फिर एक साल बाद एक और चिज्जू रहने आई. टीवी. लकड़ी की फटकिया वाली. उसमें एक सीरियल आता था. एक अंकल थे. दरवाजा खोलने वालों को नंबर दिया करते थे. कोई लड़की थी. हीरोइन बन गई थी. गरीबी सी थी.
मुझे लगा. जो टीवी पर आता है वो गरीब कैसे हो सकता है. चिज्जू वाले लोग तो पइसे वाले होते हैं. जैसे ताऊ जी. ताऊ जब शादी में जाते तो सिल्क का कुर्ता पहनते. उसका रंग. वैसा जैसा गइया के दुद्धू का होता है. गरम करने के बाद. रौशनी सा.
बरसों बीत गए. एक तस्वीर देखी. एक सिल्क का कुर्ता पहने आदमी की. ताऊ से. बताया गया. ये जोशी जी हैं. जी चश्मा लगाते थे. पारदर्शी सा. क्यों. कह दो कि आंखें कमजोर रही होंगी.
पर मुझे कुछ और दौंची लगी. एक बार की बात है. एक भगवान जी थे. बहुत सुंदर थे. तो एक अंग्रेज आया. उसको सम्मोहित करना आता था. वो भगवान जी को सम्मोहित करके ले गया. बड़ा हड़कंप मचा. और फिर तै हुआ. कि अब कोई सुंदर भगवान को एकटक नहीं देखेगा.
तो क्या जोशी ने अपनी सुंदर आंखों को दिठौना लगाया था चश्मा के जरिए. वाह भइया मनोहर. और हां. वो जो चिज्जू थी टीवी. उस पर जो सीरियल आता था. हम लोग. वो इन्हीं अंकिल ने लिखा था.

हम लोग.
हिंदी पढ़ी तो उन्हें पढ़ा. आखिर तक. टटा प्रोफेसर. कुरु कुरु स्वाहा, कसप. क्याप. लखनऊ मेरा लखनऊ. और आखिर में कौन हूं मैं.
दो चीजें याद रहीं. एक नॉवेल का किरदार, जो जिस लड़की से प्यार करता है. उसकी दी मिठाई को फफूंदी और राख बनने की हद तक संभाल कर रखता है.
और दूसरा. आखिरी नॉवेल का किशोर, जो नई नाचने वाली को लपक कर घांप लेता है. और आतुर संभोग का सुख पाता है. ये कहानी थी भुवाल संन्यासी की. बड़ी दिलचस्पी थी इसमें. क्योंकि मनोहर कहानियां में भी इसके बारे में पढ़ा था...

प्रभात रंजन.
और फिर आज सुबह यूं हुआ. एक नोटिफिकेशन आया. कि आज ही के दिन हिंदी के एक राइटर मरे थे. नाम- मनोहर श्याम जोशी. हमने फोन उठाया. हिंदी के एक जिंदा राइटर को लगाया. प्रभात रंजन. दोस्त. बड़े भाई. और जोशी जी के चेले.
लगा इसरार करने. आप मनोहर श्याम जोशी पर जो किताब लिख रहे हैं. उसका एक टुकड़ा चाहिए. जो कहीं न छपा हो.
आशीष मिल गया.
आपके सामने है.
जोशी जी की मनोहर कहानियां नाम है किताब का. पब्लिशर कौन होगा अभी तय नहीं. मेरे ख्याल से किताब अभी पूरी नहीं हुई. जब होगी तब जिल्दसाज और छापने वाले भी आ ही जाएंगे सामने.
लेकिन जो पूरा हुआ है, वो भैरंट है. लंबा है, इसलिए आरामकुर्सी में जगह पा रहा है. आप इसे पढ़ें. और फिर इसके किस्से औरों को भी बताएं.
शुक्रिया मनोहर श्याम जोशी. यूं जिंदगी जीने के वास्ते. उसे लिखने का लोभ बसाया आपने.
शुक्रिया प्रभात रंजन. किस्सागो के किस्से सुनाने के लिए.
अल्लाह करे जोर ए कलम और जियादा.
