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‘भारत के फ़रिश्ते’, क्यों याद करते हैं कोरिया के लोग?

1950 में उत्‍तर कोरिया के तत्‍कालीन शासक किम इल सुंग ने दक्षिण कोरिया पर हमला बोल दिया था. 1950 से 1954 के बीच युद्ध के दौरान भारतीय सेना की मेडिकल यूनिट ने युद्धक्षेत्र में 2 लाख से अधिक लोगों का इलाज किया.

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1950 में हुए उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया युद्ध के दौरान भारतीय सेना की मेडिकल टीम ने युद्ध के मैदान के बीच घायल सैनिकों और नागरिकों का इलाज किया (तस्वीर- Wikimedia/Indiatoday)

साल 2022 का बसंत. एक पुरानी कहावत दोहराई गई. ‘एक युद्ध सभी युद्धों का अंत कर देगा’. बात कर रहे हैं रूस यूक्रेन युद्ध की. युद्ध हो रहा था सुदूर यूरोप में. लेकिन सभी युद्धों की तरह इस युद्ध ने भी दुनिया को दो खेमों में बांट दिया. एक वो जो यूक्रेन की तरफ थे, एक वो जो रूस की तरफ. भारत किस तरफ था? विश्लेषकों की मानें तो भारत बार-बार सिर्फ शांति की बात करता रहा.पश्चिम से जो आवाजें उठीं, उनमें कहा गया कि भारत इस युद्ध में मध्यस्थ की भूमिका अदा कर सकता है. भारत के प्रति इस सोच का कारण यूं ही नहीं है. आजादी के बाद वक्त-वक्त पर भारत ने युद्धों के बीच शांति की कोशिश की है.

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आज बात इतिहास के एक ऐसे ही चैप्टर की. जब भारत ने उस युद्ध में मध्यस्था की जिसमें एक तरफ चीन और सोवियत रूस थे, तो दूसरी तरफ अमेरिका. हम बात कर रहे हैं साल 1950 से 1953 के बीच हुए कोरिया युद्ध की. जब ये युद्ध शुरू हुआ, भारत को आजाद हुए महज 3 साल हुए थे. इसके बावजूद भारत ने अपनी फौज भेजी. लड़ने के लिए नहीं, बल्कि शान्ति के लिए. 
कोरिया युद्ध में भारत की क्या भूमिका थी? (Role of India in The Korean War) क्यों कोरिया के लोग भारतीय सैनिकों को ‘मैरून टोपी वाले मसीहा’ कहकर बुलाते थे? और क्यों इस युद्द के बाद अमेरिका और यूरोप के 80 सैनिकों को भारत लाया गया? (The Korean War 1950–53)

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Kim Il-sung
उत्तर कोरिया में तानाशाही की नींव रखने वाले किम-इल सुंग (तस्वीर- Wikimedia commons)

कोरिया युद्ध 

भारत की इस युद्ध में कैसे एंट्री हुई, उससे पहले जरा कोरिया युद्ध की कहानी जान लेते हैं. एकदम शुरू से शुरू करें तो 20 वीं सदी की एकदम शुरुआती सालों की बात है. एशिया महाद्वीप में एक जमीन के टुकड़े के लिए दो औपनिवेशिक ताकतें आपस में भिड़ गई. जमीन का ये टुकड़ा था कोरियन प्रायद्वीप. जिस पर कब्जे के लिए जापान और रूस के बीच जंग हुई. जीत जापान की हुई. उसने कोरिया को गुलाम बना लिया. कहने को कोरिया का अपना शासक था, लेकिन पूरी ताकत जापान के हाथ थी. 1926 में ये शासक भी मर गया और कोरिया पूरी तरह जापान के कब्जे में आ गया.

कोरिया पर जापान का शासन साल 1945 तक चला. दूसरे विश्व युद्ध में जापान की हार के साथ ही कोरिया भी उसके कब्जे से निकल गया. कोरिया का भविष्य अब अधर में लटका हुआ था. इस बीच द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होते ही कोल्ड वॉर की शुरुआत हो गई. जिसमें आमने सामने थे, सोवियत रूस और अमेरिका. दोनों ने आपस में तय किया कि कोरिया को आधा-आधा बांट लेंगे. अगस्त 1945 में कोरिया के बीचों बीच लकीर खिंच गई. अमेरिका के पास गया साउथ का हिस्सा. यानी, साउथ कोरिया. सोवियत के पास आया नॉर्थ का हिस्सा. यानी, नॉर्थ कोरिया. दोनों ही देश अपने-अपने हिस्सों को कंट्रोल कर रहे थे.

