सिंह परिवार समेत खटकर कलां से लायलपुर चले गए थे. भगत सिंह की फांसी के बाद उनके माता पिता लौटकर खटकर कलां आ गए थे. और आजादी के बाद उनके परिवार के बाकी सदस्य भी यहीं आकर बस गए.
पाकिस्तान के लाहौर से भगत सिंह का गहरा नाता है. लाहौर के DAV स्कूल से स्कूलिंग की. और बाद में नेशनल कॉलेज लाहौर में एडमिशन ले लिया. लाहौर में ही खड़ा है वो नीम का दरख़्त, जिसके पीछे खड़े होकर भगत और उनके साथी जेम्स स्कॉट का इंतज़ार कर रहे थे. हालांकि सामने SP ऑफिस से सांडर्स निकला. और वहीं ढेर कर दिया गया. इस जगह से कुछ दूर DAV कॉलेज था. पार्टीशन के बाद इसका नाम गवर्मेंट इस्लामिया कॉलेज कर दिया गया. सांडर्स को गोली मारने के बाद भगत सिंह इसी कॉलेज की तरफ भागे थे. एक पुलिसवाला उनके पीछे आया. चंद्रशेखर आजाद ने उसे भी गोली मार दी.
सांडर्स की हत्या के बाद भगत सिंह ने लोहारी मंडी में अपने एक जान पहचान वाले के यहां रात गुजारी. अगली सुबह दयाल सिंह कॉलेज के हॉस्टल में चले गए. हॉस्टल के सुपरिटेंडेंट ने चार दिन उन्हें अपने यहां छिपाकर रखा. माजिद लिखते हैं कि इस दौरान भगत रोज़ लक्ष्मी चौक का चक्कर लगाते थे. चाट पकौड़ी खाने के लिए. इस दौरान भगत ने एक रात ख्वाजा फिरोज़ुद्दीन के घर भी काटी थी. ख्वाजा फिरोज़ुद्दीन मशहूर शायर अल्लामा इकबाल के दामाद थे. वही अल्लामा इकबाल जिन्हें मुफक्किर-ए-पाकिस्तान यानी पाकिस्तान का विचारक कहा जाता है और जिनका तराना आज भी हिंदुस्तान में गाया जाता है - सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा.
अल्लामा इकबाल के अलावा भगत सिंह की जिंदगी में एक रोल पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना का भी है. सेन्ट्रल असेंबली में बम फेंकने के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त जेल में डाले गए. कोर्ट का रवैया पूरी तरह पक्षपाती था. भगत सिंह और उनके साथियों ने तय किया कि वो मुक़दमे का बहिष्कार करेंगे. उन्होंने भूख हड़ताल शुरू कर दी. अदालत में मामला धीमी रफ़्तार से चल रहा था. इधर भगत सिंह की लोकप्रियता बढ़ती जा रही थी. अंत में सरकार क्रूरता पर उतर गई. वो एक नया बिल लाई जिसके तहत अभियुक्तों की गैरमौजूदगी में मुकद्दमा चलाया जा सकता था. ये बिल सेन्ट्रल असेम्बली में पेश किया गया. यहां जिन्ना ने इस विधेयक का भरपूर विरोध किया.

सितम्बर 1929 में सेन्ट्रल असेम्बली में जिन्ना बोले,
“ये कोई मजाक नहीं है. मरते दम तक भूख हड़ताल करना हर किसी के बस की बात नहीं है. विश्वास न हो तो आप लोग खुद कोशिश करके देखें. जो शख्स भूख हड़ताल पर गया है, उसकी भी आत्मा है. उसे अपने उद्देश्य पर भरोसा है. वो कोई आम अपराधी नहीं है जिसने महज एक हत्या को अंजाम दिया हो.”
जिन्ना अपनी बात जारी रखना चाहते थे. लेकिन उस दिन असेम्ब्ली का वक्त ख़त्म हो गया. जिन्ना ने अगले दिन बहस जारी रखने की बात कही. इस पर मदन मोहन मालवीय खड़े हुए और जिन्ना के सपोर्ट में बोले, “महोदय क्या हम सदन की अवधि 15 मिनट आगे नहीं बढ़ा सकते?”. अवधि आगे नहीं बढ़ी.
अगले दिन जिन्ना सरकार पर और भी जमकर बरसे. जिन्ना उन लोगों में से थे जो ब्रिटिश शासन के नियम कानूनों का समर्थन करते थे. भगत सिंह के मामले में क़ानून को तोड़े-मरोड़े जाने के चलते वो भयंकर नाराज थे. उन्होंने नए विधेयक को इंसाफ की हत्या बताया. अंत में सदन ने बिल पास ही नहीं किया. हालांकि इससे सरकार को कोई फर्क न पड़ा. वो इसे आर्डिनेंस की शक्ल में ले आई. एक ट्रिब्यूनल बनाया गया. जिसमें तीन जज थे. एक जज भारतीय थे. उन्होंने अपना विरोध दर्ज किया तो बीमारी का बहाना बताकर उन्हें हटा दिया गया. भगत और उनके साथियों को पेशी के बिना ही फांसी की सजा सुना दी गई.
हुसैनीवाला भारत का हिस्सा कैसे बना?भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को जिस जगह पर फांसी दी गई, उस जगह को शादमान चौक के नाम से जाना जाता है. भगत सिंह मेमोरियल फाउंडेशन नाम का एक संगठन भगत सिंह की यादों को पाकिस्तान में संजोने का काम कई सालों से करता आ रहा है. साल 2012 में इस संगठन ने शादमान चौक का नाम शहीद भगत सिंह चौक करने की मांग रखी. सरकार भी तैयार हो गई लेकिन अंत में उन्हें पीछे हटना पड़ा. डर था जमात-उद दावा का. एक कट्टरपंथी संगठन, जिसका मुखिया हाफ़िज़ सईद है. 2019 में एक बार फिर ऐसी ही कोशिश हुई थी लेकिन फिर कट्टरपंथियों की धमकी के चलते ये नहीं हो पाया. इसके बावजूद हर साल 23 मार्च को लोग इस चौक पर इकठ्ठा होते हैं और भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को याद करते हैं.