- सौरभ द्विवेदी
सोप ओपेरा लेखक के करीब
1996 की वह जनवरी मुझे कई कारणों से याद है.कल या परसों, यह तो याद नहीं मगर मैंने उनको फोन किया था. मैं उनसे मिला तो था पीएचडी के सिलसिले में ही, लेकिन उनके बार-बार कहने से यह तो समझ ही गया था कि बात पीएचडी की नहीं कुछ और थी. मन में तरह-तरह के ख़याल आ रहे थे. लग रहा था जैसे मेरी बातचीत से प्रभावित होकर, मेरी प्रतिभा को पहचानकर जरूर वे मुझे टीवी धारावाहिक लेखन का कोई काम दिलवाना चाहते थे. खामाखायाली तो किसी को भी हो सकती थी.
लगने लगा था पीएचडी के गुमनामी के दिन जाने वाले थे. लेखन के शोहरत के दिन आने वाले थे. आज का तो पता नहीं लेकिन उन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी विभागों में अधिकतर शोध अनमने भाव से किये जाते थे. हम कम्पीटीशन की तैयारियां करते हुए, हॉस्टलों में रहकर तैयारी करने के लिए पीएचडी में दाखिला लेते थे. जब कुछ नहीं हो पाता था तब शोध हो जाता था. हम कुछ और की तलाश में भटकते रहते थे.
मेरा कुछ और तब लेखन था. जबकि सच्चाई यह थी कि उससे पहले मैंने कभी ऐसा कुछ भी नहीं लिखा था कि अपने आपको लेखक भी कह पाता. लेकिन मन ही मन यही सोचता था बस एक बार लेखन शुरू करने की देर है, लेखन की दुनिया ही बदल दूंगा. यही सोच सोच कर लेखन का काम मुल्तवी करता जाता था. हां, मुल्तवी करते जाने का मतलब यह नहीं था कि मैं अपने आपको किसी से कमतर लेखक समझता था.
मैंने इसी उम्मीद से जोशी जी को फोन किया कि शायद उनको धारावाहिक लिखने के लिए सहायक की जरुरत हो इसलिए मुझे बार बार कह रहे हों फोन करने के लिए. मैंने कई लेखकों से सुन रखा था कि वे एक समय में इतने धारावाहिक लिखते थे कि उनको कई कई सहायक रखने पड़ते थे. जो उनके लिए घोस्ट राइटिंग किया करते थे. वे सबको खूब पैसे देते थे. जिन दिनों उनका लिखा और रमेश सिप्पी का निर्देशित धारावाहिक ‘बुनियाद’ प्रसारित हो रहा था तब मैं सीतामढ़ी में रहता था और तब मैंने एक अखबार के गॉसिप कॉलम में बाकायदा यह प्रकाशित देखा था कि मनोहर श्याम जोशी को एक एपिसोड लिखने के दस हजार मिलते थे जिनमें से वे अपने लिए लिखने वाले लेखकों को पांच हजार देते थे. उनके पास इतने प्रोजेक्ट्स होते थे कि लेखकों की एक पूरी टीम उनके लिए काम करती थी. वगैरह-वगैरह...
6961728- मैंने नंबर डायल किया. फोन उन्होंने खुद उठाया. पहले आवाज पहचानने में दिक्कत हुई. मेरे ख़याल से हर उस आदमी को होती होगी जो उनके व्यक्तित्व से आकर्षित होकर उनको फोन करता होगा. इतना भारी-भरकम व्यक्तित्व और ऐसी बारीक आवाज. जिस आवाज के बारे में उन्होंने ‘कुरु कुरु स्वाहा’ में लिखा है- ...
‘हाँ, प्रभात रंजन. ये लो नंबर नोट करो.... मिस्टर रश्मिकांत से बात कर लेना. वे कुछ शोध के बारे में बात करेंगे. अगर शोध कार्य से समय मिले, करने की इच्छा हो तो कर लेना. हाँ, बताना फिर क्या बात हुई. अच्छा चलो, अभी कुछ जरूरी लिखना है...’
