'आज़मा फ़साद बक’ यानि ‘मेरे बाद बस फ़साद ही फ़साद है’ यानी ‘मैं इस दुनिया में अजनबी ही आया और अजनबी ही जा रहा हूं.’ऐसा क्यों कह रहा था औरंगज़ेब? और कैसे उसने मुग़लों की बर्बादी के बीज बोए थे? एक छोटे से इलाक़े से शुरू हुआ मराठा साम्राज्य कैसे दिल्ली तक जा पहुंचा? आइए जानते हैं. औरंगज़ेब का दक्कन कैंपेन साल 1707 में अपनी मृत्यु तक औरंगज़ेब दक्षिण में मुग़ल साम्राज्य को फैलाने की कोशिश करता रहा. 1680 में उसने दिल्ली-आगरा छोड़ दिया. और दक्षिण में औरंगाबाद में अपनी राजधानी बना ली. इसके बाद 1680 से 1689 तक मुग़लों और मराठाओं की लड़ाई कभी इस ठौर तो कभी उस ठौर बैठती रही.
मराठाओं की एक दिक़्क़त ये थी कि उनके सरदारों की आपस में बनती नहीं थी. इसलिए 1689 में संभाजी की हत्या के बाद आलमगीर को लगने लगा था कि मराठा साम्राज्य ख़त्म हो जाएगा. और उस पर काबू पा लेना आसान होगा. लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा. संभाजी के जीते जी जो मराठा सरदार बिखरे-बिखरे थे, वो उनकी मौत के बाद एक होकर लड़ने लगे.

संभाजी राजे के राज्याभिषेक की तस्वीर. (सोर्स: संभाजीराजे.कॉम)
संभाजी की मृत्यु के बाद 12 मार्च 1689 को संभाजी के छोटे भाई राजाराम को छत्रपति बनाया गया. जिसके ठीक 13 दिनों बाद यानी 25 मार्च 1689 को मुग़ल सेना ने रायगढ़ के किले पर हमला कर दिया. सूर्याजी पिसाल की दग़ाबाज़ी के चलते रायगढ़ का किला मुग़लों के कब्जे में चला गया. और उन्होंने संभाजी की पत्नी महारानी येसुबाई और बेटे साहू को कैद में डलवा दिया.
यहां एक चीज़ नोट करिएगा. औरंगज़ेब ने संभाजी को मरवा डाला था. किंतु महारानी येसुबाई और साहूजी को कैद में लेकिन ज़िंदा रखिएगा. इसलिए नहीं कि मुग़ल दरियादिल थे. तो फिर इसके पीछे और क्या कारण था? ये आपको आगे पता चलेगा. अभी के लिए इतना समझिए कि दक्कन की इस शतरंज में हर मुहरे की क़ीमत थी. और सत्ता की बिसात पर कब कौन सा प्यादा वज़ीर बन जाए. कहा नहीं जा सकता था. अभी के लिए आगे के किस्से पर बढ़ते हैं. जिंजी की ओर मुग़लों के हमले से किसी तरह बचते-बचाते छत्रपति राजाराम प्रतापगढ़ और वहां से विशालगढ़ के किले की सुरक्षा में पहुंचे. मुग़लों ने यहां भी उनका पीछा किया. मुग़ल सेना ज़ुल्फ़िकार ख़ान की अगुवाई में लगातार दक्षिण की ओर बढ़ रही थी. पनहला पर मुग़लों का क़ब्ज़ा हुआ तो मराठाओं को लगा कि जल्द ही विशालगढ पर भी हमला होगा. इसलिए छत्रपति राजाराम ने जिंजी के किले की तरह रुख़ किया. और जिंजी मराठा साम्राज्य की नई राजधानी बन गया.
