भारत सरकार ने जून 1984 में जो कदम उठाया, उससे लग रहा था कि पिछले 5 साल से पंजाब में चली आ रही राष्ट्र विरोधी गतिविधियों पर रोक लगाई जा सकेगी. लेकिन ऐसा हो न पाया. शायद इंदिरा सरकार को भी अंदाज़ा नहीं था कि जो चिंगारियां 3 जून की रात आग में बदलेंगी वो आने वाले समय में दावानल बनकर पूरे देश को अपनी चपेट में ले लेगी.भिंडरावाले, इंदिरा गांधी, लोंगोवाल, टोहरा, बादल, ज़ैल सिंह, दरबारा सिंह... ऑपरेशन ब्लू स्टार से पहले इन लोगों के आस पास ही घूम रहा था पंजाब का भविष्य. इस दिन से पहले के तमाम रोचक घटनाक्रम की पूरी कहानी यहाँ पढ़िए: खालिस्तान मूवमेंट: नोट और डाक टिकट छप चुके थे, बस देश बनना बाकी था 3 साल बीत चुके थे. गोल्डन टेम्पल में हो रहे पाठ के बीचों बीच गोलियों की आवाजें आने लगती थीं. ये दुखदायी था. हर सिख के लिए. हर पंजाबी के लिए. ये दुख और घबराहट हैरानी में तब बदल गए, जब अप्रैल 1984 में जरनैल सिंह भिंडरावाले गोल्डन टैम्पल से सटे गुरु नानक निवास से अपना बोरिया बिस्तर बांधकर अकाल तख्त जा पहुंचे. अकाल तख्त गोल्डन टेम्पल के बिल्कुल सामने है. सिख धर्म में अकाल तख्त का खास दर्जा है. महाराजा रणजीत सिंह के समय से ही सिख धर्म के सारे फैसले यहीं से लिए जाते रहे हैं. ऐसे में भिंडरावाले का वहां पर जाकर छिप जाना अपने आप में चेतावनी के संकेत दे रहा था. भिंडरावाले के साथ दो लोग और थे. जिन्हें भिंडरावाले की परछाई भी कहा जा सकता है. अमरीक सिंह और जनरल शाहबेग सिंह. अमरीक सिंह ऑल इंडिया सिख स्टूडेंट्स फेडरेशन (AISSF) के प्रेज़िडेंट थे. जबकि शाहबेग सिंह पहले भारतीय फौज में थे. पिछले काफी समय से CRPF और भिंडरावाले की फौज के बीच गोलाबारी होती आ रही थी. शायद तब ये हैरानी की बात नहीं थी. ऐसा पिछले कई दिनों से होता आ रहा था. लेकिन केंद्र सरकार अपना मन बना चुकी थी. वो इस रोज़ की गोलाबारी और मुठभेड़ पर पूर्णविराम लगाने को उतारू थी.

इसके साथ ही पंजाब में विदेशियों के आने पर रोक लगा दी गई. पंजाब के गवर्नर भैरव दत्त पांडे ने केंद्र से फौज को भेजने के ऑफिशियल रिक्वेस्ट भेजी. मीडिया को बैन कर दिया गया. रेल और हवाई सेवाओं पर रोक लगा दी गई. कश्मीर से लेकर राजस्थान से सटा इंटरनेश्नल बॉर्डर सील किया जा चुका था. हवा में एक अजीब सी बेचैनी और भय था. कुछ भयानक होने वाला था.


4 जून की सुबह करीब 4-5 बजे गोलियों की आवाज़ ने शांति भंग कर दी. ग्रेनेड हमला होने लगा. MMG यानी मीडियम मशीन गन से टॉवर और वॉटर टैंक पर गोलियां चलाई गईं. फौज की तरफ से अभी भी ज़्यादा गोलीबारी नहीं की जा रही थी. दरअसल वो देखना चाह रहे थे कि दुश्मनों के पास कौन कौन से हथियार हैं. फौज ने दुश्मनों की ताकत को थोड़ा कम आंका था. उन्हें अंदाज़ा भी नहीं था कि दुश्मन उन पर हमला करने के लिए बंकर और पिलबॉक्स का सहारा लेगा.दुश्मनों ने रॉकेट ग्रेनेड से बिहार रेजिमेंट के एक सैनिक को शहीद कर दिया और 3 को ज़ख्मी. फौज को एक और परेशानी झेलनी पड़ रही थी. गोल्डन टेम्पल के इर्द-गिर्द काफी लम्बी इमारतें थीं जिस वजह से गोलियां चलाने में दिक्कत आ रही थी और साथ ही टेम्पल में भी इतनी जगह नहीं थी कि खुल कर वार किया जा सके. पिल-बॉक्स में छिपे आतंकियों पर निशाना साधने के लिए माउंटेन गन का इस्तेमाल किया गया. हवा का रुख तेज़ था. ऐसे में डर था कि कहीं मांउटेन गन से की गई हवाई फायर कहीं गोल्डन