कहकर उन्होंने फोन रख दिया. मैंने हाँ-हूँ भी किया था या नहीं, यह याद नहीं है लेकिन उनकी यह बात याद है. बाद में यह समझ में आया था कि वे बहुत देर तक बहुत औपचारिक नहीं रह पाते थे. एक बड़े लेखक जैसा गुरु-गंभीर भाव उनमें नहीं था. उनकी छवि, उनके काम की वजह से बहुत कम लोग उनसे मिल पाते थे, उनके अपने एकांत में प्रवेश कर पाते थे लेकिन जो कर पाते थे वे उनकी बेतकल्लुफी के कायल हो जाते थे. हिंदी में आम तौर पर उस लेखक को बड़ा नहीं माना जाता है जो बहुत गुरु गंभीर दिखता हो, लिखता भले न हो. अब प्रसंग आया है तो इतना और सुनाता चलता हूँ कि सन 2000 के आसपास से जब मैं महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में काम करता था. तब विश्वविद्यालय के कुलपति अशोक वाजपेयी थे. उन दिनों में दिल्ली में उस विश्वविद्यालय के कार्यक्रम बहुत आयोजित होते थे. अशोक जी की आदत थी- वे हर कार्यक्रम के वक्ताओं की सूची बनाते समय हम जैसे कुछ लोगों से राय लिया करते थे, वक्ताओं की सूची उसके बाद फाइनल करते थे. मैंने कई बार रचना पाठ या उपन्यास से जुड़े विषयों पर बोलने के लिए मनोहर श्याम जोशी का नाम प्रस्तावित किया. मुझे अच्छी तरह याद है जब मैंने आखिरी बार मनोहर श्याम जोशी का नाम लिया था तो अशोक जी ने लगभग झल्लाते हुए कहा था, वे गंभीरता से नहीं बोलते हैं.

यह फिल्म मनोहर श्याम जोशी मे लिखी थी.
यह अजीब विरोधाभास है न. गंभीरता की धूल झाड़ने वाली अपनी जिस शैली के कारण मनोहर श्याम जोशी पाठकों के प्रिय बने, उसी वजह से लेखक समाज में वे ‘आउट ऑफ़ कोर्स’ बने रहे.
बहरहाल, मैंने मिस्टर रश्मिकांत को फोन किया. उन्होंने बड़े प्यार और आदर के साथ ग्रेटर कैलाश के अपने दफ्तर में बुलाया. वह ज़ूम कम्युनिकेशन के मालिक थे. 90 के दशक में भारत में टेलिविजन की दुनिया में क्रांति घटित हो रही थी. टेलिविजन प्रसारण की दुनिया में क्रांति घटित हो रही थी. दूरदर्शन का एकाधिकार टूट रहा था. नए नए चैनल लॉन्च हो रहे थे. नई नई तरह के धारावाहिक, सोप ऑपेरा बनाए जाने लगे थे.
नई नई प्रोडक्शन कम्पनियाँ खड़ी हो रही थी. दिल्ली टेलिविजन का केंद्र बनता जा रहा था. कहा जाने लगा था कि सिनेमा का केंद्र मुंबई रहेगा लेकिन टीवी का केंद्र तो दिल्ली बन जायेगा. टेलिविजन समाचार भी शुरू हो चुके थे. लेकिन तब टीवी समाचारों से जुड़ना अच्छा करियर नहीं माना जाता था. फिक्शन यानी धारावाहिकों से जुड़ना ग्लैमरस होता था. मनोहर श्याम जोशी दिल्ली के अपने ग्लैमरस लेखक थे. कुछ ही दिनों पहले उनको टीवी लेखन के लिए ओनिडा पिनैकल लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड मिल चुका था. जोशी जी के बारे में दिल्ली में टीवी की दुनिया से जुड़े लोग यही कहते थे कि अगर कोई धारावाहिक बनाने के बारे में सोचता भी था तो उसके दिमाग में सबसे पहले मनोहर श्याम जोशी का ही नाम आता था. वह सबसे पहले उनसे मिलने का टाइम लेता था.