राजाराम के इस तरह बचकर निकल जाने से मुग़ल बौखला गए थे. जिंजी पर हमला करने के इरादे से मुग़ल सेना की एक टुकड़ी दक्षिण की ओर बढ़ी लेकिन लेकिन संतजी घोरपड़े और धनजी जाधव ने उन्हें बीच में ही रोक लिया. मुग़ल सेना एक के बाद एक किलों पर कब्जा करती जा रही थी. ऐसे में मराठा सरदारों ने एक नई रणनीति बनाई. 1691 के आख़िरी महीनों में बावड़ेकर, संतजी, धनजी और बाकी के मराठा सरदार मावल में मिले उन्होंने नई योजना पर काम करना शुरू किया. क्या थी ये योजना?

छत्रपति राजाराम (तस्वीर: Wikimedia Commons)
तब तक मुग़ल सेना ने उत्तर कर्नाटक और महाराष्ट्र पर अपना कब्जा जमा लिया था. आगे उनका मक़सद जिंजी को घेरना था. ज़ुल्फ़िकार ख़ान की अगुवाई में मुग़ल जिंजी की ओर बढ़े तो मराठाओं ने सहयादरी में सेंध लगाना शुरू कर दिया. धनजी और संतजी ने पूर्व से मुग़ल सेना पर आक्रमण किया. और बाकी मराठा सरदारों ने मुग़ल सेना को महाराष्ट्र के आसपास उलझाकर रखा.
नई रणनीति के तहत दक्कन में मुग़ल दो हिस्सों में बंट गए. उत्तर कर्नाटक और महाराष्ट्र. इससे उनके सप्लाई रूट्स में दिक़्क़त पैदा होने लगी. सूरत का बंदरगाह दक्षिण में रसद पहुँचाने का एक महत्वपूर्ण ज़रिया हुआ करता था. इस रास्ते को भी मराठा नेवी ने बाधित कर रखा था. कुल मिलाकर कहें तो दक्कन में मुग़ल सेना अलग-अलग पॉकेट्स में फ़ंस चुकी थी. और उनका कैम्पेन लम्बा खिंचता चला जा रहा था. तंग आकर औरंगज़ेब ने ज़ुल्फ़िकार खान को एक अल्टीमेटम भेजा. जिसके तहत ज़ुल्फ़िकार के पास दो ही रास्ते थे. या तो वो जिंजी को हथिया ले या अपने पद से हाथ धोए. औरंगज़ेब की 'पिर्हिक विक्टरी’ 1698 तक मराठा सेना ने किसी तरह जिंजी के किले को सुरक्षित रखा. मुग़ल सेना की ताक़त उनके हाथी और तोप हुआ करती थी. लेकिन जिंजी की तीन पहाड़ियों में ये किसी काम के ना थे. यहां घुड़सवारों से काम चलता था. मराठाओं की जीत में एक बड़ा कारण थी, उनकी घुड़सवार फ़ौज जो जंगल और पहाड़ियों में तेज़ी से हमला कर सकती थी.
1698 में जिंजी पर मुग़लों का कब्जा हो गया लेकिन इस काम में पूरे 7 साल लग गए. उन्हें जो जीत मिली, उसे अंग्रेज़ी में ‘पिर्हिक विक्टरी’ कहा जाता है. इसे ये नाम राजा पिर्हिस से मिला है, जिसने 280 ईसा पूर्व रोमन सेना को हेराक्लिया की लड़ाई में हराया था. लेकिन इस जंग में पिर्हिस को सेना और धन-बल का इतना नुक़सान हुआ कि मजबूरन उसे अपना कैम्पेन रोक देना पड़ा. 1698 तक मुग़ल सेना का भी यही हाल हो चुका था. 20 साल तक दक्कन की लड़ाई में उनकी सेना को भारी नुक़सान हुआ था. शाही ख़ज़ाना लगभग आधा हो चुका था. और उत्तर और पश्चिम की रियासतें सिर उठाने का मौक़ा ढूंढ रही थीं.

