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ASI के सर्वे पर सुप्रीम कोर्ट ने लगाई रोक, क्या कार्बन डेटिंग से 'सुलझ' जाएगा ज्ञानवापी मामला?

ज्ञानवापी मस्जिद में वाराणसी कोर्ट का आदेश क्या था? दोनों पक्षों की इस पर क्या दलील थी. ASI सर्वे से क्या हासिल होगा?

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ज्ञानवापी केस में अब नया अपडेट आया है.

21 जुलाई को वाराणसी की ज़िला अदालत ने ज्ञानवापी मस्जिद परिसर का वैज्ञानिक सर्वे कराने का आदेश दिया था. ये आदेश उन हिंदू महिलाओं की याचिका पर सुनवाई के बाद आया था, जिन्होंने श्रृंगार गौरी की पूजा करने की मांग की थी. मस्जिद परिसर में पूजा अब भी होती है, लेकिन साल में बस एक दिन - वासंतिक चतुर्थी के रोज़. याचिका में नियमित पूजा की अनुमति मांगी गई है. इस संबंध में दोनों पक्षों की ओर से अलग-अलग अदालतों में याचिकाएं लगी हुई है, जिनपर सुनवाई अलग-अलग चरणों में जारी है. फिलहाल हम उस केस की बात कर रहे हैं, जो ज़िला अदालत में दाखिल किया गया है. इस मामले में ज़िला अदालत के निर्देश के मुताबिक़, विवादित हिस्से यानी वज़ूखाना को छोड़कर पूरे परिसर का सर्वे किया होना था. इस एक हिस्से को पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने सील करवा दिया था.

वाराणसी कोर्ट ने क्या-क्या कहा था?

1. सर्वे के दौरान नमाज़ पर कोई रोक नहीं होगी और ज्ञानवापी मस्जिद को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा.
2. कोर्ट ने मस्जिद के तीन गुंबदों के नीचे ASI को 'ग्राउंड पेनिट्रेटिंग रडार सर्वे' करने को कहा था.  
3. कोर्ट ने जरूरत पड़ने पर खुदाई की अनुमति भी दी थी.
4. ASI डायरेक्टर को निर्देश दिया गया था कि "पता लगाएं...कि मौजूदा ढांचा किसी हिंदू मंदिर के पहले से मौजूद ढांचे को तोड़कर बनाया गया या नहीं."
5. साथ ही मस्जिद परिसर में जितने भी आर्टिफैक्ट्स यानी पुरानी कलाकृतियां मिलें तो उसकी लिस्ट बनाएं.
6. इन कलाकृतियों की वैज्ञानिक तरीके से जांच की जाए और कार्बन डेटिंग भी करें ताकि ढांचे की उम्र का पता लग सके.

जिला अदालत ने कहा था कि इस सर्वे की वीडियोग्राफी की जाएगी और 4 अगस्त से पहले ASI को सर्वे रिपोर्ट सौंपनी होगी. अगली सुनवाई 4 अगस्त ही तय की गई थी. कोर्ट के आदेश के बाद 24 जुलाई की सुबह सात बजे  ASI के 30 लोगों की टीम ने सर्वे की प्रक्रिया शुरू की. आजतक से जुड़े कुमार अभिषेक की एक रिपोर्ट के मुताबिक ASI की टीम के साथ दोनों पक्षों के चार वकील भी पहुंचे. इसके अलावा चार वादी महिलाएं भी आईं. ASI ने चार अलग-अलग टीमें बनाईं थीं. चारों टीमों ने मस्जिद में अलग-अलग जगह पर सर्वे शुरू किया था.
> एक टीम पश्चिमी दीवार के पास लगाई गई,
> 1 टीम गुंबदों के लिए लगाई गई,
> एक टीम मस्जिद के चबूतरे पर
> और एक टीम पूरे परिसर के सर्वे के लिए लगाई गई.

