रमज़ान के बारे में सवाल तो बहुत होंगे, मगर यहां हम आपको मोटामाटी सवालों के जवाब दे रहे हैं जो किसी के भी मन में आ सकते हैं.
1. ये रमज़ान है या रमादान
सोशल मीडिया पर लोग एक्टिव हो गए. रमज़ान आया तो मुबारकबाद देने लगे. कुछ ने लिखा रमादान मुबारक तो किसी ने लिखा रमज़ान मुबारक. तो बहस शुरू हो गई कि ये रमज़ान है या रमादान? रमादान अरबी लफ्ज़ है, जबकि रमज़ान उर्दू का. रमादान और रमज़ान के पीछे की कहानी ये बताई जाती है कि अरबी भाषा में 'ज़्वाद' अक्षर का स्वर अंग्रेज़ी के 'ज़ेड' के बजाए 'डीएच' की संयुक्त ध्वनि होता है. इसीलिए अरबी में इसे रमादान कहते हैं. लेकिन इस तर्क से सभी मुस्लिम स्कॉलर इत्तेफाक नहीं रखते. वो कहते हैं जब रमज़ान, रमादान है तो फिर रोज़े को 'रोदे' और ज़मीन को दमीन कहा जाना चाहिए. और अगर ऐसा बोला गया तो कोई भी उसे तोतला समझ लेगा. खैर इस फेर में नहीं पड़ते. क्योंकि लोगों की भावनाएं आहत हो जाती हैं. ये सब उच्चारण का हेरफेर है. हम अगला सवाल करते हैं.2. रमज़ान असल में है क्या?
रमज़ान मुस्लिमों का पूरे साल में सबसे पवित्र महीना है. पैगंबर मुहम्मद साहब (अल्लाह के दूत) के मुताबिक,'जब रमज़ान का महीना शुरू होता है तो जहन्नुम के दरवाज़े बंद कर दिए जाते हैं और जन्नत के दरवाज़े खोल दिए जाते हैं.'
यानी ये महीना नेकियों का महीना है. जिसमें मुस्लिम रोज़ा रखने के अलावा कुरान की तिलावत (पढ़ते) पूरी कसरत से करते हैं. माना जाता है जितना कुरान पढ़ेंगे उतना सवाब होगा. गुनाह माफ़ होंगे और जन्नत के हकदार बनेंगे. रोज़े 30 दिन के भी हो सकते हैं और 29 दिन के भी. ये बात भी चांद पर ही डिपेंड करती है कि वो कब अपना दीदार कराता है. जिस रात को चांद दिखता है उससे अगली सुबह ईद का दिन होता है.

कुरान जो मुस्लिमों का धर्मग्रंथ है, वो भी इसी महीने में नाज़िल (दुनिया में आया) हुआ बताया जाता है. मुसलमानों के मुताबिक जिस रात कुरान की आयत आई उसे अरबी में 'लैलातुल क़द्र' यानी 'द नाईट ऑफ़ पावर' कहा जाता है. रमज़ान के महीने में रात कौन सी है इस बारे में शिया मुस्लिम और सुन्नी मुस्लिम में मतभेद है.
मुसलमानों के मुताबिक ये वो महीना जब इंसान अल्लाह के करीब आ जाता है क्योंकि वो नेक अमाल अंजाम देता है. गुनाहों से बचने की कोशिश करता है. क्योंकि झूठ बोलने से भी रोज़ा नहीं होता ऐसा माना जाता है. तो ऐसे में मुसलमान चाहता है कि जब वो पूरे दिन भूखा प्यासा रहा ही है तो क्यों न उसका रोज़ा भी पूरा हो जाए.
3. रोज़ा कैसे रखा जाता है?
रोज़ा इस्लाम के फाइव पिलर में से एक है. जो सभी बालिग़ पर वाजिब है. यानी उन्हें पूरे महीने के रोज़े रखने ही रखने हैं. फाइव पिलर हैं. कलमा (अल्लाह को एक मानना), नमाज़, ज़कात (दान), रोज़ा और हज (मक्का में काबा).जो बीमार हैं. जो यात्रा पर हैं. जो औरतें प्रेग्नेंट हैं. जो बच्चे हैं. बस उन्हें ही रोज़ा रखने से छूट दी गई है. रोज़ा रखने वाले तड़के में सूरज के निकलने से पहले जो भी खाना पीना है, वो कर सकते हैं. इसके बाद पूरे दिन न तो कुछ खाना है और न पीना है. पीना मतलब सिगरेट, बीड़ी का धुआं भी नहीं. न ही बीवी शौहर से और न शौहर बीवी से सेक्स के बारे में सोच सकता है. खाने पीने के बारे में ये समझिए कि अगर रोज़ा है तो मुंह का थूक भी अंदर नहीं निगल सकते. यानी संतरे देखकर मुंह में पानी आया तो वो भी निषेध है.