मुग़ल बादशाह आलमगीर औरंगजेब (तस्वीर: Wikimedia Commons)
1699 में औरंगज़ेब के हाथ एक और मौक़ा आया. जब मुग़लों को कमजोर होता देख मराठा सरदारों में शक्ति के लिए एक बार फिर तनातनी शुरू हो गई. धनजी जाधव और संतजी घोरपड़े जो अब तक मिलकर मुग़ल सेना से लड़ रहे थे. वो आपस में ही लड़ने लगे. धनजी ने संतजी की सेना पर हमला किया और इसमें संतजी की मौत हो गई. तब औरंगज़ेब के जनरल वापस लौटने की सलाह दे रहे थे. लेकिन मराठाओं की आपसी फूट के चलते उन्हें मौक़ा दिखा. और उन्होंने दक्कन में अपनी पूरी ताक़त झोंक दी. राजमाता ताराबाई छत्रपति राजाराम ने भी तब तक सत्ता की बागडोर अच्छी तरह सम्भाल ली थी. उन्होंने धनजी को अपना सेनापति नियुक्त किया और सेना को तीन हिस्सों में बांटकर मुग़लों पर हमला कर दिया. धनजी जाधव के नेतृत्व में मराठाओं ने पंढरपुर में विशाल मुग़ल सेना को हराया. और पूने, नाशिक और नंदुरबर को भी दुबारा अपने कब्जे में कर लिया.
इन हार से बौखलाई मुग़ल सेना ने मराठाओं के गढ़ सतारा पर हमला किया. 6 महीने तक प्रज्ञाजी प्रभु के नेतृत्व में मराठा सेना ने सतारा को बचाए रखा. लेकिन अप्रैल 1700 में सतारा मुग़लों के कब्जे में चला गया. इस पूरी लड़ाई के दौरान मुग़ल लगातार कमजोर हो रहे थे. और मराठा नए इलाक़ों पर क़ब्ज़ा जमाते जा रहे थे. लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि मराठा साम्राज्य पर एक बड़ा ख़तरा मंडराने लगा.
1700 में एक बीमारी के चलते छत्रपति राजाराम की मृत्यु हो गई. उनका बेटा शिवाजी द्वितीय महज़ चार साल का था. इसलिए एक बड़ा प्रश्न खड़ा हुआ कि मराठा साम्राज्य की बागडोर कौन सम्भालेगा. इस नाज़ुक समय में जब मुग़ल लगातार हमलावर बने हुए थे, योग्य शासक की अनुपस्थिति में मराठा साम्राज्य के बिखर जाने का डर था. तब दक्कन की लड़ाई में एंट्री हुई राजमाता ताराबाई की. कौन थी ये?

महारानी ताराबाई (तस्वीर: Wikimedia commons)
ताराबाई मराठा कमांडर हंबीरराव मोहिते की बेटी और छत्रपति राजाराम की पत्नी थीं. उन्होंने चार साल के शिवाजी को गद्दी पर बिठाया और मराठा कैम्पेन की बागडोर अपने हाथ में ले ली. उधर सतारा की जीत से उत्साहित औरंगज़ेब के लिए दक्कन की जंग आन-बान-शान की लड़ाई बन चुकी थी. किसी भी क़ीमत पर वो दक्कन का एक-एक इंच हथिया लेना चाहते थे. मुग़ल सेना के कमांडर बार-बार औरंगज़ेब को समझा रहे थे कि दक्कन में जीत असंभव है. इस लड़ाई के चक्कर में 175 साल पुराना मुग़ल साम्राज्य धराशायी हो सकता था. लेकिन एक औरत ने मराठाओं की लीडरशिप संभाल ली है, ये सुनकर औरंगज़ेब को लगा कि अबकी जीत पक्की है. मुग़ल लेखक खफी खान ने इस दौरान लिखा,
“हमें इस बात का बिलकुल अंदाज़ा नहीं था कि एक कमजोर, और असहाय रानी शक्तिशाली मुगल साम्राज्य के लिए खतरा पैदा कर सकती है.”