राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने प्रेसिडेंशियल रेफरेंस के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी है. इस प्रेसिडेंशियल रेफरेंस की पृष्ठभूमि सुप्रीम कोर्ट का वह आदेश हैं जिसमें अदालत ने राष्ट्रपति और राज्यपालों को किसी राज्य के विधेयकों पर अपनी सहमति या उन्हें वापस लौटाने की समयसीमा तीन महीने तय की थी. राष्ट्रपति ने कुछ 14 सवाल पूछे हैं. उन्होंने पूछा है कि क्या सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल करके राष्ट्रपति और राज्यपालों को काम करने का तरीका तय कर सकता है? राष्ट्रपति ने यहां अनुच्छेद 143 का सहारा लिया है.
Presidential Reference क्या है? राष्ट्रपति ने इसके जरिए सुप्रीम कोर्ट से कौन से 14 सवाल पूछे हैं?
सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल, 2025 को एक अहम फैसला सुनाते हुए विधानसभा से पारित बिल पर अपना मत जाहिर करने के लिए राज्यपालों के लिए तय समय सीमा निर्धारित कर दी थी. इस विषय पर President Draupadi Murmu ने Presidential Reference के जरिए Supreme Court से 14 सवाल पूछे हैं.

जब सरकार को किसी कानूनी मुद्दे, जनहित से जुड़े किसी बड़े सवाल या राज्यों और केंद्र/राज्यों के बीच विवाद को लेकर संदेह होता है, तो वह Presidential Reference का सहारा लेती है. इसका मतलब है कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट को भेजा जाता है, जहां उस पर विचार किया जाता है और फिर कोर्ट अपनी राय राष्ट्रपति को भेज देता है.
क्योंकि सरकार संविधान के अनुसार राष्ट्रपति के नाम पर काम करती है, इसलिए मामला पहले राष्ट्रपति को भेजा जाता है. फिर राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुहर के साथ सवालों को सुप्रीम कोर्ट के पास विचार के लिए भेजती/भेजते हैं. इसी कारण इसे 'प्रेसिडेंशियल रेफरेंस' कहा जाता है.
राष्ट्रपति के पास यह अधिकार है कि अगर कोई ऐसा सवाल हो जो क़ानून से जुड़ा हो और जो देश के लिए बहुत अहम हो तो वह सुप्रीम कोर्ट से राय मांग सकती हैं. इसी राय मांगने की प्रक्रिया को ही ‘Presidential Reference’ कहते हैं.
संविधान के अनुच्छेद 143(1) में लिखा है,
अगर कभी राष्ट्रपति को लगे कि कोई कानून या तथ्य से जुड़ा सवाल सामने आया है (या आने वाला है), जो इतना महत्वपूर्ण और जनहित से जुड़ा है कि उस पर सुप्रीम कोर्ट की राय लेना जरूरी है तो राष्ट्रपति उस सवाल को विचार के लिए सुप्रीम कोर्ट को भेज सकती/सकतें हैं. फिर सुप्रीम कोर्ट, जैसा वह उचित समझे वैसी सुनवाई करके, राष्ट्रपति को अपनी राय भेज सकता है.
इसके अलावा अनुच्छेद 143(2) यह अधिकार देता है कि भारत के राष्ट्रपति कुछ ऐसे विवादों को भी सुप्रीम कोर्ट के पास राय के लिए भेज सकते हैं, जो अनुच्छेद 131 के प्रावधान के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के मूल क्षेत्राधिकार (jurisdiction) में नहीं आते.
अनुच्छेद 142संविधान का यह अनुच्छेद सुप्रीम कोर्ट को अधिकार देता है कि वह ऐसे आदेश दे सके जो न्याय सुनिश्चित करें, भले ही उससे संबंधित कोई कानून बना हो या नहीं.
अनुच्छेद 142(1) के मुताबिक,
सुप्रीम कोर्ट अपने अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत, किसी भी मामले में पूर्ण न्याय (complete justice) करने के लिए जरूरी आदेश या फैसला (decree/order) दे सकता है. ऐसे सभी आदेश या फैसले पूरे भारत में लागू होंगे. बिल्कुल वैसे ही जैसे संसद में कानून बनने के बाद होता है.
एकदम सरल भाषा में इसका मतलब समझें तो कोर्ट कानून से ऊपर नहीं, लेकिन जहां कानून में खामियां हों, वहां सुप्रीम कोर्ट ‘रिक्त स्थानों’ की पूर्ति कर सकता है. कोर्ट द्वारा दिया गया आदेश पूरे देश में लागू होगा. यह अनुच्छेद सुप्रीम कोर्ट को अद्वितीय शक्ति देता है जिसकी ज़द में हर कोई है.
राष्ट्रपति ने इसी को लेकर सुप्रीम कोर्ट से सवाल पूछे हैं कि क्या अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल कर सर्वोच्च अदालत राष्ट्रपति और राज्यपालों को आदेश दे सकता है. क्योंकि संविधान में इस बात की व्याख्या नहीं की गई है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल कितने समय में विधानसभा से पास बिलों पर फैसला लें. ना ही संसद द्वारा इस पर कोई कानून बनाया गया है.