लेकिन चूंकि सुप्रीम कोर्ट का आदेश आ गया था, सर्वे रोका गया. दरअसल अंजुमन इंतजामिया मस्जिद कमेटी ने सुप्रीम कोर्ट में जिला अदालत के फैसले को चुनौती दी थी. मस्जिद कमेटी ने कोर्ट से एक हफ्ते तक आदेश पर रोक लगाने की मांग की. आरोप लगाया कि ASI ने खुदाई भी शुरू कर दी है. इस मामले पर सुनवाई भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली बेंच ने की. मामले पर कोई टिप्पणी न करते हुए आला अदालत ने कहा कि पक्षकारों को ऊपरी अदालत से राहत मांगने का समय मिलना चाहिए. ये कहते हुए कोर्ट ने मस्जिद कमेटी को जिला अदालत के आदेश के खिलाफ हाई कोर्ट जाने के लिए 26 जुलाई तक का समय दिया.

बेंच ने कहा कि ये मियाद पूरी होने तक मस्जिद स्थल पर यथास्थिति बनाई रखी जाए. अतः 26 जुलाई की शाम 5 बजे तक मस्जिद के अंदर कोई सर्वे या खुदाई नहीं की जा सकती. वैसे सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान ASI की तरफ से भी एक बयान दिया गया था कि मस्जिद परिसर में कम से कम एक हफ्ते तक खुदाई करने की कोई योजना नहीं है. इस विषय में इलाहाबाद हाई कोर्ट में क्या सुनवाई हुई, ये जानकारी खबर लिखे जाने तक नहीं आई है.

इस सर्वे की भूमिका कैसे तैयार हुई, ये UPSC का essay type सवाल है. लेकिन हम आपको कुछ बड़े माइलस्टोंस के बारे में बता सकते हैं. वाराणसी कोर्ट ASI से सर्वे कराने की मांग पर इस साल 16 मई को तैयार हुआ था, जब इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक आदेश दिया था. 12 मई 2023 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मस्जिद के भीतर मिले एक विवादित ढांचे के साइंटिफिक सर्वे का आदेश दिया था. मस्जिद में मिले इस ढांचे को मुस्लिम पक्ष ने ‘’फव्वारा'' कहा था, तो हिंदू पक्ष ने "शिवलिंग.'' और तब हुआ विवाद. हाई कोर्ट ने आदेश में कहा था कि इस ढांचे को बिना नुकसान पहुंचाए सर्वे करना होगा. इसके जरिये पता लगाना होगा कि यह ढांचा कितना पुराना है, क्या ये वाकई शिवलिंग है या कुछ और.

अब ये सवाल बाकी रहता है कि ये मामला हाईकोर्ट कैसे पहुंचा? ये समझने के लिए बीते साल के अक्टूबर में जाना होगा. श्रंगार गौरी की पूजा की अनुमति मांगने वाली पांच महिलाओं में से चार ने जिला अदालत से विवादित ढांचे की कार्बन डेटिंग की मांग की थी. लेकिन 14 अक्टूबर को वाराणसी की ज़िला अदालत ने इस मांग को खारिज कर दिया था. निचली अदालत से मांग खारिज होने के बाद इन महिलाओं ने हाई कोर्ट का रुख किया. याचिकाकर्ता महिलाओं की ओर से कोर्ट में पेश हुए वकील विष्णुशंकर जैन ने मीडिया को बताया था कि हाई कोर्ट ने पहले ही ASI से रिपोर्ट मांगी थी. पूछा गया था कि ऐसे कौन से तरीके हैं जिससे उस आकृति का नुकसान किए बगैर उसकी प्रकृति का पता लगाया जा सकता है. विष्णु जैन के मुताबिक, ASI ने हाई कोर्ट के सामने 52 पन्नों की रिपोर्ट फाइल की थी. रिपोर्ट में ASI ने उन सभी वैज्ञानिक तरीकों के बारे में कोर्ट को बताया था, जिससे उस ढांचे की प्रकृति का पता लगा सकते हैं. हाई कोर्ट ने इसी आधार पर निचली अदालत का फैसला पलट दिया.

