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मुस्कान: आकाशवाणी इलाहाबाद में लड़कों ने इस फिल्म की सीडियां घिस डालीं

कुछ गानों पर वार्षिकोत्सव में डांस नहीं होता, शादी में नहीं बजते, रिंगटोन नहीं बनते. फिर भी वो फेमस हो पड़ते हैं.

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फोटो - thelallantop
कुछ फिल्में आती हैं, और आकर कब निकल जाती हैं. पता भी नहीं लगता. ऐसा ही कुछ हीरोज के साथ भी होता है. फिर वो मस्ती-मनरेगा और कूल-कलुषित टाइप फिल्मों में नजर आते हैं तब याद आता है कभी आफताब शिवदासानी भी हीरो थे. ऐसे हीरोज की ऐसी फिल्मों के गाने कभी-कभी ऐसे निकल जाते हैं जैसे मांड़ बह निकला हो. इन पर कॉलेज के वार्षिकोत्सव में डांस नहीं होता. ये शादियों में नहीं बजते. मोबाइल की रिंगटोन नहीं बनते. फिर भी सबने सुन रखे होते हैं.
2004 में एक फिल्म आई थी. मुस्कान. तरन आदर्श ने रिव्यू देते हुए कहा था कि ये फिल्म देखना ऐसा है, जैसे आप एक साथ चार फिल्में देख रहे हों. हा भाग्य! चारों मिलकर भी कोई कमाल न कर सकीं. फिल्म की कहानी बस ऐसे समझिए कि 'दिल तो पागल है' में 'सिर्फ तुम' और 'अजनबी' घुस जाए. फिल्म का क्या हुआ. कितना कमाई. कितनी सफल हुई उस बारे में बात न करें तो ही अच्छा.
फिर साल आया 2006. सर्दियों के दिन. कक्षा नौ में थे हम. हनुमान मंदिर स्कूल की दूसरी शिफ्ट 12 बजे से लगती और दस से साढ़े दस बजे के बीच हम आंगन में नहाने के बाद नारियल का तेल और बोरोप्लस चुपड़ रहे होते. रेडियो बज रहा होता. यहां ये जान लेना जरुरी होगा कि हमारी मम्मी की सांसें दो चीजों पर टिकी हैं. एक तो चाय और दूसरा विविधभारती. ये अभी भी एक रहस्य है कि जब रात को विविधभारती बंद हो जाता है तो उनकी सांसें कैसे चलती हैं. इधर विविधभारती सुबह दस बजे के बाद चुप मार जाता तो एफएम की सेम फ्रीक्वेंसी पर आकाशवाणी इलाहाबाद बजता. तो एक रोज हमने तेल चुपड़ते-चुपड़ते एक गाने पर कान दिया. https://www.youtube.com/watch?v=DXkZC2Td1xQ मम्मी से पूछा तो पता लगा ये गाना तो हर रोज़ बजता है. दरअसल ये फोन इन प्रोग्राम का टाइम होता था. जिसमें कोई दीदी या भईया फोन पर फरमाइश लेते. हफ्ते में दो रोज़ रिकॉर्डिंग होती, और उस टाइम हाल ये होता कि भगवान की लाइन मिल जाए पर ये लाइन न मिलती थी.  इलाहाबाद और उसके आस-पास के बालक-बालिका हर बार कुछ खास गाने ही सुनते. ऐसे प्रोग्राम्स के गाने अलग ही होते हैं. ऐसे गाने जो हिट-फ्लॉप के परे सिर्फ रेडियो पर बजने के लिए बनते हैं. उनकी बात हम आगे किसी अध्याय में करेंगे.
ये वो समय था जब हर हाथ मोबाइल न पहुंचा था. एक रुपये के डिब्बे वाले पीसीओ से लड़के रेडियो स्टेशन पर कॉल कर-कर बटनों से नंबर का पेंट छुड़ा देते थे. जिसका कॉल लग जाता और बात हो जाती वो कार्यक्रम के रेडियो पर बजते-बजते हर उस आदमी को बता डालता. जिसे वो बता सकता था. फरमाइशें अक्सर सुनील शेट्टी की फिल्मों के गाने की होती, या अजय देवगन की. एक मां वाला गाना होता. एक कव्वाली. एक देशभक्ति वाला और बाकी सारे प्रयास होते गाने की फरमाइश के पहले अपने सारे रिश्तेदारों के नाम ले डालने के.
तभी इस फिल्म का आतंक शुरू हुआ. लड़के कॉल करते और सीधे गाने की फरमाइश कर डालते. कई बार तो ये हुआ कि वो फिल्म का नाम लेते ही रहते कि इधर समझदार अनाउंसर प्रसारण के वक़्त बड़े स्टाइल से उनकी आवाज धीमे कर जानेमन...जानेमन... को कॉल की आवाज पर चढ़ा देता. https://www.youtube.com/watch?v=j378sYwUOPo
हुआ ये भी कि कॉल करने में देर हुई और लड़का जो गाना सुनना चाहता था उसकी फरमाइश पहले ही हो चुकी होती. लड़का तब भी हार न मानता उसी फिल्म के दूसरे गाने की फरमाइश कर डालता.
आगे के कुछ महीने और सालों तक ये सिलसिला जारी रहा. हिमेश-विमेश आए गए. वो टाइम भी आया जब एफएम के प्राइवेट चैनल रात भर लव गुरु बनते रहे. बालक काल्पनिक प्रेमिकाओं से सलीके से प्रणय निवेदन करने के तरीके सीखते रहे. बालिकाओं ने बिन नाम बताए साढ़े ग्यारह बजे रात पूरे शहर को सुना प्रेमी का नाम लिया.  हर हाथ मोबाइल जा पहुंचा. गाने ब्लूटूथ से ट्रांसफर हो-हो आने लगे. रेडियो पर निर्भरता जो कम हुई थी. वो खत्म होने की ओर बढ़ गई. लेकिन अब भी इलाहाबाद वालों का मुस्कान प्रेम खत्म न हुआ. वो अब भी फोन पर फरमाइश कर ये गाना सुन लेते हैं. धीरे से ये गाना इलाहाबाद से रीवा वालों ने भी सीख लिया. अब यहां भी हैलो दीदी हमको मुस्कान का गाना सुनना है गूंजने लगा. खास बात: साइकल की सीट होती है. आप उस पर बैठिए तो गड़ने लगती है. इसलिए झटकों से बचने स्पंज वाला सीट कवर आता है. उस पर भी कुछ कलाकारी तो होनी ही चाहिए. इतनी छोटी सी जगह पर क्या आ सकता है? तो सीट कवर के पिछले हिस्से में एक्स्ट्रा पत्ती निकाल दी गई. जो कैरियर की ओर लटकने लगती है. उस पर फिल्मों के नाम लिखे होते. मय मात्राओं की गलतियों के. जैसे 13 मेरा 7 रहे, धुम, ये दिल आशिकाना, हम आपके दिल में रहते हैं. मुस्कान उन फिल्मों में थी. जो सीट कवर की पत्ती पर पहुंची. रिक्शे के पीछे जब फिल्मों के पोस्टर छपते थे. तो हमारे रिक्शे वालों ने लाल बादशाह, मर्द, धड़कन और बॉर्डर के बाद मुस्कान को ही जगह दी थी. ये मौक़ा तो ग्रेसी सिंह को लगान करने के बाद भी न मिल पाया था. श्रेय उनको ही जाता है, जिनने इलाहाबाद पर शुरू किया और बजवा-बजवाकर इस फिल्म के गाने की सीडियां घिस डालीं. 

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