11 जुलाई 1949. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर महात्मा गांधी की हत्या के बाद लगा बैन हटा दिया गया. गिरफ्तार किए गए 20,000 कारकून जेलों से रिहा कर दिए गए. संगठन फिर से सतह पर आकर काम करने लगा. उस समय गोलवलकर संघ के सरसंघचालक हुआ करते थे. संघ महाराष्ट्र से निकलकर दूसरे राज्यों में अपनी जड़ें जमाना शुरू कर रहा था. महाराष्ट्र से संघ के तमाम कार्यकर्ता देश प्रचारक बनाकर देश के अलग-अलग हिस्सों में भेजे जाने लगे. ऐसे ही एक प्रचारक थे लक्ष्मण राव ईनामदार. पूना के पास खटाव में पैदा हुए ईनामदार को गुजरात में संगठन का काम आगे बढ़ाने के लिए भेजा गया. उन्होंने पूना यूनिवर्सिटी से वकालत की पढ़ाई की थी. संघ के कार्यकर्ता उन्हें इसी वजह से 'वकील साहब' पुकारने लगे.
नरेंद्र मोदी की लाइफ की पूरी कहानी और उनकी वो विशेषताएं जो नहीं पढ़ी होंगी
आठ की उम्र में स्वयंसेवकों की लाइन में खड़े उस बच्चे का 1977 में इमरजेंसी के बाद संघ में ऐसे तेज उभार हुआ.

मेहसाणा का एक छोटा सा कस्बा है वडनगर. 1944 में एक स्कूल टीचर बाबूभाई नायक ने पहली बार संघ की शाखा लगाई. 1949 में बैन हटने के बाद वो फिर से इसी काम में लग गए. संगठन का काम धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा. साल 1958 की दीपावली के रोज प्रांत प्रचारक ईनामदार इस कस्बे के प्रवास पर थे. उनके आने पर वडनगर की शाखा में ख़ास आयोजन किया गया. वकील साहब को बाल स्वयंसेवकों को संघ के प्रति निष्ठा की शपथ दिलानी थी. इन स्वयंसेवकों की लाइन में एक आठ साल का लड़का भी खड़ा था. नाम, नरेंद्र दामोदर दास मोदी.

संघ प्रचारक नरेंद्र मोदी
1958 का साल नरेंद्र मोदी का संघ के साथ जुड़ाव का साल था. वो अपने छह भाई बहनों में तीसरे नंबर पर थे. पिता दामोदार दास, मोदी घर चलाने के लिए वडनगर रेलवे स्टेशन पर चाय की दुकान चलाते थे. सुबह वो स्कूल खुलने से पहले इस चाय की दुकान पर पिता की मदद किया करते. जैसे ही स्कूल की घंटी बजती वो थैला उठाकर पटरी पार बने भागवताचार्य, नारायनाचार्य विद्यालय पहुंच जाते. स्कूल के दिनों में मोदी एक औसत विद्यार्थी थे.
नरेंद्र मोदी की शादी उस समय के रिवाज के मुताबिक छोटी उम्र में ही हो गई थी. 18 की उम्र में जब उनके गौने की बात चली तो मोदी अचानक से गायब हो गए. कारवां को दिए इंटरव्यू में उनके बड़े भाई सोमभाई मोदी याद करते हैं-
"हमें इस बात के बारे में कोई जानकारी नहीं थी कि नरेंद्र अचानक से कहां गायब हो गया. दो साल बाद अचानक एक दिन वो घर लौट आया. उसने घर वालों से कहा कि वो अपना संन्यास खत्म करने जा रहा है. वो अहमदाबाद जाएगा. वहां हमारे चाचा एक कैंटीन चलाते थे. उसने कहा कि वो वहां जाकर काम करेगा और पैसे कमाएगा."