ये वो महीना है जब मुस्लिम किसी से जलने. किसी की चुगली करने, गुस्सा करने से परहेज़ करते हैं. पूरी तरह से खुद को संयम में रखने का महीना है. तभी रोज़ा पूरा होता है.
शाम को सूरज छिपता है. खाने पकाने के इंतजाम सवेरे से ही होने लगते हैं. चाट-पकौड़ियां. तरह तरह के लज़ीज़ खाने. शाम को अगर दस्तरख्वान देखा जाए तो दिल ललचा जाए. तड़के में जब खाते हैं तो उसे 'सहरी' और जब शाम को खाया जाता है तो उसे 'इफ्तार' कहा जाता है. यानी ये पूरा महीने का उत्सव भी है.

आप इस फोटो में पंडित असगर को भी देख सकते हैं, पुराने दफ्तर में इफ्तार पार्टी की फोटो है.
4. कितना मुश्किल होता है रोज़ा?
गार्मियों में दिन करीब 15 से 17 घंटे तक का होता है. और जब जून के महीने में रोज़े आते हैं तो ये और भी मुश्किल होते हैं. क्योंकि सूरज महाराज अपनी तपिश से ज़मीन को भी शोला बनाने की चाहत रखते हैं. और रोज़ेदार पानी भी नहीं पीते. ऐसे में बॉडी में पानी की कमी होने लगती है. और जिस्म टूटकर चूर हो जाता है.सुबह में सहरी के लिए जल्दी उठना पड़ता है. नमाज़ पढ़नी होती है. कुरान की तिलावत करनी होती है. फिर शाम को तरावीह पढ़नी होती हैं. तरावीह में कुरान ही पढ़ा जाता है, मगर वो नमाज़ की तरह पढ़ा जाता है. इसको पढ़ने में कम से कम एक घंटा तो लगता ही है. ऐसे में देर से सोना भी होता है. जल्दी उठना, देर से सोने की वजह से नींद भी पूरी नहीं होती.
5. क्या रमज़ान में वज़न घट जाता है?
रोज़ेदार पूरा दिन कुछ नहीं खाते. ऐसे में ये सवाल उठना लाज़िमी है कि जब कुछ नहीं खाते तो वज़न घट जाता होगा. कुछ तो कहते हुए भी मिल जाएंगे कि रमजान में वज़न घट जाता है. लेकिन ऐसा है नहीं. रमज़ान में वज़न घटता नहीं बढ़ जाता है, क्योंकि सहरी और इफ्तार में खाना खाया जाता है, वो इतना हैवी होता है कि उनमें खूब प्रोटीन, वसा होता है. जो वज़न नहीं घटने देता. दूसरा पूरे दिन के इतने थके होते हैं कि सहरी और इफ्तार में खाने के बाद टहला नहीं जाता. जिस वजह से वो खाना हज़म नही हो पाता.6. हर साल रमज़ान की तारीख क्यों बदल जाती है मियां?
इसकी वजह है इस्लामिक कैलेंडर, जो चांद के मुताबिक होता है. जिसके साल में 354 दिन होते हैं. अंग्रेजी कैलेंडर की तरह 365 दिन नहीं. इसलिए हर साल 13 दिन कम हो जाते हैं. और इस तरह हर त्योहार मुस्लिमों का 11 दिन पहले आ जाता है. ये ही वजह है कि रोज़े जो कुछ साल पहले सर्दियों में आते थे वो अब गर्मियों में आने लगे. इस चांद की हेरा फेरी में ही गूगल देवता भी रमज़ान की डेट बताने के धोखा खा जाते हैं.
गूगल का स्क्रीनशॉट.
7. क्या शिया मुस्लिम और सुन्नी मुस्लिम के रोज़े अलग होते हैं.
रोज़ा रखने में कोई फर्क नहीं होता. हां, सहरी करने और इफ्तार करने के वक़्त में थोड़ा फर्क ज़रूर होता है. मिसाल के तौर पर सुन्नी मुसलमान अपना रोजा सूरज छिपने पर खोलते हैं. मतलब उस वक्त सूरज बिल्कुल दिखना नहीं चाहिए. वहीं शिया मुस्लिम आसमान में पूरी तरह अंधेरा होने तक इंतजार करते हैं. ऐसे ही तड़के में सुन्नी मुस्लिम से 10 मिनट पहले ही शिया मुस्लिम के खाने का वक़्त ख़त्म हो जाता है.8. जब रमज़ान में झूठ, चुगली, गुस्सा सब मना है तो फिर अल कायदा या ISIS जैसे आतंकी इतना ज़ुल्म क्यों ढहाते हैं?
इसका एकदम सीधा सपाट जवाब है. 'आतंकियों का कोई धर्म नही होता.'ये भी पढ़िए :