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'जब नाटक में रोई तवायफ का रोल प्ले करती बच्ची'

रेडियो जुबानी-5: 'बड़े भाई को थप्पड़ मारने का किस्सा सालों बाद बना रेडियो नाटक का हिस्सा. ये कलाकार लोग पागल होते हैं क्या?'

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पेश है ‘दी लल्लनटॉप’ की नई सीरीज ‘रेडियो जुबानी’ की 5वीं किस्त. इस सीरीज में हम आपको महेंद्र मोदी के लिखे रेडियो से जुड़े किस्से पढ़ा रहे हैं. बीकानेर में पैदा हुए महेंद्र मोदी मुंबई में रहते हैं. रेडियो में 40 साल से ज्यादा का एक्सपीरियेंस है. विविध भारती मुंबई में लंबे वक्त तक सहायक केंद्र निदेशक रहे.mahendra modi-2 पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी किस्त में आपने छोटे से बच्चे की रेडियो के लिए शुरुआती दीवानगी पढ़ी. अब पढ़िए कि जब बड़े भाई को थप्पड़ मारने का किस्सा सालों बाद बना रेडियो नाटक का हिस्सा.
  नाटक हर इंसान की. नहीं, शायद इंसान ही नहीं, हर प्राणीकी ज़िंदगी का एक ज़रूरी हिस्सा होता है. आपने देखा होगा कुत्ते अक्सर आपस में खेलते हैं. एक दूसरे को काटने का अभिनय करते हैं. मगर चोट नहीं पहुंचाते. आपका पालतू कुत्ता जब आपके साथ खेलना चाहता है तो आपके सामने आकर भौंकने लगता है. भौंकने के साथ साथ उसकी पूंछ हिलती है तो आप समझ जाते हैं कि वो वास्तव में नाराज़ होकर नहीं भौंक रहा बल्कि आपके साथ खेलना चाहता है और आप भी उसकी भाषा समझकर ज़रा सा नाटक करते हैं यानी उठने का अभिनय करते हैं तो वो दौड़ पड़ता है ताकि आप उसके पीछे दौड लगाएं और आप दौड़ते हैं.
कभी आप उसके पीछे और कभी वो आपके पीछे और जब भी मौका मिलता है, वो आपको काटने का नाटक करने लगता है. ये खेल इसी तरह चलता रहता है जब तक कि आप थक कर बैठ नहीं जाते. तब वो आपके पास आकर आपको काटने का नाटक करने लगता है और फिर आपकी गोद में लोटने लगता है.
मैं जब भी बीकानेर जाता हूं. मेरी जर्मन शेफर्ड शैरी बड़े लाड प्यार से मुझसे मिलती है. आकर लिपट जाती है और काफी समय तक छोड़ती ही नहीं. वो पलंग के उसी तरफ बैठती है जिधर मैं लेटता हूं. भाभी शैरी को उलाहना भी देती हैं कि वो मौक़ापरस्त है. मेरे वहां जाने के बाद वो उनके पास नहीं जाती है. मेरे पास ज्यादा रहती है. मेरे वहां जाने के बाद वो दूध रोटी खाना बिल्कुल छोड़ देती है. मैं जानता हूं, उसे मछली बहुत पसंद है और जब भी मैं वहां जाता हूं, चाहे कुछ भी हो जाए. उसे मछली लाकर ज़रूर खिलाता हूं जोकि भाई साहब नहीं कर पाते. मेरे पास आकर वो ज़ोर ज़ोर से भौंकने लगती है मानो कह रही हो, मुझे मछली खिलाओ. मगर वो भौंकना बहुत प्यार भरा होता है और साफ़ लगता है कि वो नाटक कर रही हैं क्योंकि भौंकने के साथ साथ पूंछ हिलाती जाती है. मेरे भाई साहब जो कि एक डॉक्टर हैं हमेशा कहा करते हैं कि जिस प्राणी में जितना ज़्यादा ग्रे मैटर होता है उसमें उतनी ही ज़्यादा बुद्धि होती है. तो इस हिसाब से इंसान के एक बच्चे में भी कुत्ते से ज़्यादा अक्ल होती है और जिसमें जितनी ज़्यादा अक्ल होती है वो उतना ही ज़्यादा नाटक कर सकता है. आप ये न समझें कि मैं नाटक वालों को ज़्यादा बुद्धिमान साबित करने की कोशिश कर रहा हूं. मैं तो सिर्फ नाटक की जो सबसे छोटी और सरल परिभाषा है उसकी बात कर रहा हूं. “आप जब वो बनते हैं जो आप नहीं हैं तो आप नाटक करते हैं'. मैं बस यही कहना चाहता हूं. आज भी मेरा पोता टाइगर कभी कभी कहता है “दादू आप स्टूडेंट हैं और मैं टीचर” तो मुझे स्टूडेंट बनना पड़ता है या फिर मेरी नातिन नैना मेरी मां बनकर खाना परोसती है तो मुझे झूठमूठ ही वो खाना खाना होता है जो प्लेट में कहीं नहीं होता.