नरेंद्र मोदी के लौटने पर उनकी मां हीराबेन ने पास ही के कस्बे ब्राह्मणवाडा के चिमनभाई को संदेशा भिजवाया. उनकी बेटी जशोदा के साथ 14 साल की उम्र में नरेंद्र की शादी की गई थी. हीराबेन चाहती थीं कि अहमदाबाद जाने से पहले नरेंद्र का गौना कर दिया जाए. नरेंद्र को जब घरवालों के इस कदम की जानकारी मिली तो वो अचानक फिर से गायब हो गए. इस बार उनके घरवालों को पता था कि वो कहां हैं. मोदी वडनगर से अहमदाबाद आ गए. यहां उन्होंने बस स्टैंड पर चलने वाली अपने चाचा की कैंटीन में काम करना शुरू कर दिया. कुछ महीनों तक यहां काम करने के बाद उन्होंने खुद का व्यवसाय शुरू किया. एक साइकिल खरीदी और उस पर चाय की दुकान शुरू की. उन्हें पहला ठिया मिला अहमदाबाद के गीता मंदिर के पास.

घर से निकलकर नरेंद्र मोदी संन्यासी बनकर हिमालय चले गए थे.
संघ के कई प्रचारक और स्वयंसेवक सुबह की शाखा के बाद इसी रास्ते से गुजरते थे. मोदी के स्वयंसेवक होने की जानकारी मिलने के बाद शाखा लौटते वक़्त यह दुकान उनके अड्डेबाजी की जगह बन गई. मोदी धीरे-धीरे अहमदाबाद में रहने वाले संघ के राज्य स्तर के नेतृत्व के करीब आने लगे. ऐसे ही समय में उन्हें लक्ष्मण राव ईनामदार की तरफ से संघ कार्यालय में आकर रहने का न्योता मिला. मरहूम पत्रकार एमवी कामत ने "Narendra Modi – The Architect of a Modern State" नाम से मोदी की जीवनी लिखी है. 2009 में आई इस जीवनी में मोदी के हवाले से पूरा किस्सा कुछ इस तरह से बयां किया गया है-
"उस समय हेडगेवार भवन (गुजरात आरएसएस हेडक्वॉटर) में 10-12 लोग रहा करते थे. वकील साहब ने मुझे वहां आकर रहने के लिए कहा. सुबह उठकर मैं प्रचारक और दूसरे कार्यकर्ताओं के लिए नाश्ता और चाय बनाता. इसके बाद शाखा जाता. वहां से लौटने के बाद पूरे कार्यालय का झाड़ू-पोछा करता. इसके बाद मैं, मेरे और ईनामदार साहब के कपड़े धोता. इसके बाद दिन के दूसरे कामों में लगता."

संघ के गुजरात प्रांत प्रचारक लक्ष्मण राव ईनामदार के साथ
नव-निर्माण से आपातकाल तक
1974 में बढ़े हुए मेस बिल के चलते अहमदाबाद के एलडी कॉलेज के विद्यार्थियों ने विद्रोह कर दिया. धीरे-धीरे यह प्रदर्शन पूरे गुजरात में फ़ैल गया. इस आंदोलन को गुजरात नवनिर्माण आंदोलन के नाम से जाना जाता है. तत्कालीन मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल को इस आंदोलन के लिए सत्ता गंवानी पड़ी थी. जेपी के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के लिए इस आंदोलन ने प्रेरणा का काम किया, जिसको दबाने के चक्कर में इंदिरा ने आपातकाल की घोषणा की. इस आंदोलन ने ही गुजरात में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के लिए रास्ता बनाया. बुनियादी तौर पर यह छात्र आंदोलन था. नरेंद्र मोदी उस समय संघ की तरफ से अपने विद्यार्थी संगठन 'अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद' के इंचार्ज हुआ करते थे. नव-निर्माण आंदोलन में ABVP नेतृत्वकारी भूमिका में थी. इस आंदोलन के बाद संघ के भीतर नरेंद्र मोदी की इज्ज़त और रसूख दोनों काफी मजबूत हुए.

आपातकाल के समय पुलिस को चकमा देने के लिए उन्होंने सिख का भेष धारण कर लिया था. करीब 40 बाद पंजाब में एक चुनावी रैली के दौरान फिर उसी भेष में दिखे.