बहरहाल, रश्मिकांत और उनकी कम्पनी का एक सीरियल उन दिनों होम टीवी नामक चैनल पर प्रसारित हो रहा था. इसे सादिया देहलवी ने लिखा था. इसमें अम्मा की भूमिका निभाई थी जोहरा सहगल ने. प्रसंगवश, इतना बताना जरूरी है कि होम टीवी तब दिल्ली में टीवी की दुनिया की सबसे बड़ी घटना थी. 1996 में लॉन्च हुआ था. 1999 में बंद हो गया. बाद में दिल्ली न्यूज का गढ़ बनता गया और मुम्बई इंटरटेनमेंट का.
बात ज़ूम कम्युनिकेशन की हो रही थी. उनकी एक बहुत बड़ी योजना थी. अगले साल यानी 1997 में भारत की स्वाधीनता के 50 साल पूरे हो रहे थे. बड़ी-बड़ी योजनायें उसको लेकर बन रही थी. ज़ूम कम्युनिकेशन ने अपनी सबसे महत्वाकांक्षी योजना शुरू की थी. बीकानेर के एक व्यापारी थे अनिल गुप्त. रहते दिल्ली में थे, उर्मिला गुप्त के पति थे जो दूरदर्शन की बड़ी अधिकारी थीं. हाल में ही उन्होंने दूरदर्शन की नौकरी छोड़कर स्टार टीवी में किसी बड़े पद पर ज्वाइन किया था.
स्टार टीवी की योजना यह थी कि 1997 में आजादी की अर्धशती के मौके पर हिंदी प्रसारण की शुरुआत की जाए. जिसके लिए अनिल गुप्ता और और रश्मिकांत के ज़ूम कम्युनिकेशन ने यह योजना बनाई थी कि मारवाड़ियों के उत्थान, उनके विस्तार को लेकर एक ऐसा धारावाहिक बनाया जाए जिसमें भव्यता, दिव्यता वैसी ही हो जैसी कि मारवाड़ियों ने अपने व्यापार से देश भर में पैदा की थी. जिसकी वजह से आजादी के पहले-बाद के दौर में यह कहावत मशहूर हुई थी- जहाँ न पहुंचे बैलगाड़ी वहां पहुंचे मारवाड़ी!
मनोहर श्याम जोशी मूल रूप से कुमाऊंनी ब्राह्मण थे, मगर उनका जन्म अजमेर में हुआ था. राजस्थान की संस्कृति से उनका सहज लगाव था. खुद को वे राजस्थानी अधिक समझते थे. अनिल गुप्ता और रश्मिकांत ने मनोहर श्याम जोशी को इस धारावाहिक की योजना समझाई. सुनकर जोशी जी ने पहला सुझाव यह दिया कि इसके लिए एक रिसर्च टीम बनाई जाए जो कोलकाता, राजस्थान के अलग-अलग शहरों में जाकर मारवाड़ियों की व्यापार शैली के ऊपर रिसर्च करे. फिर उसके आधार पर वे कहानी लिखेंगे. दोनों निर्माता मान गए.
मुझे बताया गया कि ‘मारवाड़ी’ नाम के उस प्रोजेक्ट के लिए मैं रिसर्च का काम शुरू करूँ. तब इस धारावाहिक की जो वर्किंग फ़ाइल तैयार की गई थी उसका नाम ‘मारवाड़ी’ ही रखा गया था. पहले ही दिन रश्मिकांत ने पीले रंग की एक फ़ाइल पकड़ा दी, जिसमें यह लिखा हुआ था कि उस धारावाहिक का मूल विचार क्या था, उसके लिए शोध में क्या-क्या करना है? उसके लिए मुझे कहां-कहां जाने की जरुरत होगी, इसका एक ब्यौरा तैयार करने के लिए भी आदेश पत्र उसी फ़ाइल में रखा हुआ था.
इस बात की ख़ुशी भी हो रही थी कि मानसरोवर होस्टल में बैठे बैठे मुझे मेरे सपनों की दुनिया का प्रवेश द्वार मिल गया था. अब करना बस यह था कि अपने काम से उस दरवाजे के भीतर प्रवेश करूं और कामयाबी की अनंत सीढ़ियां चढ़ता चला जाऊं. तैयारी सारी हो चुकी थी मगर यह सोच सोच कर धीरे धीरे घबराहट होती जा रही थी कि काम आखिर होगा कैसे?