टेम्पल पर या उनके अपने सिपाहियों पर न जा गिरे. लेकिन तब तक और कोई चारा भी नहीं था. इसलिए एक बाद एक फायर कर करारा जवाब दिया गया. शाम तक ऐसा ही चलता रहा. सरेंडर करने की अपील बार बार की जा रही थी. शाम तक करीब 200 SGPC कर्मचारी और उनके परिवार वालों ने सरेंडर किया. सूरज अस्त होने से ठीक पहले टैंकों की आवाजें सुनाई देने लगीं. शुरुआत में केवल एक टैंक और APS (Armoured personnel carrier) आते दिखे. लेकिन एक दो घंटे बाद दर्जनों टैंक और APS गोल्डन टेम्पल के पास दर्ज हुए. मैदान तैयार था. जंग के लिए. कुछ पुलिस ऑफिसर्स को भी बुलाया गया जो गोल्डन टेम्पल के चप्पे चप्पे से वाकिफ थे. टैंक अपनी पोज़ीशन लिए खड़े थे. और तकरीबन आधे घंटे बाद ही 10 ब्लास्ट हुए जिसने अमृतसर की धरती को हिला दिया. अब तक पूरे पंजाब में गोल्डन टेम्पल में हो रहे ऑपरेशन की खबर फैल चुकी थी. ये खबर हज़म कर पाना हर सिख के लिए लगभग नामुमकिन था. लोग इक्ट्ठा होना शुरू हुए. लोगों की ये भीड़ अमृतसर की तरफ बढ़ने लगी जो कि एक बड़ी चिंता का कारण था. 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गोलवाड़ गांव में करीब 30,000 लोग हथियारों के साथ आगे बढ़ रहे थे. ऐसे में फौज की चिंता बढ़ना जायज़ था. उन्हें डर था कि इस भीड़ पर अगर काबू न पाया जा सका तो केवल अमृतसर के आस पास ही दर्जनों जलियांवाला बाग जैसी घटनाएं घट जाएंगी. 5 जून की सुबह का दृष्य एक वॉर फिल्म जैसा था. दोनों तरफ से फायरिंग लगातार जारी थी. मिट्टी के बोरे और ईंटें हर तरफ पसरी थीं. आसमान में धुआं ही धुआं फैला था. ऑपरेशन को अंजाम तक पहुंचाने के लिए लेफ्टिनेंट कर्नल मोहम्म्द इस्सर को बुलाया गया जो कि विश्व भर में ऐसे ऑपरेशन्स के लिए फेमस थे. अकाली लीडर लौंगोवाल, टोहरा और बलवंत सिंह रामूवालिया को बाहर निकालकर लाना इनकी खास जिम्मेवारी थी. 40 फौजियों की एक टीम बनाई गई. काली डंगरी में तैनात ये जवान सबसे कम उम्र के सैनिक थे. और जिम्मेदारी सबसे ज़्यादा. बाकि यूनिट्स से कवर फायर लेते हुए ये सराए से होते हुए आगे बढ़े. चारों तरफ से गोलियों की बौछार थी. इसी बीच 3 फौजी शहीद हो गए और 19 घायल. लेकिन वे वापस खाली हाथ न लौटे. साथ थे लौंगेवाल, टोहरा, रामूवालिया, बीबी अमरजीत कौर और SGPC (शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी) के कुछ अधिकारी. आर्मी के दो हेलिकॉप्टर भी आसमान में घूम रहे थे. इनका काम रेकी करना था जो ये पता लगाने में मदद कर रहा था कि भवन के किस हिस्से से फायरिंग की जा रही है. जैसे ही वे दूर जाते, फायरिंग शुरू हो जाती. फौज को इस बात का अंदाज़ा था कि अगर ऑपरेशन को खत्म करने में ज़्यादा समय लगा तो उनके लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं. इसलिए फैसला लिया गया कि अकाल तख्त में छिपे बैठे भिंडरावाले को वहीं घुस कर मारा जाएगा. ये एक बड़ा फैसला था क्योंकि हमले में अकाल तख्त को नुकसान पहुंचना लाज़मी था. और ऐसा होने से सिखों के दिलों में लगी आग और बढ़ती. लेकिन फौज अकाल तख्त की तरफ बढ़ी. परिक्रमा के सफेद मार्बल की सफेदी अब अपना रंग बदलने लगी थी. फायरिंग में हुए शहीदों का खून जाकर सरोवर में मिल रहा था. टावरों और वाटर टैंक पर खड़े आतंकवादी फौज को अकाल तख्त की तरफ बढ़ता देख घबरा गए और वे अकाल तख्त की तरफ दोड़े. वहां से फायरिंग बंद हुई तो फौज को भी थोड़ा सुकून मिला.