आपातकाल के वक़्त गुजरात में बाबू जशभाई पटेल के नेतृत्व वाली जनता मोर्चा सरकार थी. इंदिरा विरोधी नेताओं के लिए उस समय गुजरात सबसे सुरक्षित जगह हुआ करती थी. तमाम राजनीतिक संगठनों की तरह बीजेपी और उसके साथ-साथ संघ भी प्रतिबंधित संगठन हो गए थे. संघ के जो कार्यकर्ता पुलिस की पकड़ से बच गए थे वो भूमिगत होकर काम कर रहे थे. नरेंद्र मोदी उस समय राज्य में संघ की भूमिगत गतिविधियों को सफलता से अंजाम दे रहे थे. आपातकाल के दौरान संघ की तरफ से सरकार के विरोध में विभिन्न तरह के पर्चे लिखे जा रहे थे. यह पर्चे कच्चे माल की तरह गुजरात आते और लाखों की संख्या में छपकर देश के कोने-कोने में पहुंच जाते. विभिन्न भारतीय भाषाओं में छपने वाले इन पर्चों ने सरकार को काफी परेशान कर रखा था. संघ की तरफ से यह जिम्मेदारी नरेंद्र मोदी के जिम्मे थी. वो सादे कागज पर लिखे मजमून को हजारों की संख्या में बदल देते और सही जगह पर सुरक्षित पहुंचा देते. मोदी हर काम को बड़ी सफाई के साथ अंजाम देते. 1977 में आपातकाल हटने के बाद संघ में उनका ओहदा तेजी से बढ़ने लगा. 1978 में उन्हें सभी अनुषांगिक संगठनों और संघ के बीच समन्वय स्थापित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई.
रथ का सारथी
1985 में शुरू हुए आरक्षण विरोधी आंदोलन ने गुजरात में देखते ही देखते सांप्रदायिक रंग ले लिया. 1985 और 1986 के साल में अहमदाबाद में निकलने वाली जगन्नाथ रथयात्रा के बाद अहमदाबाद शहर में दो बड़े दंगे हुए. इसके बाद बीजेपी की लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी. बीजेपी और संघ हिंदुत्व के एजेंडे को आगे लेकर चल रहे थे. ऐसे में संघ ने बीजेपी संगठन के विभिन्न पदों पर प्रचारकों को भरना शुरू किया. 1987 के साल में नरेंद्र मोदी को संघ की तरफ से नई जिम्मेदारी सौंपी गई. उन्हें गुजरात बीजेपी का संगठन मंत्री बनाया गया. बीजेपी संगठन में यह पद आम तौर पर संघ के लिए आरक्षित होता है. इस पद पर रहने वाला आदमी संघ और बीजेपी के बीच पुल का काम करता है.

राम जन्मभूमि रथयात्रा के दौरान आडवाणी के बगलगीर मोदी
नरेंद्र मोदी के संगठन मंत्री बनने के तुरंत बाद बीजेपी ने पूरे गुजरात में 'न्याय यात्रा' नाम से राजनीतिक प्रचार अभियान की शुरुआत की. इसकी अगुवाई केशुभाई पटेल और शंकर सिंह वाघेला के हाथ में थी लेकिन मंच के पीछे से सारा काम नरेंद्र मोदी ही संभाल रहे थे. इसके बाद 1989 में लोकसभा चुनाव से ठीक पहले 'लोक शक्ति रथयात्रा' निकाली गई. नरेंद्र मोदी इसके रूट से लेकर सभाओं तक हर चीज को तय कर रहे थे. लोकसभा चुनाव में इसके अच्छे परिणाम मिले. सूबे की कुल 26 लोकसभा सीट में से बीजेपी 12 सीट जीतने के कामयाब रही. जबकि 1984 के लोकसभा चुनाव में यह आंकड़ा महज़ एक का था.