उस समय तक विश्वविद्यालय में शोध का रास्ता बड़ा सीधा होता था- विषय चुनिए. पुस्तकालयों में बैठिये. अधिक से अधिक किताबों का चर्बा इकठ्ठा कीजिए. और आखिर में पन्ने भर दीजिए. बस हो गया, नाम के आगे डॉक्टर जुड़ जाता.
लेकिन यह तो कुछ ऐसा शोध था जिसके आधार पर देश में मारवाड़ी समुदाय के उत्थान, उनकी कर्मठता, उनकी व्यवसाय बुद्धि से जुड़े किस्से इकठ्ठा करने थे. यह काम आसान नहीं था. मैंने जोशी जी को फोन किया और बताया. साथ में यह भी कहा कि शोध शुरू करने से पहले आपसे मिलना जरूरी है. उन्होंने अगले ही दिन सुबह मिलने के लिए बुलाया.
नियत समय पर जब मैं उनके घर पहुंचा तो उन्होंने एक बड़ी सीख दी. बोले कि देखो, एक चीज शुरू में ही सीख लो. यह जो इंडस्ट्री है, इसमें ग्लैमर बहुत होता है. पैसा बहुत लगता है. जब कोई निर्माता किसी परियोजना को बार-बार बड़ा बताए तो सबसे पहले यह बात समझनी चाहिए कि वह उस परियोजना में बहुत पैसा लगाना चाहता है. अब देखो, वह तुम्हारे शोध निर्देशक की तरह तो होता नहीं है कि वह तुम्हारे लिखे को पढ़े और बता दे कि तुमने काम किस स्तर का किया है. न भी बताये तो समझ जाए. इस इंडस्ट्री में निर्माता तभी खुश होता है जब उसे काम होता हुआ दिखे. अब यह काम अगर तुम सिर्फ पुस्तकालय में बैठकर करोगे तो निर्माता के मन में यह धारणा बन जाएगी कि तुम अपने काम में अच्छे नहीं हो. बस वह दूसरे शोधकर्ता की तलाश शुरू कर देगा.
अभी कहानी का बस मूल विचार है जो यह है कि राजस्थान से छपनिया अकाल के बाद विस्थापित हुए दो व्यावसायिक घरानों के माध्यम से कथा आगे-पीछे चलती रहेगी. इसमें मारवाड़ियों के कामकाज, उनकी पारिवारिकता, उनकी परम्पराओं की कहानी होगी. अब इसमें कहानी होगी तो वही कहानी तुमको मारवाड़ी परिवारों से निकाल कर लानी है. फिलहाल शोध के लिए थॉमस एस. टिम्बर्ग की किताब ‘द मारवाड़ीज: जगत सेठ टु द बिरलाज’ और घनश्याम दास बिरला की जीवनी पढ़ लो, हिंदी में मिल जाएगी. रामनिवास जाजू ने लिखी है. और हाँ, यात्राओं की योजना बनाओ. बीकानेर जाओ पहले. वहां यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ से मिलना. उसको बताना कि मैं उसको भी बतौर लेखक जोड़ना चाहता हूँ. वह मारवाड़ियों के इतिहास के बारे में खूब जानता है.
चलो अब जाओ, मुझे एपिसोड पूरा करना है.
बाद में उनके सहायक शम्भूदत्त सती मुझे छोड़ने बाहर आये. दिल्ली के साकेत में उनके घर से बाहर निकलकर अनुपम सिनेमा हॉल के पास एक ठीये पर बैठकर चाय पीते हुए सती जी ने बताया. जोशी जी उन दिनों ‘गाथा’ नामक एक धारावाहिक लिख रहे थे. इसका निर्देशन रमेश सिप्पी कर रहे थे. कुछ ही दिनों में उसकी शूटिंग शुरू होनी थी. बकौल सती जी, एक घंटे का एक एपिसोड है. जोशी जी सप्ताह में दो एपिसोड की रफ़्तार से लिख रहे हैं. उसका प्रसारण स्टार टीवी पर होगा. अगले साल आजादी की 50 वीं सालगिरह के मौके पर.