नॉर्थ कोरिया में तानाशाह किम-इल सुंग(Kim Il-sung) की हुकूमत थी. 1950 में उन्होंने दक्षिण कोरिया पर हमला कर दिया. इस युद्ध में उन्हें चीन और सोवियत रूस का साथ मिला. चीन में कुछ साल पहले तक कम्युनिस्टों और राष्ट्रवादियों के बीच लड़ाई भी चल रही थी. इसमें कोरिया के तकरीबन 50 हजार सैनिक कम्यूनिस्टों के पक्ष में लड़ाई कर रहे थे. चीन में माओ की जीत के बाद ये सैनिक उत्तर कोरिया चले गए. ताकि किम-इल सुंग के पक्ष में लड़ाई कर सकें. दूसरी तरफ रूस के तानशाह स्टालिन भी किम-इल सुंग को हथियारों से मदद पहुंचा रहे थे. लिहाजा इस लड़ाई में दक्षिण कोरिया कमजोर होने लगा. किम-इल सुंग ने एक एक कर दक्षिण कोरिया के कई हिस्सों पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया.

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उत्‍तर और दक्षिण कोरिया के बीच युद्ध को खत्‍म कराने में नेहरू ने अहम भूमिका निभाई (तस्वीर- Indiatoday)

भारत की युद्ध में एंट्री 

अमेरिका इस हार से परेशान था. उसने संयुक्त राष्ट्र में इस युद्ध के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित करवाया. और अपने दोस्तों के साथ मिलकर दक्षिण कोरिया की मदद के लिए सेना भेज दी. अमेरिका के आते ही युद्ध का पासा पलटने लगा. नॉर्थ कोरिया के शहरों पर अमेरिका ने जमकर बमबारी की. अंदाजा है कि अमेरिका ने करीब सवा छह लाख टन विस्फोटक का इस्तेमाल किया नॉर्थ कोरिया के ऊपर. इनमें लाखों निर्दोष मारे गए. अमेरिका के सेक्रटरी ऑफ स्टेट रह चुके डीन रस्क ने एक बार कहा था-

“नॉर्थ कोरिया में जो भी हिलती-डुलती चीज दिखी, उन सबके ऊपर अमेरिका ने बम गिराया. लगने लगा था कि अमेरिका जल्द ही नार्थ कोरिया पर भी कब्ज़ा कर लेगा. लेकिन तभी चीन के सैनिक इस युद्ध में उतर गए. लड़ाई लम्बी खिंचने लगी. दोनों पक्ष समझ गए थे कि युद्ध यूं ही चलता रहा तो सिवाए नुकसान के कुछ हासिल नहीं होगा.”

लेकिन युद्ध रुके कैसे? समझौता कैसे हो? पहला मुद्दा था बॉर्डर का. दोनों देशों के बीच सीमा रेखा कैसे तय हो. कई राउंड की बातचीत के बाद इस समस्या का हल निकाला गया. तय हुआ कि 1945 वाली सीमा रेखा ही मानी जाएगी. यहां पर मसला हल हो जाना चाहिए था. लेकिन फिर इससे भी बड़ी समस्या सामने आ गई. युद्ध के दौरान दोनों खेमों में युद्धबंदी कैद थे. अमेरिका ने उत्तर कोरिया के 1,70,000 सैनिकों को बंदी बना रखा था. समझौते के तहत इन युद्धबंदियों की अदलाबदली होनी जरूरी थी. लेकिन ऐन मौके पर अमेरिका अड़ गया. उसका कहना था कि कई सैनिक वापिस चीन या उत्तर कोरिया नहीं जाना चाहते. ऐसे में वो जबरदस्ती उन्हें एक कम्युनिस्ट सरकार को नहीं सौंप सकता. यहीं से इस युद्ध में भारत की एक महत्वपूर्ण भूमिका शुरू होती है.

भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य था. नेहरू(Jawaharlal Nehru) गुटनिरपेक्षता की नीति फॉलो कर रहे थे. इसलिए जब संयुक्त राष्ट्र में इस युद्ध के खिलाफ प्रस्ताव लाया गया, भारत वोटिंग से गैर हाजिर रहा. अमेरिका चाहता था कि संयुक्त राष्ट्र की सेना के साथ भारत भी अपनी सेना भेजे. लेकिन भारत ने इससे इंकार कर दिया. इसके बजाय भारत ने अपनी सेना की मेडिकल कोर की एक टुकड़ी (60वीं पैराशूट फील्ड एंबूलेंस) भेजी. ताकि युद्ध में घायल लोगों की मदद हो सके. भारत ने कई बार ब्रिटेन की मदद से समझौता कराने की कोशिश की. लेकिन बार बार मसला एक मुद्दे पर आकर ठहर जाता था. युद्धबंदियों का मसला. अमेरिका उत्तर कोरिया के हाथ युद्धबंदी सौंपने को तैयार नहीं था. इस बीच भारत ने लगातार मध्यस्थता की कोशिश की और नवम्बर 1952 ने संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पेश कर दिया. जो पास भी हो गया.

इस प्रस्ताव के तहत एक आयोग का गठन होना था. जिसका नाम था न्यूट्रल नेशंस सुपरवाइजरी कमीशन या NNSC. इस आयोग में पांच देश शामिल थे. पश्चिमी देशों की तरफ से स्वीडन और स्विटजरलैंड. और चीन और रूस की तरफ से पौलेंड और चेकोस्लोवाकिया. इसके अलावा पांचवा सदस्य भारत था. इस आयोग का काम क्या था? ये आयोग युद्धबंदियों की अदलाबदली का काम देखने वाला था. इसके तहत मई 1952 में एक ऑपरेशन चलाया गया. ऑपरेशन लिटिल स्विच. जिसमें दोनों खेमों ने घायल हुए युद्धबंदियों की अदलाबदली की. लेकिन इसके बाद भी कई हजारों युद्ध बंदी बचे हुए थे, जिनकी अदलाबदली होनी थी. इनमें से कई ऐसे थे, जो अपने देश वापिस नहीं लौटना चाहते थे. इन युद्धबंदियों को NNSC को सौंपा गया. NNSC की अध्यक्षता कर रहे थे, भारतीय सेना के प्रमुख जनरल केएस थिमैया.

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युद्ध के दौरान भारतीय सेना की 60वीं पैराशूट फील्ड एंबूलेंस ने 2.2 लाख घायलों की मदद की और 2,324 सैनिकों की फील्ड सर्जरी की (तस्वीर-thediplomat.com)

भारत ने भेजी शांति सेना 

भारत ने युद्धबंदियों की देखरेख के लिए एक फ़ोर्स भेजी. इंडियन कस्टोडियल फोर्स या ICF. ICF में भारत के 6 हजार सैनिक शामिल थे. और इसे लीड कर रहे थे लेफ्टिनेंट जनरल शंकरराव पांडुरंग पाटिल थोराट. इसके अलावा जैसे कि पहले बताया, भारतीय सेना की मेडिकल कोर की एक टुकड़ी भी कोरिया में तैनात थी, डिफेन्स मिनिस्ट्री के रिकार्ड्स के अनुसार इस मिशन का ध्येय वाक्य था, “For the Honour of India” यानी ‘भारत के गौरव के लिए'. ICF की टुकड़ियों को रवाना करते हुए प्रधानमंत्री नेहरू ने उन्हें सन्देश दिया था कि किसी भी भी हालत में उन्हें न्यूट्रल बने रहना है. और केवल खुद की रक्षा के लिए हथियारों का इस्तेमाल करना है. लेफ्टिनेंट जनरल मैथ्यू थॉमस, जो इस टुकड़ी का हिस्सा थे, इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए बताते हैं.

“हम अमेरिकी एयरक्राफ्ट्स से ट्रेवल कर रहे थे. हमें बताया कि खाने के मेन्यू में बीफ है. चूंकि हम इसे नहीं खा सकते थे, इसलिए अमेरिकियों ने हमारे लिए दूसरे भोजन का प्रबंध किया”

कोरियन प्रायद्वीप को बांटने वाली जो रेखा है उसे कोरियन डीमिलिटराइज़्ड ज़ोन या DMZ कहा जाता है, ये चार किलोमीटर की एक पट्टी है जो उत्तर और दक्षिण कोरिया को बांटती है. युद्ध विराम के बाद ये वो हिस्सा था जहां सशस्त्र बलों को जाने की इजाजत नहीं थी. DMZ के दक्षिणी हिस्से में युद्धबंदियों को कैम्पस में रखा गया था. और भारतीय कस्टोडियल फ़ोर्स या ICF की टुकड़ियां भी यहीं तैनात थी. इस वजह से इस जगह को हिन्द नगर का नाम दिया गया था. ICF के आने से पहले युद्धबंदियों के कैम्प्स को अमेरिकी नियंत्रित कर रहे थे. इन्हें उन्होंने चिकन रन का नाम दिया था. क्योंकि दिखने में वो मुर्गी के दड़बों जैसे दिखाई देते थे.