यह राम जन्मभूमि का दौर था. बीजेपी को हिंदुत्व के एजेंडे की वजह से काफी लाभ हुआ था और वो इसमें और संभावनाएं तलाश रही थी. ऐसे में तय यह हुआ कि 12 सितंबर 1990 के रोज लालकृष्ण आडवाणी गुजरात के सोमनाथ से सांकेतिक रथ लेकर 30 अक्टूबर के रोज अयोध्या पहुंचेंगे. इस रथ यात्रा का शुरुआती विचार नरेंद्र मोदी के दिमाग की उपज था. 12 सितम्बर को सोमनाथ से यात्रा की शुरुआत से लेकर 28 सितंबर तक रथ यात्रा के ठाणे तक वो इस रथ यात्रा का सारा काम संभाले थे. राम रथयात्रा गुजरात में पूरी शांति के साथ गुजरी. इसके हर पड़ाव, हर सभा को नरेंद्र मोदी मैनेज कर रहे थे. उन्होंने यह काम सफलता से कर दिखाया. इसके साथ ही वो लालकृष्ण आडवाणी और बीजेपी के केन्द्रीय नेतृत्व की नज़रों में चढ़ गए.

एकता यात्रा के दौरान मुरली मनोहर जोशी और नरेंद्र मोदी
1991 में कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन अपने चरम पर था. बीजेपी राम रथयात्रा की सफलता का स्वाद चख चुकी थी. 1992 में बीजेपी के दूसरे बड़े नेता मुरली मनोहर जोशी कन्याकुमारी से 'एकता यात्रा' लेकर निकलने वाले थे. उन्हें 14 राज्यों की यात्रा करते हुए 26 जनवरी के रोज श्रीनगर के लाल चौक पहुंचकर तिरंगा फहराना था. दिसंबर 1991 में देश के 50 बीजेपी नेताओं को दिल्ली बुलाया गया. इसमें नरेंद्र मोदी भी शामिल थे. मोदी को 47 दिन लंबी इस यात्रा का संयोजक बनाया गया. वो राम रथ यात्रा के दौरान अपनी काबिलियत का परिचय दे चुके थे. 26 जनवरी 1992 के दिन मुरली मनोहर जोशी श्रीनगर के लाल चौक में तिरंगा झंडा फहरा रहे थे.
लाल चौक पर झंडा फहराने की कार्रवाई 15 मिनट में पूरी कर ली गई. इसके बाद वो बादामी बाग़ हवाई पट्टी पहुंचे. यहां बंद कमरे में भारी सुरक्षा इंतजाम के बीच पत्रकारों से मुखातिब थे. तमाम सवालों के जवाब देने के बाद उन्होंने अपने बगल में बैठे आदमी के कंधे पर हाथ रखा और पत्रकारों की तरफ मुड़े. "इनसे मिलिए, ये नरेंद्र मोदी हैं. गुजरात से आते हैं. बहुत ऊर्जावान और मेहनती हैं. इस यात्रा की सारी जिम्मेदारी इन्हीं के कंधों पर थी." नरेंद्र मोदी का राष्ट्रीय मीडिया से यह पहला परिचय था.
एक बार फिर से घर छोड़ना पड़ा
नरेंद्र मोदी को करीब से जानने वाले लोग बताते हैं कि उनका काम करने का अपना अंदाज है. हालांकि वो संघ की नर्सरी से आए नेता हैं लेकिन वो अपने काम में अनुशासन नहीं मानते. एकता यात्रा के बाद तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष मीडिया के सामने नरेंद्र मोदी की पीठ ठोक रहे थे लेकिन असल में वो मोदी के काम करने के तरीके से बहुत खुश नहीं थे. मोदी, जोशी के कई निर्देशों की खुले तौर पर अवहेलना कर चुके थे. एकता यात्रा में शामिल एक बीजेपी नेता ने नाम न उजागर करने की शर्त पर कारवां मैगजीन को जोशी और मोदी के बीच की तकरार का किस्सा बयान किया था. एकता यात्रा के दौरान जोशी ने सभी कार्यकर्ताओं को निर्देश दिए थे कि शाम के वक़्त सभी लोग एक जगह बैठकर खाना खाएं. मोदी शाम के वक़्त गायब हो जाया करते थे. जब यात्रा बंगलुरु पहुंची तो मोदी शाम के वक़्त वहां के स्थानीय नेता अनंतकुमार के साथ कहीं गायब हो गए. मुरली मनोहर जोशी ने मोदी के बारे में पूछताछ की. अगले दिन सुबह जोशी ने सबके सामने मोदी को फटकार लगाते हुए कहा कि आप चाहे पूरी यात्रा का आयोजन कर रहे हैं लेकिन आपको अनुशासनहीनता की छूट नहीं दी जा सकती.