तमिलनाडु विवाद और सुप्रीम कोर्ट का फैसलासुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल, 2025 को एक अहम फैसला सुनाते हुए विधानसभा से पारित बिल पर अपना मत जाहिर करने के लिए राज्यपालों के लिए तय समय सीमा निर्धारित कर दी थी. यह मामला तमिलनाडु सरकार बनाम राज्यपाल आरएन रवि से जुड़ा है. तमिलनाडु सरकार के 10 बिल राज्यपाल के पास विचाराधीन थे, जिनमें कुछ बिल राष्ट्रपति के पास भेजे गए थे. सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए यह भी तय किया है कि अनुच्छेद 201 के तहत जब राज्यपाल कोई बिल राष्ट्रपति की मंज़ूरी के लिए भेजते हैं, तो राष्ट्रपति को उस पर कब तक फैसला लेना है — इसकी समय-सीमा क्या होगी.
अदालतों से जुड़े मामले कवर करने वाली वेबसाइट LiveLaw के मुताबिक कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति को भेजे गए बिलों पर 3 महीने के भीतर निर्णय लेना अनिवार्य है. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा बिलों पर कार्रवाई करने की समय-सीमा भी निर्धारित की है. न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति महादेवन की पीठ ने फैसले के पैरा 391 में कहा,
“जब राज्यपाल किसी बिल को राष्ट्रपति की मंज़ूरी के लिए भेजते हैं, तो राष्ट्रपति को उस तारीख से 3 महीने के भीतर निर्णय लेना होगा.”
यही मामले में पेच है. बीजेपी ने आलोचना के स्वर में कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में राज्यपाल ही नहीं राष्ट्रपति को भी आदेश दे दिया, जो उसके क्षेत्राधिकार में नहीं आते. इसके बाद ये बहस भी छिड़ गई कि क्या सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को आदेश दे सकता है? इस फैसले पर दो धाराएं देखने को मिलीं. पहली, जिसने अदालत के आदेश को सराहा. दूसरी, जिन्होंने इस आदेश की आलोचना की. दूसरी धारा में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ से लेकर बीजेपी के बड़े नेता शामिल रहे.
बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर तीखी आलोचना करते हुए, कुछ ऐसे शब्दों का इस्तेमाल कर दिया, जिससे पार्टी को किनारा करना पड़ा. साथ ही पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा को साफ शब्दों में यह लिखना पड़ा कि सरकार और उनकी पार्टी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान करती है.
हालांकि, ऐसी चर्चा जरूर थी कि सरकार, सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से पूर्णत: सहमत नहीं है. प्रेसिडेंशियल रेफरेंस का इस्तेमाल करने का एक मतलब ये निकाला जा रहा है कि सरकार कोर्ट के इस फैसले के पक्ष में तो नहीं है. क्योंकि, प्रेसिडेंशियल रेफरेंस एक तरह से सरकार ही इस्तेमाल करती है. लेकिन जरिया राष्ट्रपति होते/होती हैं.
राष्ट्रपति के 14 सवालराष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की तरफ से सुप्रीम कोर्ट से कुल 14 सवाल पूछे गए हैं. द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक प्रेसिडेंशियल रेफरेंस का इस्तेमाल करते हुए राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से पूछा-
1. जब राज्यपाल के पास कोई विधेयक अनुच्छेद 200 के तहत हस्ताक्षर के लिए आता है, तो उनके पास कौन-कौन से संवैधानिक विकल्प होते हैं?
2. क्या राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह माननी ज़रूरी होती है?
3. क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा लिए गए निर्णयों की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है?
4. क्या अनुच्छेद 361 (जो राष्ट्रपति और राज्यपाल को पद पर रहते हुए कानूनी कार्रवाई से छूट देता है) राज्यपाल के अनुच्छेद 200 के तहत लिए गए फैसलों की कोर्ट द्वारा जांच पर पूरी तरह रोक लगाता है?
5. अगर संविधान में राज्यपाल के फैसले लेने का समय और तरीका तय नहीं किया गया है, तो क्या अदालत अपने आदेश से समय सीमा और तरीका तय कर सकती है?
6. क्या राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 201 के तहत लिए गए फैसलों (जो राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति को भेजे गए विधेयकों से जुड़े होते हैं) की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है?
7. क्या अदालत अपने आदेशों से राष्ट्रपति के लिए अनुच्छेद 201 के तहत निर्णय लेने की समय सीमा और तरीका तय कर सकती है?
8. जब कोई विधेयक राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति को भेजा जाता है, तो क्या राष्ट्रपति को उस पर फैसला लेने से पहले सुप्रीम कोर्ट से सलाह लेनी होती है?
9. क्या राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 200 और 201 के तहत लिए गए निर्णयों की समीक्षा उस समय की जा सकती है जब विधेयक अभी कानून नहीं बना हो? क्या अदालत किसी विधेयक की सामग्री पर उसके कानून बनने से पहले विचार कर सकती है?