प्रसंगवश, बताता चलूँ कि ‘गाथा’ धारावाहिक का प्रसारण स्टार टीवी पर हुआ था जो एक तरह से उनका लिखा और प्रसारित अंतिम धारावाहिक साबित हुआ. इसमें एक हिन्दू और एक मुस्लिम परिवार के माध्यम से आजाद भारत की कहानी कहने की कोशिश थी. कहानी 1942 से शुरू होने वाली थी. ‘बुनियाद’ में मनोहर श्याम जोशी और रमेश सिप्पी की टीम ने सफलता के कीर्तिमान स्थापित किये थे.‘बुनियाद’ के बारे में यहाँ तक कहा गया था कि जिस तरह रमेश सिप्पी ने ‘शोले’ बनाकर भारतीय सिनेमा को हमेशा के लिए एक यादगार निशानी दी उसी तरह टेलिविजन धारावाहिक ‘बुनियाद’ को टेलिविजन के इतिहास में एक मील स्तम्भ की तरह देखा जायेगा. उसका निर्देशन किया था रमेश सिप्पी ने और उसके लेखक मनोहर श्याम जोशी थे. वही टीम एक बार फिर टीवी के लिए साथ साथ एक यादगार धारावाहिक बनाने की कोशिश कर रही थी.
इससे पहले फिल्मों में यह जोड़ी साथ आ चुकी थी. एक फिल्म शुरू हुई थी ‘ज़मीन’ नाम से, जिसकी शूटिंग तो शुरू हुई थी मगर पूरी नहीं हो पाई थी. दूसरी फिल्म थी ‘भ्रष्टाचार’ जिसे रमेश सिप्पी ने निर्देशित किया था. इसके लेखक मनोहर श्याम जोशी थे. यह फिल्म चली तो नहीं थी लेकिन इसकी चर्चा हुई थी. इस फिल्म में लेखक के रूप में जोशी जी का दखल कितना अधिक था इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता था कि इसमें मनोहर श्याम जोशी ने अपने प्रिय अभिनेता अभिनव चतुर्वेदी को को एक महत्वपूर्ण भूमिका दिलवाई थी. संयोग से यह उसके फ़िल्मी कैरियर का सबसे बड़ा ब्रेक रहा, जिसके सहारे उसका फ़िल्मी जीवन कुछ दिनों तक घिसटता रहा. बड़ी बड़ी फिल्मों में छोटी छोटी भूमिकाओं में आता रहा. फिर उस पर ब्रेक लग गया. आज भी वे ‘हमलोग’ और ‘बुनियाद’ की भूमिकाओं के लिए ही याद किये जाते हैं.
बहरहाल, चाय पीकर मैंने विदा ली. सपनों में खोया अपने होस्टल की बस पकड़ ली. जोशी जी ने शोध की दिशा पकड़ा दी थी, आगे उनके ऊपर अमल करना था. पहले उन दोनों किताबों की तलाश करनी थी. वह गूगल का ज़माना नहीं था. पुस्तकालयों के अलावा और कोई स्रोत नहीं होता था. मैंने अपने स्रोत से रामनिवास जाजू लिखित बिरला जी की जीवनी के बारे में पता कर लिया और उसे खरीद भी लिया. लेकिन थॉमस एस. टिम्बर्ग की किताब ‘द मारवाड़ीज: जगत सेठ टू द बिरलाज’ कहीं नहीं मिल पा रही थी.
तब कहा जाता था कि टेलिविजन इंडस्ट्री में घुसने की पहली सीढ़ी थी कि आप रिसर्चर बनकर किसी प्रोडक्शन हाउस या चैनल में घुस जाएँ, अपना हुनर दिखाएँ और आगे बढ़ जाएँ. लेकिन मेरा सफ़र तो पहली सीढ़ी पर रुकता सा लग रहा था. दिन में थॉमस एस. टिम्बर्ग की किताब की खोज में पुस्तकालयों के चक्कर लगाता था, रात में घनश्याम दस बिरला की जीवनी से जरूरी किस्सों के नोट बनाता. हफ्ते भर में उसके नोट्स बनाकर कम्पनी के निदेशक को छायाप्रति दी और मूल प्रति लेकर मनोहर श्याम जोशी के यहाँ पहुंचा. डर भी लग रहा था कि वे कहीं दूसरी किताब के बारे में न पूछ दें. मेरे नोट्स को सरसरी तौर पर देखने के बाद वे अंदर कमरे में गए और थॉमस एस. टिम्बर्ग की किताब की एक प्रति निकालकर ले आये. मुझे दी और बोले, इसको भी पढ़कर नोट्स बना लो.
