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वो क्रांतिकारी जिसने हिटलर को मांफी मांगने पर मजबूर कर दिया

1914 में एम्डेन नाम के जहाज ने मद्रास पर ऐसा हमला किया कि तमिल भाषा में दबंग का मतलब ही हो गया 'एम्डेन''.

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चेम्पकारमन पिल्लई की 1934 में बर्लिन में मृत्यु हो गई थी. कहा जाता है कि उन्हें हिटलर ने धीमा ज़हर दिया था (तस्वीर: AP)

'रूबी ऑफ कोचिन' नाम की एक किताब है. रूबी डैनिएल्स नामक यहूदी महिला द्वारा लिखी ये किताब कोच्चि में रहने वाली यहूदियों के इतिहास का दस्तावेज़ है. किताब में रूबी एक किस्सा सुनाती हैं. प्रथम विश्व युद्ध की बात है. रूबी के अंकल की शादी का मौका था. और उनके घर में दावत चल रही थी. साज सजावट थी. तभी रूबी की एक रिश्तेदार जिनकी आखें कुछ कमजोर थीं, उन्होंने घर के बाहर दो लोगों को खड़े देखा. रूबी के लगा उनके रिश्तेदार आए हैं. उन्होंने दरवाजा खोला और उन्हें अंदर बुला लिया. थोड़ी देर बाद उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ, जब पता चला कि ये लोग जर्मन नौसैनिक थे. 

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अजीब सी सिचुशन पैदा हो गई थी. रूबी की दादी उन्हें बिना खाना खिलाए जाने नहीं देना चाहतीं थी. और बाकी लोग जर्मनों से हद नफरत किया करते थे. लेकिन दादी के खिलाफ बोलने की किसी की हिम्मत न थी. इसलिए दोनों जर्मन सैनिकों ने टेबल खाने के लिए बुलाया गया. खास बात ये थी जिंदगी में पहली बार उन्हें हाथ से खाना खाना पड़ रहा था. चम्मच-कांटे नदारद थे. हुआ यूं कि घर के पुरुष दादी के खिलाफ तो कुछ बोल न पाए. लेकिन खाना लगते ही उन्होंने सारे चम्मच-कांटे नीचे फेंक दिए. इसके बाद जर्मन सैनिकों ने हाथ से खाना खाया. और अपने रास्ते बढ़ गए. अब सवाल ये कि जर्मनी के ये नौसैनिक कोच्चि में क्या कर रहे थे. जवाब जानने के लिए आपको जाननी होगी एक कहानी. उस क्रांतिकारी की जिसने हिटलर (Hitler) को माफी मांगने पर मजबूर कर दिया था. नाम था चेम्पकारमण पिल्लई (Chempakaraman Pillai) 

सो जा नहीं तो एम्डेन आ जाएगा 

1914 का साल. अगस्त के आते-आते यूरोप में युद्ध की पताकाएं लहराने लगी थीं. इम्पीरियल जर्मन नेवी का एक बेड़ा ईस्ट एशिया में तैनात था. जहां से उसने साउथ अमेरिका की तरफ कूच का आदेश मिला. सिवाय एक जहाज के. एम्डेन (SMS Emden) नाम का ये क्रूजर अपनी स्क्वाड्रन से अलग होकर हिन्द महासागर की ओर बढ़ गया. पूरे हिन्द महासागर में ये अकेला जर्मन जहाज था. जिसे ब्रिटिश शिपिंग पोस्ट पर हमला करना था.

Bombardment of Madras
SMS एम्डेन के हमले से बर्बाद हुआ मद्रास हार्बर (तस्वीर: Wikimedia Commons)

30 अगस्त को एम्डेन हिन्द महासागर में घुसा. यहां ब्रिटिश राज की क्रूशियल शिपिंग लाइंस थीं. इन पर हमला कर एम्डेन भारत में विद्रोह भड़काना चाहता था. लेकिन एक दिक्कत थी. एम्डेन में तीन फनल थे. जबकि ब्रिटिश जहाजों में चार फनल हुआ करते थे. इसलिए वो दूर से ही पहचान में आ जाता था. इसके लिए शिप ने कमांडर ने एक नकली फनल बनाया ताकि जहाज पहचान में ना आए. और ये तरकीब काम भी कर गई. 