इसके बाद याचिकाकर्ता महिलाएं फिर वाराणसी कोर्ट पहुंचीं. कहा कि ASI से सर्वे कराया जाए. लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक, याचिका दायर करने वाली महिलाओं ने आवेदन में लिखा कि जहां पर मस्जिद है वहां 'स्वयंभू ज्योतिर्लिंग' लाखों सालों से है. हालांकि मुस्लिम शासकों ने इस पर कई बार हमले किये. याचिका में ये दावा भी किया गया कि साल 1669 में मुगल शासक औरंगजेब ने इसी जगह पर मौजूद भगवान आदिविशेश्वर के मंदिर को गिराने का फरमान जारी किया था. याचिका में ये भी कहा गया कि इंदौर की रानी अहिल्याबाई होल्कर ने 1777-1780 के बीच काशी विश्वनाथ के नाम पर एक नया मंदिर बनवाया था.

इन दलीलों के साथ आवेदन में ASI को कुछ निर्देश देने की मांग की गई थी:
1. सुप्रीम कोर्ट ने जिस जगह को सील करवाया है उसे छोड़कर मस्जिद परिसर का सर्वे कराया जाए.
2. जीपीआर सर्वे, खुदाई, डेटिंग मेथड और दूसरी आधुनिक तकनीकों से वैज्ञानिक जांच कराई जाए.
3. साइंटिफिक तरीके से मस्जिदी की पश्चिमी दीवार की उम्र और ढांचे की प्रकृति का पता लगाया जाए.
4. मस्जिद के गुंबदों के नीचे ग्राउंड पेनिट्रेटिंग रडार (GPR) सर्वे करवाएं.
5. इमारत के पिलर्स और चबूतरों की कार्बन डेटिंग कराई जाए.
6. इसके अलावा मस्जिद के अलग-अलग हिस्से में जितनी भी पुरानी कलाकृतियां हैं उसकी जांच हो.

> इस पूरे किस्से में दो बातें बार-बार आ रही हैं. पहला, ग्राउंड पेनिट्रेटिंग रडार (GPR) सर्वे. ये जमीन के नीचे की सतह के सर्वे का सबसे आधुनिक तरीका है. इसके लिए इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगों का इस्तेमाल होता है. और बिना जमीन में खुदाई करे अंदर की सतह में दबी चीजों का पता लग सकता है. GPR सर्वे के जरिये मेटैलिक और नॉन मेटैलिक चीजों का पता कर सकते हैं. जैसे कोई धातु, प्लास्टिक, कंक्रीट से बने ढांचे. लेकिन कितनी गहराई तक?  ये इस बात पर निर्भर करता है कि आप किस क्षमता यानी किस फ्रीक्वेंसी की मशीनों का इस्तेमाल कर रहे हैं.

> दूसरा है कार्बन डेटिंग. कोई सभ्यता कितनी पुरानी है, इसका पता लगाने के लिए खुदाई में मिली कुछ चीजों की कार्बन डेटिंग के बारे में आपने कभी न कभी जरूर सुना होगा. कार्बन डेटिंग एक ऐसा तरीका है, जिससे कोई चीज कितनी पुरानी है, इसका पता लगाया जाता है. कार्बन डेटिंग से लकड़ी, मिट्टी की चीजें, कई तरह की चट्टानों वगैरह की उम्र का अंदाजा लगाया जाता है. कार्बन डेटिंग का तरीका इस तथ्य पर आधारित है कि सभी जीवों और जीवों के अंश से बनी चीजों में कार्बन होता है. इसी कार्बन के आधार पर उस चीज की उम्र कैलकुलेट की जाती है.