उस दिन मैंने उनके व्यक्तित्व का और पहलू पहचाना. वे ऐसे पेशेवरों में नहीं थे जो अपने सहायकों के ऊपर काम के लिए निर्भर रहते हों. बल्कि वे जिसे अपने काम में सहायता के लिए रखते थे अक्सर उसके काम में भी मदद करते रहते थे.
जब थॉमस एस. टिम्बर्ग की किताब से मैंने अपनी समझ के मुताबिक़ नोट्स ले लिए और उनको बताने के लिए गया तो उन्होंने उसको सरसरी तौर पर देखते हुए एक तरफ रख दिया. गुड़ की धेली के साथ चाय पीते हुए कुछ देर बाद उन्होंने उस दिन पहली बार ‘मारवाड़ी’ धारावाहिक को लेकर अपने विचारों का खुलासा किया. यह बताया कि उसके माध्यम से वह कहानी में भारतीय उद्योग जगत के विकास को भी दिखाना चाहते थे. इसलिए जरूरी है कि आजादी के बाद भारत में सरकारों ने किस तरह समाजवादी नीतियों का निर्माण करते हुए उद्योग जगत को एक तरह से प्रश्रय देने का भी काम किया. मैंने पता कर लिया फिक्की की लाइब्रेरी में इसको लेकर काफी किताबें हैं. वहां जाकर कुछ नोट्स बनाओ.
फिक्की पुस्तकालय में रोज 10 रुपये देकर उस जमाने में दैनिक सदस्यता ली जा सकती थी और दिन भर पुस्तकालय में बैठकर कम करने की सुविधा मिल जाती थी. ज़ूम कम्युनिकेशन के जेनरल मैनेजर चंद्रशेखर तमिल मूल के थे और पेशे से सी.ए. थे. फिक्की में शोध की बात सुनते ही वे उछल पड़े. उन्होंने कहा, देखना इस बार जोशी जी भारतीय पूँजी की बुनियाद खोज कर रहेगा. तुम चिंता मत करो. उन्होंने मेरे लिए 10 रुपये रोज देकर वहां बैठने की व्यवस्था ही नहीं की बल्कि ग्रेटर कैलाश से मंडी हाउस स्थित फिक्की के पुस्तकालय तक आने जाने के लिए कन्वेयेंस भी पास कर दिया. दो तीन दिन तो लाइब्रेरी में शोध चला फिर ऊब होने लगी. समझ में भी नहीं आ रहा था कि अब ऐसा क्या खोजूं कि ‘मारवाड़ी’ के किस्से का हिस्सा बनाया जा सके.
तभी एक रात होस्टल में यूपीएससी की तैयारी करने वाले अपने एक मित्र के पास जी.एस. की गाइड मिली जिसमें इन्डियन इकोनॉमी पर कम शब्दों में जानकारी भर सामग्री थी. अगले दिन से रुटीन बदल गया. मैं दफ्तर जाता था. वहां से फिक्की जाने के बजाय हॉस्टल वापस आ जाता था. उसी गाइड से नोट्स तैयार हो रहा था. करीब महीने भर तक यह प्रोग्राम बढ़िया चला.
शोध बढ़िया चल रहा था कि एक दिन कम्पनी के एम.डी. रश्मिकांत ने बुलाकर पूछा कि कितना रिसर्च किया है सब लेकर आओ. मैंने करीब 100 पेज फोटो कॉपी में उनके सामने पेश कर दिया. उसको कुछ देर उलटने पुलटने के बाद उन्होंने शाबाशी देने के अंदाज में कहा- काम तो तुमने काफी कर लिया है! इससे पहले कि मैं खुश होता उनके अगले सवाल ने मुझे गंभीर बना दिया- जोशी जी ने कहानी पर काम शुरू किया?