सितम्बर से शुरुआत कर अगले कुछ दिनों में एम्डेन ने हिन्द महासागर में ब्रिटिश जहाजों को निशाना बनाया और कइयों को डुबा भी दिया. सीलोन (श्रीलंका ) से लेकर बे ऑफ बंगाल में उसकी दहशत फ़ैल चुकी थी. इस बीच 14 सितम्बर को एक घटना हुई. एम्डेन का सामना एक इटेलियन जहाज से हुआ. चूंकि इटली विश्व युद्ध में भाग नहीं ले रहा था. इसलिए एम्डेन ने उसे जाने दिया. ये बड़ी गलती साबित हुई. क्योंकि इतालवियों ने अंग्रेज़ों को एम्डेन के बारे में बता दिया. चार जहाज एम्डेन की तलाश में निकल पड़े. लेकिन अगले एक हफ्ते तक एम्डेन का कुछ पता नहीं चला. 

फिर आई 22 सितंबर की रात. पूरा मद्रास नींद की आगोश में था. जब अचानक सेंट जॉर्ज फोर्ट में आसमान तक आग की लपटें उठने लगी. रात के अंधेरे में हमला कर एम्डेन ने तेल डीपो उड़ा दिया था. एम्डेन ने कुल 130 गोले दागे और,मद्रास हार्बर को तहस -नहस कर डाला. शहर में भगदड़ मच गई. विश्व युद्ध भारतीय जमीन पर आ चुका था. लोगों ने शहर से भागना शुरू कर दिया. लूटपाट होने लगी. बंगाल तक कारोबार ठप पड़ गया. अचानक चीजों के दाम आसमान छूने लगे. एम्डेन के इस कारनामे से पूरे मद्रास के लिए वो खौफ का पर्याय बन गया था. जल्द ही एम्डेन शब्द मलयालम और तमिल भाषा से जुड़ गया. और आज भी तमिल और मलयालम में किसी दबंग आदमी के लिए एम्डेन शब्द का इस्तेमाल होता है. या किसी काम को अचूक ढंग से अंजाम देने को कहा जाता है, ‘एम्डेन कर देना’. इसके अलावा और भी कई तरीकों से इस शब्द का इस्तेमाल किया जाता है.

काबुल में भारत की पहली सरकार 

इस एम्डेन जहाज को लेकर और कई किंवदंतियां बनी. ऐसी ही एक किंवदंती थी कि उस रात एम्डेन पर एक भारतीय भी मौजूद था. और उसी ने जर्मनों को खबर दी थी. हालांकि इतिहासकारों ने कभी इस बात की पुष्टि नहीं की. लेकिन उस आदमी का परिवार इसका दावा करता रहा. इस आदमी का नाम था चेम्पका रमन पिल्लई (Chempakaraman Pillai). 15 सितमबर 1891 के दिन उनका जन्म त्रिवेंद्रम के एक तमिल परिवार में हुआ था. वो लोकमान्य तिलक से बहुत प्रभवित थे. और इसी कारण आजादी के आंदोलन में कूद पड़े. कहते हैं वॉल्टर स्ट्रिकलैंड नाम के एक जर्मन जासूस ने उनके यूरोप जाने का इंतज़ाम किया. और पिल्लई इटली, स्विट्ज़रलैंड होते हुए जर्मनी पहुंच गए. 

Kabul Government
काबुल में बनी पहली अंतरिम सरकार (तस्वीर: Wikimedia Commons) 

यहां पिल्लई ने जर्मन सरकार को भारत की आजादी के पक्ष में करने के लिए कोशिशें की. बिलकुल वैसे ही जैसे बाद में नेताजी बोस ने किया था. सितम्बर 1914 में उन्होंने प्रो इंडिया कमिटी का गठन किया. इसी बीच बर्लिन में बर्लिन कमिटी नाम का भारतीयों का गुट तैयार हो रहा था. इन दोनों को मिलाकर इंडियन इंडिपेंडेंस कमिटी बना दी गई. इस कमिटी से शुरुआत हुई उस प्लान की जिसे अंग्रेज़ों ने हिन्दू जर्मन कॉन्सपिरेसी के नाम दिया. क्या थी ये? 

प्रथम विश्व युद्ध के वक्त ब्रिटिश साम्राज्य पहली बार मुश्किल में नजर आ रहा था. ऐसे में विदेशों में बसे भारतीयों ने सोचा कि क्यों न विदेशी मदद से भारत को आजाद कराया जाए. ब्रिटेन का सबसे बढ़ा दुश्मन था जर्मनी. और उसे खुद साथियों की तलाश थी. ऐसे में जर्मन फॉरेन ऑफिस और भारतीय क्रांतिकारियों ने मिलकर एक प्लान तैयार किया. दिसंबर 1915 में काबुल में एक अंतरिम भारत सरकार का गठन हुआ. राजा महेंद्र प्रताप राष्ट्रपति,  मौलाना बरकतुल्ला प्रधानमंत्री और चेम्पका रमन पिल्लई विदेश मंत्री बने. इनका प्लान था कि 20 हजार तुर्की और जर्मन योद्धाओं को काबुल लाकर ब्रिटिश राज के खिलाफ युद्ध छेड़ देंगे. नार्थ वेस्ट फ्रंटियर पर एक और मोर्चा खुल जाने से सरकार दिक्क्त में आ जाएगी. और उसके बाद ग़दर आंदोलन के साथी भारतीय सेना में विद्रोह करा देंगे. जैसा कि अब हम जानते हैं ये प्लान असफल रहा और अंतरिम भारत सरकार भी भंग कर दी गई.