यहां एक बात पर गौर करना आवश्यक है. ये दोनों वैज्ञानिक तरीके हैं और दुनियाभर में प्रचलित हैं. लेकिन इनके नतीजे निष्कर्ष नहीं पेश करते. वो पेश करते हैं डेटा. माने जानकारी. इस डेटो को देखकर विशेषज्ञ अपनी एक्सपर्ट ओपीनियन देते हैं. साथ में ये भी बताते हैं कि जो अनुमान वो दे रहे हैं, उसमें मार्जिन ऑफ एरर क्या है. आपने कई बार सुना होगा, कि अमुक खुदाई में मिली मूर्ति ईसा पूर्व 3 से 5 सदी पुरानी है. ये दो सदियों का अंतर मार्जिन ऑफ एरर है. ये एरर जितना कम होगा, नतीजे या एक्सपर्ट ओपनीनियन उनते ही स्पष्ट माने जाएंगे. सर्वे किसी खुदाई में मिली चीज़ों की आकृति और प्रकृति बता सकता है. वो प्रकृति संकेत क्या देती है, वो कोई इंसान ही तय कर सकता है.

ये हो गई तकनीकी बातें. इस पूरे विवाद में एक दूसरा पक्ष है, तभी लड़ाई कोर्ट में है. 24 जुलाई 2023 को सुप्रीम कोर्ट में ज्ञानवापी मस्जिद कमिटी की तरफ से सीनियर वकील हुजेफा अहमदी ने अपील की थी. अहमदी ने कहा कि मस्जिद परिसर में खुदाई से ढांचे को भारी नुकसान होगा. उन्होंने कहा कि वाराणसी कोर्ट का ऑर्डर सुप्रीम कोर्ट के पिछले आदेश का उल्लंघन है जिसमें मस्जिद की वैज्ञानिक जांच के निर्देश को स्थगित किया गया था.

इसके अलावा अहमदी ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट में मस्जिद कमेटी की एक और याचिका लंबित है. दरसअल, वाराणसी की स्पेशल कोर्ट ने हिंदू पक्ष की उस याचिका को सुनवाई के योग्य माना था जिसमें ज्ञानवापी परिसर को हिंदुओं को सौंपने के साथ-साथ परिसर के भीतर मिले ढांचे (जिसे हिंदू पक्ष शिवलिंग बता रहे हैं) उसकी पूजा करने की भी मांग की गई थी. इसके अलावा श्रृंगार गौरी की नियमित रूप से पूजा करने की मांग वाली याचिका को लोउर कोर्ट ने सुनवाई के योग्य माना था. अहमदी ने कहा कि इस सबके खिलाफ याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, ऐसे में सर्वे की अनुमति नहीं दी जा सकती है.

ज्ञानवापी मस्जिद कमेटी सुप्रीम कोर्ट में पहले से इस मुद्दे पर लड़ाई लड़ रही है. मस्जिद कमेटी का कहना है कि मस्जिद के धार्मिक ढांचे में बदलाव की कोशिश की जा रही है. इसके लिए मुख्य रूप से तीन कानूनों का हवाला दिया जा रहा है.

1. 1991 का प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट
2. वक्फ बोर्ड अधिनियम 1995
3. 1983 का उत्तर प्रदेश काशी विश्वनाथ मंदिर एक्ट

1991 का प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट यानी पूजा स्थल कानून. इस कानून को 1991 में प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार के समय बनाया गया था. कानून कहता है कि 15 अगस्त, 1947 को देश में धार्मिक स्थलों की जो स्थिति रही, वही स्थिति बरकरार रहेगी. अधिनियम की धारा 3 कहती है कि कोई भी व्यक्ति किसी धार्मिक संप्रदाय के किसी उपासना स्थल का किसी अलग धार्मिक संप्रदाय के उपासना स्थल में परिवर्तन नहीं करेगा. इसका उल्लंघन करने पर 3 साल तक की जेल हो सकती है और जुर्माना भी लगाया जा सकता है.