आपने भी देखा होगा कि अक्सर लडकियां दुपट्टे को साड़ी की तरह पहनकर घर घर खेलती हैं. खाना बनाती हैं और बच्चों को धमकाती हैं फिर प्यार से समझाती हैं. आज, टीवी, कंप्यूटर और वीडियो गेम्स, न जाने क्या क्या है, जिन्होंने इन सब खेलों से बच्चों को बहुत दूर कर दिया है. मेरा पोता टाइगर आई पैड पर तरह तरह के खेल खेलता है मगर फिर भी मुझे लगता है, मेरा टीचर बनने में जो सुख उसे मिलता है वो उस आई पैड में उसे कतई नहीं मिलता होगा.
मेरा मोहल्ला शेखों का मोहल्ला कहलाता था और इन शेखों के साथ हम लोगों के खेलने खाने के सम्बन्ध नहीं हुआ करते थे. इन लोगों को बस हमारे घर की देहरी तक ही आने की इजाज़त थी. मेरे पड़ोस में कुंदन भाई का घर था. उससे बिल्कुल जुड़ा हुआ सोहन बाबो जी का घर था. जो मेरे पिताजी की मौसी के बेटे थे. सोहन बाबोजी की एक ही औलाद थी, पूनम भाई जी. बहुत रोचक कैरेक्टर थे वो. 1993 में जब मैं उदयपुर में पोस्टेड था. एक साप्ताहिक हास्य धारावाहिक शुरू किया था मैंने. वैसे तो इस धारावाहिक को मेरे साथी कुलविंदर सिंह कंग लिखा करते थे मगर कुछ एपिसोड्स मैंने भी लिखे. उस धारावाहिक का एक चरित्र मैंने दो लोगों को मिलाकर गढा. एक मेरा छात्र सत्यप्रकाश और दूसरे पूनम भाई जी. इन दोनों का विस्तार से ज़िक्र तब आएगा जब मैं उदयपुर की बात करुंगा. मेरे दूसरे ताऊ जी दीना नाथ जी थे, जिनको हम सब “बा” कहते थे. उनका घर हमारे घर से थोड़ा सा दूर, सड़क के उस पार था. वो मेरे पिताजी के मामा के बेटे थे. बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में, जब मेरे पिताजी सिर्फ पौने दो साल के थे. मेरे परिवार में एक बहुत बड़ी दुर्घटना हो गई थी. मेरे दादा जी और उनके दस बच्चे, पूरे देश में तबाही मचाने वाली प्लेग की बीमारी में, चार दिनों में श्मशान घाट पहुंच गए थे. यानि एक झटके में एक भरा पूरा घर खाली हो गया था. घर में बच गई थीं मेरी दादी. अपनी गोद में पौने दो साल का एक बच्चा लिए हुए.
मेरे दादाजी की सारी ज़मीन जायदाद, सोना चांदी, मेरे दादा जी के क़रीबी रिश्तेदार खा गए. ऐसे वक्त में मेरे पिताजी के मामा जी, मेरी दादी जी और मेरे पिताजी को अपने घर ले गए और भाई बहन दोनों ने मिलकर पिताजी और “बा” दोनों को पाला पोसा. क्योंकि “बा” की मां की मृत्यु पहले ही हो चुकी थी. इस प्रकार मेरे पिताजी और “बा” की परवरिश एक साथ हुई. नतीजा, जब तक वो ज़िंदा रहे, दोनों में सगे भाइयों से भी ज़्यादा प्यार रहा.
बा बहुत पढ़े लिखे थे. उस ज़माने में स्कूल में हैड मास्टर ही सबसे बड़ी पोस्ट हुआ करती थी और वो एक हैड मास्टर थे. कई किताबें लिखी थी उन्होंने. आज भी ‘बीकानेर के इतिहास’ पर, उनकी और नरोत्तम दास स्वामी की लिखी किताब, एक प्रामाणिक किताब मानी जाती है. उनकी एक बहुत बड़ी सी लाइब्रेरी थी. इसी लाइब्रेरी की कुछ किताबें 1981 में मैंने अपनी ताई जी से लेकर अपने स्टेशन डायरेक्टर श्री उमेश दीक्षित को दी थी. ये लायब्रेरी कैसे बाद में जाकर दहीबडों और कचौरियों में बदल गयी ये मैं सूरतगढ़ वाले एपिसोड्स में लिखूंगा. हां तो मैं बता रहा था 'बा' के बारे में. उनकी पोस्टिंग अक्सर बीकानेर से बाहर के स्कूलों में रहती थी. छुट्टियों में जब डेढ़ महीने के लिए वो बीकानेर आते थे तो मेरे लिए वो साल का सबसे सुनहरा वक्त होता था. उनके आठ बच्चे थे, पांच लड़के और तीन लडकियां. चार लड़के मुझसे बहुत बड़े थे मगर एक लड़का रतन और तीन लड़कियां विमला, निर्मला और मग्घा मेरे हमउम्र थे क्योंकि इन सबकी उम्र में एक-एक साल का अंतर रहा होगा.
