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एक किताबी कीड़े के जीवन में निर्मल वर्मा

पढ़िए निर्मल वर्मा के बारे एक किताबी कीड़े के विचार.

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फोटो - thelallantop
यह जीवन में निर्मल वर्मा के साहित्य के आगमन से बहुत पूर्व की बात है. जीवन इस संसार की कई पुस्तकों को पढ़ चुका था, लेकिन निर्मल वर्मा के साहित्य-संसार से अब तक अपरिचित था. जीवन अपनी जड़ों से निर्वासित था. जीवन वृक्ष से छूटे हरे की तरह था— एक रोजमर्रा के भटकाव में क्षण-क्षण रौंदा जाता हुआ, वह अपना रंग खो रहा था. वह सूखी लकड़ी के रंग का हो गया था, या कहें वह लकड़ी हो गया था. पुस्तकों में पुनर्वास दूसरों के बहाने उन छूट चुकीं स्थानीयताओं में पुनर्वास था जिनके विषय में जीवन प्राय: सोचता रहता था और जहां अब लौट सकना संभव नहीं था. नई स्थानीयताओं में बस कर वह अपने वास्तविक पड़ोस को खो रहा था. इस तरह पुनर्वास में पड़ोस होते हुए भी अनुपस्थित था. वहां आवाजाही नहीं थी. सुख-दु:ख थे, लेकिन उनकी पूछताछ नहीं थी. वहां सब रोग अकेलेपन से शुरू होते थे और जीवन को उसके हिस्से की व्यथा देकर उसके अकेलेपन से विदा हो जाते थे. व्यथा का आकार चाहे आकाश हो जाए पड़ोस को उसके संदर्भ में दृश्य में नहीं आना था तो नहीं आना था. जीवन पुस्तकों में रहने लगा था. आस-पास का शोर और आत्महीनताएं और अन्याय और अविवेक उसे कुछ भी अनुभव नहीं होता था. वह पुनर्वास की प्रत्यक्ष के साथ कोई संगति स्थापित नहीं कर पा रहा था. यह भी कह सकते हैं कि इसमें उसकी कोई रुचि नहीं थी. वह एक सुघड़ स्मृतिलोक में स्वप्नवत रहता था. हालांकि इसके समानांतर जो मूल यथार्थ था, वह बहुत हिंसक और भयावह था. पुनर्वास में अपने अध्यवसाय से जीवन जो स्मृतिलोक रच रहा था उसमें उन छूट चुकीं स्थानीयताओं की कल्पना थी जहां एक ही रोज में कई-कई सूर्योदय और सूर्यास्त थे. जीवन गर्म दुपहरों को अपने तलवों के नीचे अनुभव करता था और यह गर्म एहसास उसके कपड़ों से नमक की तरह लिपटा रहता था. उसके सिर पर सतत एक बोझ होता था और आगे हत्या की आशंकाएं. यह भयावह के समानांतर एक और भयावह था. इस समानांतरता में सतत जीते हुए जीवन एक रोज निर्मल वर्मा के गद्य से परिचित हुआ... जीवन इस गद्य-संसार में उतरा तो उतरता ही चला गया. कुछ तैरा और फिर डूब गया. उसने पाया कि वह छूट चुकी स्थानीयताओं को पा चुका है. उसका अनुभव अपेक्षा से कुछ अधिक और अनिर्वचनीय पा लेने के भयभीत जैसा था. इस आस्वाद के बाद जीवन बहुत वक्त तक चुपचाप रहा. एक लंबे मौन के बाद जीवन ने पाया कि वह पृथ्वी पर उदासी का अर्थ पा चुका है. एकांत का भी अर्थ और एक स्थानीयता में सार्वभौमिक विस्तार पा चुका है.
जीवन ने पाया कि वह उदासी को जानता है. उसने पाया कि अपरिचित भी आत्मीय हैं. वह निर्मल वर्मा को पढ़ चुका था... और इसके बाद वह लगातार नई-नई स्थानीयताओं में स्थानांतरित होता रहा. इन नई स्थानीयताओं से पहले छूट चुकीं स्थानीयताओं को वह दूसरों के बहाने पुस्तकों में पाता था और मूल यथार्थ से कट कर एक सुघड़ स्मृतिलोक में स्वप्नवत रहता था.
लेकिन अब जीवन बदल चुका था. अब वह संसार को स्मृतिलोक-सा बनाना चाहता था. इसके लिए जो अवयव चाहिए, उन्हें इस संसार से ही पाना चाहता था. वह अब पुस्तकों में कम और संसार में ज्यादा रहने लगा था. यह दृष्टि निर्मल वर्मा के गद्य-संसार से गुजरने के बाद आई थी. अब जीवन अपने एक प्रतिरूप को पुस्तकों में विस्थापित कर प्रकट और मूल यथार्थ से जूझ रहा था. दिन गुजर रहे थे और निर्मल वर्मा उसकी पाठकीय दिनचर्या की परिधि से छूट चुके थे. इस छूटने से मिल पाना वैसे ही गैर-मुमकिन था जैसे छूट चुकी स्थानीयताओं से मिल पाना. हालांकि पुनर्वास अब कम कष्टदायी था और पड़ोस कम असहनीय. लेकिन जीवन का प्रतिरूप जीवन के मार्गदर्शन के बगैर आश्रयवंचित था. जीवन ने इस प्रतिरूप के कुछ और प्रतिरूप बनाए और उन्हें निर्मल वर्मा के उपन्यासों — ‘वे दिन’, ‘एक चिथड़ा सुख’, ‘लाल टीन की छत’, ‘रात का रिपोर्टर’, ‘अंतिम अरण्य’ — में अलग-अलग रख कर छोड़ दिया और इस संसार को पढ़ने लगा, यह सोच कर कि निर्मल वर्मा के इन उपन्यासों को वह कभी पहाड़ों पर पढ़ेगा. यह एक सुंदर कल्पना थी कि पहाड़ इस जीवन में इस संसार से बाहर नहीं होंगे. वे आगामी उम्रों में यकीनन कहीं न कहीं होंगे. वे एक रोज इस संसार में ही संभव होंगे... लेकिन जीवन हर उस जगह से बहुत दूर कर दिया गया जो उसकी अतीव कल्पना में बहुत पवित्रता और विस्तार में थी. वह ‘विस्थापन’ की बहुत गर्म सुबहों में बहुत जल्दी उठ कर निर्मल वर्मा के उपन्यासों को पढ़ता और रात तक एकाकी और उदास रहता था. वे प्रेम में ‘नहीं होने’ के दिन थे... आखिर में कहें तो यह जीवन एक रोजमर्रा में निर्मल वर्मा का बहुत ऋणी है. वह असंख्य अर्थों में वंचित रहता अगर वह निर्मल वर्मा के गद्य के समीप न गया होता. संभवत: जीवितों के संसार में बहुतों के ऐसे विचार होंगे, लेकिन यह जीवन यह तथ्य उजागर करता है कि निर्मल वर्मा उसे सबसे बढ़ कर प्रिय हैं. इस जीवन की कभी निर्मल वर्मा से मुलाकातें नहीं रहीं. कभी कोई संवाद नहीं रहा. उसने कभी उन्हें सशरीर नहीं देखा. वह बस उस गद्य से परिचित है, जहां वह एक ‘बुकमार्क’ बन कर वर्षों से रह रहा है.

ये स्टोरी 'दी लल्लनटॉप' के लिए अविनाश ने की थी.

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