इस कानून के तहत आजादी के समय के सभी धार्मिक स्थलों कवर किया गया था, सिवाय राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले के. अधिनियम की धारा 4(2) में ये कहा गया है कि 15 अगस्त 1947 को मौजूद किसी भी पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र में बदलाव से जुड़ा कोई मुकदमा, अपील या अन्य कार्यवाही किसी भी अदालत, न्यायाधिकरण या अन्य प्राधिकरण के समक्ष लंबित है, वो समाप्त हो जाएगी. ये आगे निर्धारित करता है कि ऐसे मामलों पर कोई नई कार्यवाही शुरू नहीं की जाएगी. कानून की धारा 5 में प्रावधान है कि ये एक्ट रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले और इससे संबंधित किसी भी मुकदमे, अपील या कार्यवाही पर लागू नहीं होगा.

दूसरा वक्फ बोर्ड अधिनियम 1995, जिसके तहत ज्ञानवापी मस्जिद को वक्फ बोर्ड की संपत्ति बताया गया है. यानी बोर्ड ज्ञानवापी को मस्जिद के तौर पर मान्यता देता है. इससे संबंधित अधिकार यूपी सुन्नी सेंट्रल बोर्ड ऑफ वक्फ लखनऊ को है. ऐसे में इस अदालत को सुनवाई का क्षेत्राधिकार नहीं है.

1983 का उत्तर प्रदेश काशी विश्वनाथ मंदिर एक्ट, जिसके तहत संपूर्ण काशी विश्वनाथ परिसर की देखरेख के लिए बोर्ड ऑफ ट्रस्टी बनाने का प्रावधान है. बोर्ड ऑफ ट्रस्टी को ही श्री काशी विश्वनाथ मंदिर और उसके परिसर के देवी-देवताओं के प्रबंध का अधिकार मिला है. दावा किया गया कि श्रृंगार गौरी उस दायरे में नहीं आता.

रही बात ज्ञानवापी परिसर के संपूर्ण इतिहास की, तो इस विषय पर हमने तफ़्सील से एक लल्लनटॉप शो किया था. उसका लिंक हम डिस्क्रिप्शन में डाले दे रहे हैं. अभी एक ब्रीफ़ अकाउंट दे देते हैं. सालों से चला आ रहा विवाद है: ज्ञानवापी मस्जिद है या मंदिर? क्या मंदिर तोड़कर मस्जिद तामीर की गई? मस्जिद, बनी तो बनी कब? मस्जिद का नाम ज्ञानवापी कैसे है? तमाम सवालों के अक्स में इतिहास भी उधेड़बुन में उलझा हुआ है. बहुतेरी किताबें लिखी गईं. जितनी किताबें, उतने दावे. हम बस सबका पक्ष आपके सामने रख देंगे.

काशी विश्वनाथ मंदिर और उससे लगी हुई ज्ञानवापी मस्जिद. दोनों के निर्माण और पुनर्निमाण को लेकर लिखित दस्तावेज़ कम हैं. कई तरह की धारणाएं और किमवदंतियां हैं. मगर इस बात पर ज़्यादातर इतिहासकार एकमत हैं कि काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ा ज़रूर गया था.

> पहला ज़िक्र आता है 11वीं सदी का. दावा है कि 1194 में मोहम्मद गोरी के कमांडर कुतुबुद्दीन एबक ने काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ा.

> फिर एक कहानी ये आती है कि मंदिर पर दूसरा हमला 1447 में हुआ. हमला किया था जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने. माने ढाई सौ साल के भीतर दो हमले.

> मंदिर के पुननिर्माण की कहानी 1585 की बताई गई है. देश में तीसरे मुग़ल बादशाह अकबर का राज था. उनके 9 रत्नों में से एक राजा थे, टोडरमल. कथित तौर पर राजा टोडरमल ने 1585 में पंडित नारायण भट्ट को काशी विश्वनाथ मंदिर के फिर से जीर्णोद्धार की ज़िम्मेदारी दी थी. कथित तौर पर इसलिए कि कुछ तारीख़-दाँ पुननिर्माण का श्रेय अकबर को देते हैं.