केशुभाई, नरेंद्र मोदी और शंकर सिंह वाघेला
एकता यात्रा के बाद मोदी फिर से गुजरात लौटे. शंकर सिंह वाघेला और केशुभाई पटेल उस समय गुजरात में बीजेपी के दो बड़े चेहरे थे. मोदी बतौर संघ के नुमाइंदे बीजेपी में पहुंचे थे. इधर वाघेला और केशुभाई भी संघ की शाखा से ही विधानसभा पहुंचे थे. शंकर सिंह वाघेला संघ में नरेंद्र मोदी से 10 साल पहले आए थे. वो करीब दो दशक से राजनीति कर रहे थे. नरेंद्र मोदी के बीजेपी में आते ही उनके वाघेला के साथ मतभेद हो गए. बीजेपी के सांगठनिक ढांचे के हिसाब से संगठन मंत्री का काम संघ के निर्देश, बीजेपी संगठन तक पहुंचाना था. नरेंद्र मोदी इससे आगे बढ़कर अपने तरीके से चीज़ें लागू करवा रहे थे. शंकर सिंह वाघेला को यह अपने अधिकार क्षेत्र में दखलंदाजी लगी. ऐसे में दोनों एक-दूसरे के साथ खिंचने लगे. हालांकि चुनाव पास थे तो दोनों ही तरफ से इस बात को ज्यादा तूल नहीं दी गई.
1995 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को भारी बहुमत मिला. कुल 182 में से 121 सीटें बीजेपी के खाते में गई. शंकर सिंह वाघेला यह चुनाव नहीं लड़े थे. उन्हें आने वाले लोकसभा चुनाव के जरिए केंद्र की सियासत में अपनी जगह बनानी थी. गुजरात बीजेपी के पुराने नेता बताते हैं कि केशुभाई और शंकर सिंह वाघेला डेढ़ दशक तक एक टीम की तरह काम करते रहे. जूनागढ़ के एक पुराने संघ कार्यकर्ता ने दी लल्लनटॉप को बताया कि केशुभाई और शंकर सिंह वाघेला ने लंबे समय तक साथ काम किया. उनके मन में एक दूसरे को लेकर कोई द्वेष की भावना नहीं थी. केशुभाई महज़ सात जमात पढ़े थे. शंकर सिंह वाघेला अच्छे-खासे पढ़े लिखे थे. 1995 का चुनाव जीतने के बाद शंकर सिंह वाघेला को लगा कि केशुभाई तो केवल चेहरा हैं जीत के असल मास्टर माइंड वही हैं. इसके अलावा उनके मन में यह ख्याल भी घर कर गया कि मुख्यमंत्री के तौर पर वो केशुभाई से ज्यादा बेहतर काम कर सकते हैं.

2014 में प्रधानमंत्री पद पर बैठने से पहले वाघेला ने इस अंदाज में मोदी को विदा किया. 1995 में वो एक बार पहले भी उन्हें विदा कर चुके थे लेकिन तक चीजें इतनी सौहार्दपूर्ण नहीं थीं.