जब भी छुट्टियों में वो बीकानेर आते थे. बस हम पांचों लोग दिन रात साथ ही रहते थे. कई बार इस बात के लिए मुझे और उन लोगों को डांट भी पड़ती थी, मगर हम लोग उस डाट को सह लेते थे और साथ साथ ही रहते थे. मेरे घर की छत पर एक टूटा हुआ पलंग था और एक टूटी हुई तीन पहियों की साइकिल. टूटी हुई साइकिल को पलंग में कुछ इस तरह फंसा लिया जाता था कि साइकिल का पहिया स्टीयरिंग की तरह लगने लगता था और बस हमारी शानदार गाड़ी तैयार. सच बता रहा हूं.
जो थ्रिल बचपन में उस टूटे पलंग और टूटी साइकिल से बनी गाड़ी को चलाने में महसूस होता था, आज अपने घर में मौजूद कैप्टिवा से लेकर स्विफ्ट तक किसी को भी चलाने में नहीं होता . हम अपनी उस शानदार गाड़ी में सवार होकर निकल पड़ते थे. शिकार के लिए वो ज़माना था, जब शिकार एक ज़रूरी हिस्सा हुआ करता था, राजाओं और राजकुमारों के जीवन का. बस कल्पना में हम सभी राजकुमार और राजकुमारियां घने जंगल में पहुंच जाते थे. जंगल में कभी सामने शेर आता था और कभी हिरन. यही नाटक घंटों चलता रहता था और हम कई शेरों और कई हिरणों का शिकार करके अपनी उस शानदार गाड़ी में लाद कर घर लौटते थे चाहे लौटकर कितनी भी डांट पड़े. क्या था ये सब? एक नाटक ही तो था न? इस मौके पर एक नाटक और याद आ रहा है मुझे. बहुत छोटा था मैं शायद 3-4 साल का. हम लोग चूनावढ में रहते थे. जिसका ज़िक्र मैं पहले एक एपिसोड में कर चुका हूं. मैं और मेरे भाई साहब बस दो ही पात्र थे इस नाटक के. शुरू से ही पता नहीं क्यों भाई साहेब हमेशा छोटा भाई बनते थे और मैं बड़ा भाई. एक दिन इसी तरह हमारा खेल चल रहा था. मैं हस्बेमामूल बड़े भाई के रोल में था और भाई साहब छोटे भाई के रोल में. खेलते खेलते वो मुझसे बोले- भाई साहब भूख लगी है.'
मैंने झूठमूठ एक डिब्बा खोला और झूठमूठ कुछ निकाला और कहा, 'लो ये भुजिया खा लो.' उन्होंने झूठमूठ के भुजिया खा लिए और बोले- मुझे और चाहिए. मैंने उन्हें समझाकर कहा, 'ज़्यादा भुजिया खाने से पेट खराब हो जाता है'. वो बोले, थोड़े से और देदो भाई साहब. मैंने फिर उन्हें थोड़े से दे दिए. उन्होंने झूठमूठ खा लिए और फिर बोले- ऊं ऊं ऊं थोड़े और दो भाई साहब......ऊं ऊं ऊं.... दे दो ना.
मुझे पता नहीं क्या हुआ. और पता नहीं कैसे. मैंने खींच कर एक थप्पड़ जमा दिया भाई साहब को और बोला- समझ नहीं आता तुम्हें? ज़्यादा भुजिया खाने से पेट खराब हो जाता है? ताड़ से जो थप्पड़ लगा तो वो हक्के बक्के रह गए. उन्हें रोना आ गया और मैं......? मैं एकदम से होश में आ गया. मुझे लगा कि मैंने ये क्या कर दिया. तो मुझे भी रोना आ गया. बस हम दोनों एक दूसरे से लिपट कर रोने लगे.
पिताजी ने जब हमारा रोना सुना तो दौड़े आये और पूछने लगे- क्या हुआ, क्यों रो रहे हो? हम चुप, बस एक दूसरे से लिपटे हुए आंसू बहाए चले जा रहे थे. मैं इस घटना को कभी भूल नहीं सका. आज तक नहीं. इस घटना के 34 साल बाद, इसी घटना को आधार बनाकर मैंने एक नाटक लिखा जो आकाशवाणी इलाहाबाद से प्रसारित हुआ. इतेफाक से जब मैंने ये नाटक लिखा, उन दिनों मेरे पिताजी इलाहाबाद आये हुए थे. जब नाटक लिखकर मैंने उन्हें सुनाया. तो कहने लगे- तुम कलाकार लोग पागल होते हो क्या? हां ... शायद हम कलाकार लोग पागल ही होते हैं... तभी तो “यात्रा” नाटक के दौरान आकाशवाणी कोटा में 15 साल की छोटी सी सरिता जो, तवायफ का ठीक से अर्थ भी नहीं जानती थी, ये रोल करते करते इस तरह रो पड़ती थी कि उसे चुप कराने में हम सबको घंटों लग जाते. चुप कराने वाले भी रोने लगते.