> पुननिर्माण तो चलिए हो गया मंदिर का. लेकिं वहां मस्जिद कब आई? कई इतिहासकारों का दावा है कि अकबर के ही समय में मंदिर और मस्जिद साथ बनाए गए थे. लेकिन इसका कोई पुख़्ता प्रमाण नहीं दे पाता. मुस्लिम पक्ष की तरफ़ से अब्दुल बातीन नोमानी का दावा है कि मस्जिद अकबर के समय में ही बनाई थी और बाद में औरंगजेब ने इस फिर बनवाया.

> नाम आ ही गया है, तो औरंगज़ेब के दौर की बात भी कर लेते हैं. इस कहानी का सबसे बड़ा कथित विलेन. विलेन हम इसलिए कह रहे हैं, कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू समेत कई स्कॉलर्स ने लिखा है कि औरंगजेब ने मंदिरों को तोड़ा था. और, काशी विश्वनाथ पर भी हमला उसी ने करवाया था. हालांकि, इस मसले पर मतातंर हैं.

> मंदिर को तीसरी बार कब तोड़ा गया? इस जानकारी लिए मासिर-ए-आलमगीरी को रेफ़र किया जाता है. आलमगीर माने औरंगजेब के फ़रमानों के दस्तावेज़. इस किताब के हिंदी तर्जुमे के मुताबिक़, औरंगजेब ने 8 अप्रैल 1669 को बनारस के तमाम मंदिरों को ध्वस्त करने का आदेश दिया था. इसी किताब में आगे ज़िक्र है, कि आदेश के दो महीने बाद औरंगजेब की सभा में उसे यह जानकारी दी गई कि उसके फरमान पर अमल किया जा चुका है. लेकिन फिर हिंदी-फारसी और ग़लत तर्जुमे की राजनीति तथ्यों की आड़ में आ जाते हैं.

> औरंगजेब ने मंदिर को तोड़ने का आदेश क्यों दिया? इस पर इतिहासकार अलग-अलग राय रखते हैं. 

> नाम ज्ञानवापी क्यों हैं? इस पर जवाब आता है कि मस्जिद का असल नाम आलमगीरी मस्जिद था. ज्ञानवापी मोहल्ले के नाम था. बाद में मोहल्ले की वजह से इसे ज्ञानवापी मस्जिद ही कहा जाने लगा. जितने मुंह, उतनी बातें. जितने इतिहासकार, उतने दावे.

> औरंगज़ेब के बाद से मामला ठंडे बस्ते में था. फिर 1984 में मंदिरों का राजनीतिकरण शुरू हुआ. हिंदुओं के लिए 'पहली धार्मिक संसद' बैठी. नई दिल्ली में. 558 हिंदू संतों ने तीन महत्वपूर्ण हिंदू मंदिरों पर दावा करने की अपील की: अयोध्या, मथुरा और काशी. जहां कथित तौर पर मस्जिदें बनाई गई थीं.

> ज्ञानवापी मस्जिद केस में पहली कानूनी याचिका दाखिल की गई, 1991 में. वाराणसी के पुजारियों ने वाराणसी सिविल कोर्ट में याचिका दायर की, कि उन्हें मस्जिद के भीतर प्रार्थना करने की अनुमति दी जाए.

> इस बीच, बाबरी मस्जिद विवाद को देखते हुए पी.वी. नरसिम्हा राव सरकार ने राज्यसभा में पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम या Place of Worship (Act) पारित कर दिया.

> मामला ठंडे बस्ते में था. क्योंकि फ़ोकस अयोध्या था. पहले राम, फिर शंकर. फिर दिसंबर 2019 में - अयोध्या फैसले के बमुश्किल एक महीने बाद - वाराणसी सिविल कोर्ट में एक नई याचिका दायर की गई. कि ज्ञानवापी मस्जिद का archaeological assessment हो.

हमने यहां आपको इतिहास का एक रीकैप दिया. और अदालत में चल रही सुनवाई के बारे में भी बताया. इस विषय को दी लल्लनटॉप नियमित रूप से कवर करता रहेगा. और सारी तथ्यपरक जानकारी आप तक पहुंचती रहेगी. इस वादे के साथ आज आपसे लेते हैं विदा.