
# इस बार हुए आंदोलन अब तक हुए आंदोलनों से अलग हैं. पिछले 10-20 सालों में हुए आंदोलन उन इलाकों में होते थे जो खेती में पिछड़े माने जाते थे, मसलन विदर्भ. इस बार आंदोलनों का केंद्र नासिक-मंदसौर जैसे इलाके रहे हैं जो अपेक्षाकृत समृद्ध रहे हैं. माने किसानों के हालात बद से बदतर हुए हैं. # किसानों की मुश्किलें समझने के लिए आंदोलनों की जगह किसानों और खेत-मज़दूरों की ज़िंदगी की स्टडी होनी चाहिए. हर बार किसानों की समस्या आंकड़ों में गुम कर दी जाती है. # किसानों की समस्या को कर्ज़ या आत्महत्या तक सीमित करना बेवकूफी है. कर्ज़ और आत्महत्या किसानों के समस्याओं का नतीजा हैं, कारण नहीं.किसानों की कर्ज माफ से सरकार को नुकसान परः
# केंद्र सरकार ने जब 2008 में किसानों का कर्ज़ माफ किया था तो राहत का कुल आंकड़ा था 56,000 करोड़. ये फायदा 4 करोड़ परिवारों को बंटा. इसी साल केंद्रीय बजट में 'स्टेटमेंट ऑफ रेवेन्यू फॉरगॉन' में दर्ज हुआ 78,000 करोड़ का नुकसान कुछ कॉर्पोरेट घरानों को दी सब्सिडी की वजह से था. इस साल ये नुकसान 5, 34,000 हज़ार करोड़ है. ये पैसा देश के 1-2 % 'क्रीम' लोगों को ही फायदा पहुंचाता है.
# पूरी दुनिया में खेती तगड़ी सब्सिडी पर होती है. लेकिन भारत में मार्केट प्राइसिंग के नाम पर सब्सिडी को लगातार कम किया जा रहा है. सरकार के पास पैसा तो है. लेकिन उसकी प्राथमिकता में किसान नहीं हैं. # 'नुकसान' का ढिंढोरा पीट कर दी जाने वाली राहत किसानों को नहीं ही मिलती. लोन माफ उनका ही होत है जिन्होंने बैंक से लोन लिया है. ज़्यादातर किसान बाज़ार से महंगे सूद पर पैसा उठाते हैं. उन्हें राहत नहीं मिलती.

# लोन जिन शर्तों पर माफ किया जाता है, उसमें भी सरकारें खूब झोल करती हैं. एकड़ के हिसाब से लिमिट फिक्स की जाती है, जबकी अलग-अलग जगहों पर एकड़ के हिसाब से होने वाला फायदा-नुकसान अलग होता है. महाराष्ट्र में ऐसे उदाहरण सामने आए हैं जब लोन माफ इस तरह से किया गया कि एक इलाके के किसानों को ज़्यादा फायदा मिले, बनिस्बत दूसरी जगहों के. एक खास फसल उगाने वाले किसानों को फायदा पहुंचाने के उदाहरण भी सामने आए हैं. # केंद्र सरकार कहती है कि खेती से आय दोगुनी कर दी जाएगी. लेकिन वो ये नहीं बताते कि वो नॉमिनल इन्कम की बात कर रहे हैं या रीयल इन्कम. अगर सरकार नॉमिनल इन्कम की बात कर रही है तो इस से बड़ा मज़ाक कुछ नहीं हो सकता. नॉमिनल इन्कम तो अपने आप बढ़ जाती है. असल बात ये है कि रीयल इन्कम (माने वो पैसा जो किसान के हाथ में आता है) पिछले कुछ सालों में या तो स्थिर रही है या घटी है.सरकार - कॉर्पोरेट गठजोड़ः
# सरकारों ने कॉर्पोरेट के साथ मिल कर किसानों को जम कर चूना लगाया है. उदाहरण के लिए एक पैकेट बीज का जर्मिनेश्नर रेट पहले 80-88 फीसदी रखना होता था. माने एक पैकेट के 100 बीजों में से 80 में अंकुर न फूटे तो बीज को बेचने लायक नहीं माना जाता था. अब इसे घटा कर 60 % कर दिया गया है. तो कंपनियां कानून के दायरे में रह कर 40 फीसदी कचरा बेच रही हैं. हर पैकेट में. ऐसे ही कई और उदाहरण हैं. # कम सब्सिडी की वजह से कॉर्पोरेट फार्मिंग कंपनियां बढ़ती जा रही हैं. सरकारी नीतियों के चलते हर दिन 2000 किसान खेती छोड़कर दूसरा काम ढूंढने निकल रहे हैं. ये लोग इन कंपनियों के लिए सस्ते मज़दूर बन जाते हैं.

# नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के डाटा को लगातार इस तरह से पेश करने की कोशिश हो रही है जिस से लगे कि किसानों की आत्महत्या के मामले कम हो रहे हैं. 'किसानों के परिजनों द्वारा आत्महत्या' की तरह के अजीबो-गरीब कॉलम बनाए जा रहे हैं. इससे किसानों की आत्महत्या वाले कॉलम में नाम कम हो जाते हैं. # खेती से जुड़े परेशानियों के चलते बहुत बड़ी संख्या में औरतें आत्महत्या कर रही हैं. लेकिन चूंकि औरतों का नाम पट्टे में नहीं होता, उसकी मौत को किसान आत्महत्या माना ही नहीं जाता.माइक्रो-क्रेडिट परः
# माइक्रो-क्रेडिट वाले किसानों को कानून के दायरे में रह कर लूटते हैं. RBI की गाइडलाइन के तहत वो 26 % तक ब्याज ले सकते हैं. इतने ब्याज़ पर पैसा लेकर किसी की ज़िंदगी नहीं सुधर सकती. माइक्रो-क्रेडिट किसानों की मैक्रो समस्या नहीं सुलझा सकता.

# देश में खेती से जुड़ा 60 फीसदी काम औरतें करती हैं. लेकिन समाज उनका नाम जमीन के पट्टे पर लिखवाना नहीं चाहता. इससे 60 फीसदी किसानों के मुद्दे अपने-आप छूमंतर हो जाते हैं. # औरतें किसान नहीं मानी जातीं तो किसानों को फायदा पहुंचाने वाली किसी भी पहल से वो बाहर होती हैं.मवेशियों परः
# सरकार ने मवेशी खरीदना-बेचना इतना दूभर कर दिया है कि किसान, पशु व्यापारी और मीट व्यापारी वगैरह सब परेशान हैं. इसमें मराठा, दलित, मुसलमान सबका नुकसान हो रहा है. # मवेशियों के रेट में 3 % से ज़्यादा की गिरावट किसानों पर असर डालने लगती है. सरकार के बनाए कानूनों और गौगुंडों के चलते मवेशियों के रेट 60 % तक गिरे हैं. इससे मवेशियों की देसी नस्लों के खात्मे का खतरा पैदा हो सकता है.किसानों की समस्या से निपटने के लिए सुझावः
# सरकार को किसानों की समस्याओं को समझने के लिए कम से कम 10 दिन का विशेष संसद सत्र बुलाना चाहिए. इसमें से कम से कम 1 दिन स्वामिनाथन कमिटी के सुझावों पर विचार होना चाहिए. 1 दिन किसानों को खुद अपनी समस्याएं रखने के लिए देना चाहिए. # केरल का 'कुटुंबश्री' जैसे मॉडल पूरे देश में लागू करना चाहिए. इसके तहत 50,000 भूमिहीन औरतें लीज़ पर ज़मीन लेकर खेती कर रही हैं. इस मॉडल ने इन औरतों की ज़िंदगी बदल के रख दी है.

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