यह बात एक हद तक ठीक भी थी. शंकर सिंह वाघेला चुनाव का सारा मैनेजमेंट देख रहे थे. वो बीजेपी के मंझोले कारोबारियों से चंदा जुटाते. टिकट वितरण के समय पैदा हुई पार्टी की भीतरी तकरार को सुलझाने की जिम्मेदारी भी उन्हीं की थी. प्रचार अभियान और सभा में भीड़ जुटाने का काम भी वही कर रहे थे. जीत के बाद जब केशुभाई ने अपने मत्रिमंडल का गठन किया तो वाघेला की सभी सिफारिशों को दरकिनार कर दिया गया. इधर नरेंद्र मोदी बदली परिस्थितियों में केशुभाई के करीब होते चले गए. शंकर सिंह वाघेला याद करते हैं-
"मोदी उस समय केशुभाई के साथ साए की तरह दिखाई देने लगे. वो सुबह का नाश्ता और शाम का खाना उन्हीं के साथ खाते. इस दौरान वो लगातार मेरे खिलाफ केशुभाई के कान भर रहे थे. मुझे अपने लोगों से जानकारी मिली कि नरेंद्र मोदी, केशुभाई को सलाह दे रहे थे कि मैं उनके खिलाफ विद्रोह की साजिश रच रहा हूं. ऐसे में केशुभाई को मुझसे और मेरे समर्थक विधायकों से एक हाथ की दूरी बनाकर चलाना चाहिए."
आरोप-प्रत्यारोपों में किसी एक पक्ष को सही नहीं कहा जा सकता. खजुराहो काण्ड के बाद जब अटल बिहारी वाजपेयी की मध्यस्थता में केशुभाई और शंकर सिंह वाघेला के बीच शांति वार्ता हुई. इस वार्ता के बाद केशुभाई ने यह कहते हुए मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ दी थी कि मैं उस पार्टी को तोड़ नहीं सकता जिसके कार्यालय में मैंने झाड़ू लगाई है. बहरहाल इस शांति वार्ता में शंकर सिंह वाघेला की तीनों शर्त मान ली गईं. पहली कि केशुभाई को मुख्यमंत्री पद से हटाया जाए. दूसरा उनके समर्थक विधायकों को मंत्रिमंडल में जगह दी जाए और तीसरा नरेंद्र मोदी को गुजरात बीजेपी से हटाया जाए. एक पुराने पार्टी कार्यकर्ता ने दी लल्लनटॉप को बताया कि खुद केशुभाई तीसरी शर्त के समर्थन में थे. इसके अलावा काशीराम राणा और प्रदेश पार्टी के दूसरे बड़े नेता भी ऐसा ही चाहते थे. गुजरात आरएसएस के कई पदाधिकारी भी नरेंद्र मोदी के काम करने के तानशाही तरीके से खुश नहीं थे. ऐसे में उन्हें इस समझौते के बाद गुजरात छोड़ना पड़ा. वो पहले बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारणी के सदस्य थे. उन्हें राष्ट्रीय महासचिव के तौर पर नई जिम्मेदारी सौंपी गई और हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, हरियाणा,चंडीगढ़ का प्रभारी बनाया गया.
नरेंद्र मोदी को ऊंचा ओहदा जरूर मिल गया था लेकिन यह बतौर सजा उनके पास आया था. गुजरात से उनका राजनीतिक निर्वासन पांच साल लंबा चला. इस दौरान गुजरात में राजनीतिक उठा-पटक जारी रही. मोदी गुजरात से बाहर थे लेकिन गुजरात की सियासत से कभी भी पूरी तरह बाहर नहीं हुए. अगली कड़ी में आप पढ़ेंगे उनकी धमाकेदार वापसी के बारे में. तब तक एक वीडियो देखिए:
यह भी पढ़ें
गुजरात का वो नेता जो दो बार मुख्यमंत्री बना और कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया
गुजरात का वो मुख्यमंत्री जिसने इस पद पर पहुंचने के लिए एक ज्योतिषी की मदद ली थी
गुजरात का वो आदिवासी मुख्यमंत्री जिसने आरक्षण को वापस ले लिया था
गुजरात के इस मुख्यमंत्री के बनाए रिकॉर्ड को नरेंद्र मोदी भी नहीं तोड़ पाए