ICF में तैनात भारतीय जवान याद करते हैं कि इन कैम्पस की देखभाल बिलकुल आसान काम नहीं था. कड़ाके की ठण्ड पड़ती थी. और अक्सर युद्धबंदियों के बीच लड़ाई भी हो जाती थी. इसके बावजूद उन्हें बल प्रयोग की मनाही थी. लेफ्टिनेंट जनरल मैथ्यू थॉमस एक इससे जुड़ा एक किस्सा सुनाते हैं. एक बार हुआ यूं कि एक रोज़ कैम्प के अंदर एक युद्धबंदी की लाश मिली. मेजर, HS गरेवाल तहकीकात के लिए कैम्प में घुसे. लेकिन वहां युद्धबंदियों ने उन्हें होस्टेज बना लिया. तब भारतीय फौज की एक टुकड़ी को मामले में बीच बचाव के आना पड़ा. उन पर लड़की और पत्थर से हमला हुआ. लेकिन अंत में सूझबूझ से मामला सुलझा लिया गया.

कोरिया के लोग आज भी याद करते हैं 

इस सब के बीच NNSC की अध्यक्षता कर रहे जनरल थिमैया के सामने के एक बड़ी चुनौती थी. युद्धबंदियों में से कई, जिमें अमेरिकी नागरिक भी शामिल थे, अपने देश नहीं लौटना चाहते थे. इनका फैसला NNSC को करना था. दिसंबर 1953 में संयुक्त राष्ट्र की तरफ से एक इन सैनिकों को मनाने की एक आख़िरी कोशिश की गई. समय निकलता जा रहा था. अंत में 22 हजार सैनिक अपने देश लौटने को तैयार हो गए. लेकिन 88 के आसपास ऐसे थे जो अंत तक राजी न हुए. आखिर में जनरल थिमैया ने तय किया कि इन्हें भारत लाया जाएगा. 1955 तक इनमें से 6 वापिस अपने देश लौट गए. लेकि 82 ऐसे थे, जिनमें से कुछ ने भारत को ही अपना घर बना लिया, और बाकी दूसरे मुल्कों में चले गए.

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युद्ध के दौरान भारतीय सेना की मेडिकल टीम घायलों का इलाज करते हुए (तस्वीर-cmvtcivils)

इस युद्ध में भारतीय सैनिकों के योगदान को कोरिया के लोग 21 वीं सदी में भी याद करते हैं. खासकर मेडिकल कोर की सेवाओं को. इस युद्ध में घायल होने वाले आम नागरिकों को अमेरिकी सेना की मदद नहीं मिलती थी. ऐसे में इन लोगों की मदद भारतीय सेना की मेडिकल कोर ने की. उन्होंने कोरिया में 4 अस्पताल बनाए, कोरियन डॉक्टर्स को ट्रेन किया और साथ साथ घायलों का इलाज़ भी. इस वजह से कोरिया में इन भारतीय सैनिकों को विशेष उपाधि मिली- ‘एंजेल्स इन मैरून बैरे’ यानी मैरून टोपी वाले फ़रिश्ते. इस युद्ध में योगदान के लिए 60वीं पैराशूट फील्ड एंबूलेंस के सैनिकों को दो महावीर चक्र, और 6 वीर चक्र दिए गए. वहीं जनरल थिमैया को पद्म भूषण से नवाजा गया.

उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया के बीच DMZ नाम की एक पट्टी है. इस इलाके में इस युद्ध का एक स्मारक बना हुआ है. जिसमें 22 देशों के झंडे लगे हुए हैं. इन सभी देशों ने इस युद्ध में भाग लिया था. इनमें से एक झंडा भारत का भी है. कोरिया युद्ध में भारत के योगदान के चलते भारत गुट निरपेक्ष धड़े का एक बड़ा लीडर बनकर उभरा. और माना जाता है कि यहीं से नेहरू आनेवाले सालों में विश्व नेता के तौर पर उभरे.

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