हिटलर को माफी क्यों मांगनी पड़ी? 

प्रथम विश्व युद्ध के अंत के बाद पिल्लई ने यूरोप में ही रहना चुना. उनके जीवन को लेकर कम ही जानकारी उपलब्ध है लेकिन कुछ सोर्सेस के अनुसार वो टेक्नीशियन का काम करने के साथ राष्ट्रीय आंदोलन में लगे रहे. श्रीधर मेनन अपनी किताब, ‘सर्वे ऑफ केरल हिस्ट्री’ में लिखते हैं कि इन सालों में उन्होंने जर्मनी और भारत के बीच व्यापार बढ़ाने की कोशिश की. 1933 में वियना में उनकी मुलाकात नेताजी सुभाष चंद्र बोस से हुई. जहां दोनों के बीच एक राष्ट्रीय आर्मी के गठन की बातचीत हुई.
 

Hitler and Netaji Subhash Chandra Bose
नेताजी सुभाष चंद्र बोस  और हिटलर की मुलाक़ात (तस्वीर: AP)

पिल्लई ने अपनी जिंदगी का अधिकतर हिस्सा जर्मनी में रहकर गुजारा. इसी बीच वो जर्मन सरकार के ऊपरी तबकों तक पहुंच रखने लगे थे, और वो जर्मनी की नेशनलिस्ट पार्टी के मेंबर भी बन गए थे. जब नाजी पार्टी में हिटलर (Hitler) का उदय हुआ तो उनका पाला हिटलर से भी पड़ा. पिल्लई ने हिटलर से कामकाजी रिश्ते बनाने की शुरुआत की. ताकि भारत की आजादी में उनका सहयोग हासिल कर सकें. 

हिटलर की ताकत जैसे-जैसे बढ़ रही थी. वैस-वैसे उसके बयान भी तीखे होते जा रहे थे. 20 अप्रैल का तारीख का एपिसोड अगर आपको याद हो तो उसमें हमने हिटलर के एक बयान के बारे में बताया था. जिसमें वो कहता है, “भारत में ब्रिटिश राज जर्मनी के लिए एक मॉडल है, और इंडिया इस बात का उदाहरण है कि एक गुलाम नस्ल के साथ कैसे व्यवहार किया जाता है”

यहां पढ़ें- हिटलर भारतीयों से नफरत क्यों करता था? 

ऐसे ही कई मौकों पर हिटलर ने भारतीयों की गुलामी को जायज ठहराया था. ये खबर जब पिल्लई के पास पहुंची तो उन्होंने हिटलर को एक खत लिखकर कहा कि वो अपने बयान के लिए माफी मांगे. ये लेटर हिटलर के सेक्रेटरी के पास पहुंचा. इसमें उन्होंने माफी के लिए डेडलाइन तय कर रखी थी. हिटलर का जवाब आया, माफी भी आई, लेकिन एक दिन देर से. 

पिल्लई ने नाराज होकर हिटलर के खिलाफ बयान जारी करने शुरू कर दिए. इस बात से हिटलर इतना गुस्सा हुआ कि उसने चेम्पका रमन पिल्लई का घर खाली कर उनका सामान ज़ब्त कर लिया. पिल्लई इटली चले गए. रिपोर्ट्स बताती हैं कि उन्हें नाजियों ने धीमा ज़हर दे दिया था. जिसके कारण उनकी तबीयत लगातार बिगड़ती गई. और 1934 में बर्लिन लौटकर वहीं उनकी मृत्यु हो गई. अपनी मृत्यु से एक साल पहले ही उन्होंने बर्लिन में लक्ष्मी से शादी की और मरते हुए उनसे वादा लिया कि उनकी अस्थियों को वापस केरल लाकर नदी में विसर्जित किया जाएगा. आजादी के कुछ साल बाद INS दिल्ली से उनकी अस्थियों को भारत लाया गया और केरल की एक नदी में विसर्जित कर दिया गया.

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