10. क्या अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट अपने आदेश से राष्ट्रपति या राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों की जगह ले सकता है?
11. क्या राज्य विधानसभा द्वारा पारित कोई विधेयक राज्यपाल की मंज़ूरी के बिना कानून माना जा सकता है?
12. क्या यह अनिवार्य नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट की पीठ यह जांच करे कि कोई मामला संविधान की व्याख्या से जुड़ा "महत्वपूर्ण प्रश्न" है और उसे कम से कम पांच जजों की पीठ को भेजा जाए, जैसा कि अनुच्छेद 145(3) में कहा गया है?
13. क्या अनुच्छेद 142 सिर्फ प्रक्रिया संबंधी मामलों तक सीमित है या सुप्रीम कोर्ट ऐसे आदेश भी दे सकता है जो संविधान के मौजूदा प्रावधानों (सामग्री या प्रक्रिया दोनों) के खिलाफ हों?
14. क्या सुप्रीम कोर्ट केंद्र और राज्यों के बीच विवाद को अनुच्छेद 131 के तहत मूल वाद (original suit) के अलावा किसी और तरीके से नहीं सुलझा सकता?
राष्ट्रपति के सवालों में संविधान के दो अनुच्छेदों का जिक्र बार-बार आया है. अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201. एक नज़र इन दोनों अनुच्छेदों पर भी डाल लेते हैं.
अनुच्छेद 200जब किसी राज्य की विधानसभा (या जहां द्विसदनीय विधानमंडल है, वहां दोनों सदनों) द्वारा कोई विधेयक पारित किया जाता है, तो वह विधेयक राज्यपाल के पास मंज़ूरी (assent) के लिए भेजा जाता है. राज्यपाल के पास तीन विकल्प होते हैं:
- वे विधेयक को मंज़ूरी दे सकते हैं (assent),
- वे विधेयक को मंज़ूरी देने से मना कर सकते हैं (withhold assent),
- वे विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रख सकते हैं (reserve for President).
पहली व्यवस्था
अगर विधेयक मनी बिल (Money Bill) नहीं है, तो राज्यपाल उसे वापस भेज सकते हैं और यह कह सकते हैं कि सदन इस पर फिर से विचार करे. अगर सदन उस विधेयक को संशोधन के साथ या बिना संशोधन के फिर से पास कर देता है और दोबारा राज्यपाल को भेजता है, तो अब राज्यपाल उसे मना नहीं कर सकते — उन्हें उसे मंज़ूरी देनी ही होगी.
दूसरी व्यवस्था
अगर राज्यपाल की राय में कोई विधेयक ऐसा है जो कानून बनने पर उच्च न्यायालय (High Court) की शक्तियों को इस हद तक कमज़ोर कर देगा कि उसका संवैधानिक स्थान खतरे में पड़ जाएगा, तो राज्यपाल ऐसे विधेयक को खुद से मंज़ूरी नहीं दे सकते — उन्हें वह विधेयक राष्ट्रपति के विचार के लिए भेजना होगा.
जब किसी राज्यपाल द्वारा कोई विधेयक राष्ट्रपति के विचार (assent) के लिए सुरक्षित रखा जाता है, तो राष्ट्रपति दो में से एक निर्णय ले सकते हैं:
- वे उस विधेयक को अपनी स्वीकृति दें (assent)
- वे उस विधेयक को स्वीकृति देने से इनकार करें (withhold assent)
लेकिन अगर वह विधेयक मनी बिल (Money Bill) नहीं है, तो राष्ट्रपति यह निर्देश दे सकते हैं कि राज्यपाल उस विधेयक को अपने सुझाव या संदेश के साथ उस राज्य की विधानसभा को वापस भेजें — जैसा कि अनुच्छेद 200 में बताया गया है. जब विधेयक इस प्रकार से वापस भेजा जाता है, तो विधानसभा को उस पर फिर से विचार करना होगा. और यह पुनर्विचार उस संदेश की प्राप्ति की तारीख से छह महीने के अंदर करना होगा.
कब-कब प्रेसिडेंशियल रेफरेंस का इस्तेमाल किया गया?NALSAR यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ में पब्लिक पॉलिसी कन्सल्टेंट और वकील शुभम कुमार ने प्रेसिडेंशियल रेफरेंस पर एक रिपोर्ट तैयार की है. रिपोर्ट के मुताबिक इससे पहले 11 बार राष्ट्रपति और उनकी सरकार द्वारा प्रेसिडेंशियल रेफरेंस का इस्तेमाल किया गया है. इससे पहले 2G घोटाले के समय जब सुप्रीम कोर्ट ने ऑक्शन को रद्द कर दिया था, तब भी प्रेसिडेंशियल रेफरेंस के जरिए सवाल पूछे गए थे.
वीडियो: कोर्ट में आज: तमिलनाडु के गवर्नर पर सुप्रीम कोर्ट ने क्या फैसला दिया है?