भगत सिंह की पाकिस्तान से जुड़ी एक और दिलचस्प बात आपको बताते हैं.
फांसी के बाद भगत सिंह और उनके साथियों के शव लाहौर से किलोमीटर दूर हुसैनीवाला ले जाए गए थे. यहां उनके शवों को रातों रात जलाने की कोशिश हुई. इसी जगह पर आज भारत में हुसैनीवाला राष्ट्रीय शहीदी स्मारक बना हुआ है. लेकिन ये जानकार आप शायद चकित होंगे कि बंटवारे के वक्त हुसैनीवाला भारत में नहीं था. ये पाकिस्तान के हिस्से में था. सन 1961 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की कोशिशों से हुसैनीवाला को भारत में शामिल किया गया. इसके लिए भारत ने पाकिस्तान को 12 गांव दिए थे.
भगत सिंह और पाकिस्तान से जुड़ा एक गज़ब संयोग भी है.
20 नवंबर, 1974 के रोज़ पाकिस्तान में नेशनल असेंबली का सेशन चल रहा था. प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो सदन में मौजूद थे. तभी सदन में एक मेंबर खड़ा हुआ और अपनी जेब से एक शीशी निकाल कर हवा में लहराने लगा. शीशी में खून भरा था. साथ में थी एक क़मीज़, जो खून से सनी हुई थी. इस शख़्स का नाम था, अहमद रजा कसूरी. ठीक नौ दिन पहले कसूरी के क़ाफ़िले पर कुछ हमलावरों ने गोलियां चलाई थीं. जिसमें कसूरी के पिता नवाब मुहम्मद अहमद कसूरी की जान चली गई थी. कसूरी इस हत्या के लिए प्रधानमंत्री भुट्टो को सीधे तौर पर क़सूरवार ठहरा रहे थे.

कसूरी ने उस रोज़ एक FIR भी दर्ज़ करवाई. और FIR में भुट्टो का नाम लिखवाया. प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ FIR हुई थी. सो कोई कार्रवाई होने के तो कम ही चांसेज थे. लेकिन इस सरकारी काग़ज़ ने आगे जाकर पाकिस्तान की सियासत में भूचाल पैदा कर दिया. 1977 में जनरल जिया उल हक़ ने पाकिस्तान में तख्ता पलट किया. भुट्टो जेल के हवाले हो गए. ज़िया ने एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया ताकि किसी ना किसी बहाने से भुट्टो को हमेशा-हमेशा के लिए रास्ते से हटा दिया जाए. तब यही FIR ज़िया के हाथ लगी और अंत में भुट्टो की मौत का कारण बनी.
पाकिस्तान की राजनीति में ये सब हंगामा हुआ था नवाब मुहम्मद अहमद कसूरी की मौत के कारण. इत्तेफ़ाक देखिए ये नवाब मुहम्मद वही मैजिस्ट्रेट थे जिन्होंने भगत सिंह के डेथ वॉरंट पर साइन किए थे. और इससे भी बड़ा इत्तेफ़ाक ये कि शादमान कॉलोनी, लाहौर का गोलचक्कर, जहां नवाब मुहम्मद अहमद कसूरी की हमले में मौत हुई थी. वही जगह थी जहां भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी गई थी. तब यहीं पर लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी का चेम्बर हुआ करता था.
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