आतंकियों की घबराहट स्वाभाविक थी क्योंकि उन्होंने और खुद भिंडरावाले ने कतई अंदाज़ा नहीं लगाया था कि फौज अकाल तख्त पर भी हमला कर सकती है. सैनिकों को खास तौर पर निर्देश दिए गए थे कि गोल्डन टेम्पल पर किसी तरह की फायरिंग नहीं की जाएगी.ऐसे में क्रॉस फायरिंग में काफी दिक्कत तो आ रही थी लेकिन इंस्ट्रक्शन्स का खास ख्याल रखा गया. इसी का फायदा उठाते हुए आतंकियों ने MMG फायरिंग शुरू की जिस से कई फौजी शहीद हो गए. नई यूनिट्स को आगे बढ़ाया गया, जिसमें मद्रासी, गढ़वाली, डोगरा और पंजाबी शामिल थे. एक तरह का कवच सा बना दिया था जिससे कि फौजियों पर हो रहे हमलों को कम किया जा सके. तब तक बाकी सरायों में जवान कब्जा कर चुके थे. दिन में 1 बजे से 3 बजे थोड़ी बहुत फायरिंग होती रही. असले और बारूद से फैल रही गर्मी हवा में महसूस हो रही थी. करीब 3.45 बजे 6 हैलीकॉप्टर गोल्डन टेम्पल के ऊपर से गुज़रे. लेकिन ये सब गोल्डन टेम्पल से दूरी बनाए हुए थे. इससे अनुमान लगाया जा रहा था कि शहर में कोई वीआईपी आया है. करीब 7 बजे दो टैंकों ने भी अकाल तख्त का रुख किया. अन्दर से ट्रक लाशें भर के चाटीविंड मुर्दाघर की तरफ बढ़ रहे थे. जिसका मतलब था कि अंदर मरने वालों की गिनती लगातार बढ़ती जा रही थी.
जवान छतें लांघ कर अकाल तख्त की तरफ बढ़ रहे थे. सूरज छिपने तक फौज सभी आतंकियों को अकाल तख्त तक जुटाने में कामयाब रही. ऑपरेशन शुरू हुए 3 दिन बीत चुके थे. अब लग रहा था कि इतनी बड़ी फौज ने एक इंसान को मारने में कुछ ज्यादा ही देर कर दी है.

भिंडरावाले के बचाव में लगे अधिकतर नौजवान मौत के घाट उतारे जा चुके थे. भिंडरावाले और उसके साथी अकाल तख्त की बेसमेंट में छिपे हुए थे. सेना ने ग्रेनेड का इस्तेमाल किया. जिससे भिंडरावाले तक पहुंचा जा सके. इसी ग्रेनेड का एक खोखा भिंडरावाले के मुंह पर भी लगा. स्टेनगन से लगातार फायरिंग की जा रही थी. और 6-7 जून की रात ऑपरेशन ब्लू स्टार का पहला चरण अपने मुकाम पर पहुंचा.भिंडरावाले, शाहबेग सिंह और अमरीक सिंह को सेना ने मार गिराया. लेकिन कुछ ही देर में टेम्पल के अंदर से (जो सरोवर के बीच है) फायरिंग होने लगी. फौज सकते में आ गई. दरअसल AISSF का जनरल सेक्रेटरी हरमिंदर सिंह संधू अपने कुछ साथियों के साथ वहां जाकर छिप गया था. दुविधा थी कि टेम्पल पर फायरिंग कैसे की जाए. सैनिक टेम्पल की ओर जाते पुल की तरफ दौड़े ताकि उन तक पहुंच सके. लेकिन बीच रास्ते ही दुश्मनों की गोलियों ने उन्हें रोक दिया. सेना ने बाहर ही इंतज़ार करने का मन बनाया. कुछ ही देर बाद संधू बाहर आए लेकिन हाथ में हथियार की जगह एक सफेद झंडा था. और इस तरह पिछले चार दिन से की जा रही कोशिशों को किनारा मिला. आर्मी के मुताबिक शाहबेग सिंह ने ही भिंडरावाले की सुरक्षा का जिम्मा उठाया था. और सेना में काम करने का एक्सपीरिएंस उसे यहां काम आया. इसी वजह से इस ऑपरेशन को पूरा करने में उम्मीद से ज्यादा समय लगा. एक और हैरानी की बात ये थी कि शाहबेग की बेटी और अमरीक सिंह की पत्नी भी इस लड़ाई में उनके साथ मौजूद थी. 7 जून को सुबह करीब 6 बजे काम्पलेक्स से काफी काला धुआं भी उठ रहा था. अंदाज़ा लगाया गया कि लाशों को जलाने का काम किया जा रहा है. करीब 3 घंटे तक ऐसा ही चलता रहा. आकाशवाणी ने अनाउंस किया कि जरनैल सिंह भिंडरावाले की डेड बॉडी मिल गई है और दोपहर 3 बजे से 5 बजे तक कर्फ्यू हटा दिया जाएगा. लोग चौराहों पर खड़े इंतज़ार कर रहे थे. वो अपने धार्मिक स्थल को देखने के लिए बेचैन थे. लेकिन कुछ ही देर बाद कर्फ्यू जारी रखने का फैसला लिया गया. और शूट एट साइट का ऑर्डर भी दिया गया. सड़कें एक बार फिर से लावारिस जान पड़ रही थीं.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 300 से 400 लोगों की इस ऑपरेशन में मौत हुई जबकि 90 सैनिक शहीद हुए. लेकिन चश्मदीदों और एक्सपर्ट्स की मानें तो करीब 1000 लोग इस ऑपरेशन में मारे गए और 250 जवान शहीद हुए.

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