अब मुझे यह डर सताने लगा कि अगर जोशी जी ने कहानी नहीं लिखी तो मेरी इस नौकरी का क्या होगा? दूसरा डर यह था कि अगर एक बार उन्होंने कहानी लिख दी तो मेरा क्या होगा? मैं रिसर्चर था. रिसर्च का काम ख़त्म होने के बाद कहानी का काम शुरू हो जाता और मुझे फिर से पीएचडी के शोध में जुट जाना होता...
मैं इस दोहरे डर के साथ जोशी जी से मिला. मैं उनसे कुछ कह तो नहीं सकता था लेकिन इशारों-इशारों में मैंने उनसे कहानी के बारे में पूछा. अपना यह डर भी बताया कि अब तक मैंने जो शोध किया है उसको रश्मिकांत ने देख कर शाबाशी तो दे दी है मगर...
जोशी जी ने ध्यान से सुना और कहा कल सुबह आ जाओ. इसका काम शुरू करते हैं. अब से तुम इस कहानी में मेरी सहायता करोगे. स्टोरी डेवलपमेंट में...
मैं रिसर्चर से लेखक होने जा रहा था. एक बड़े सोप ऑपेरा का. रात भर इस बेचैनी ने नींद को करवट इधर से उधर लेने में बदल दिया. सुबह होस्टल में नाश्ता किया, लंच पैक करवाया और बस अड्डे जाकर 501 नंबर की बस पकड़ ली.
जब उनके घर पहुंचा तो मैंने पाया कि वे मेरे शोध के कागजों को फैलाए कुछ देख रहे थे. मुझे देखते ही उन्होंने कहा कि कागज़ उठाओ और लिखना शुरू कर दो. उसके बाद उन्होंने धूपिया परिवार की कहानी सुनानी शुरू की जो छपनिया अकाल के बाद राजस्थान से देसावर पर निकले और कोलकाता पहुँच गए. धीरे-धीरे वह परिवार देश का प्रमुख उद्योगपति परिवार बना. कहानी की शुरुआत होने वाली थी, उस समय परिवार के मुखिया के 80 वीं जन्मदिन से. उस दिन वह यह घोषणा करने वाले थे कि अब वे काशीवास पर जायेंगे. उनके तीन बेटे, मृत चौथे बेटे की विधवा पत्नी, पोते-पोती सब उस दिन जुटने वाले होते हैं. उस दिन धूपिया सेठ अपनी वसीयत की घोषणा करने के बाद अगली सुबह बनारस में अपने पिता की बनाई हवेली में अपना शेष जीवन काटने के लिए जाने वाले होते हैं.
पार्टी अपने चरम पर होती है कि अचानक एक नौजवान आता है और सबके चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगती हैं. मुझे याद है कि यहाँ आकर उन्होंने कहा कि कहानी अब यहाँ से आगे तुम डेवलप करो. देखो क्या बनाते हो. कहानी डेवलप करने के कुछ नुस्खे भी उन्होंने दिए. सबसे पहला यह कि कहानी को हमेशा वर्तमान काल में सोचना चाहिए. फिल्म और टीवी के लिए लिखते हुए यह जरूरी है कि आप जो भी लिखें पहले उसे मन के परदे पर घटित होता हुआ महसूस करें. दूसरा, सूत्र यह था कि यह कहानी एक ऐसे धारावाहिक के लिए लिखी जाने वाली है जो 100 से अधिक एपिसोड तक चलेगी. इसलिए कहानी में हमेशा आगे के लिए सूत्र छोड़ते जाना. फिर, कहानी को सम्पूर्णता में मत सोचना, हमेशा एपिसोड रूप में, क्रमिक रूप में आगे की तरफ बढ़ते हुए सोचना. और अंत में, सबसे जरूरी बात यह कि पहला एपिसोड इतना धमाकेदार, इतना नाटकीय मत लिखना, कहानी को इतनी ऊंचाई पर मत ले जाना कि दर्शक हर एपिसोड में उस ऊंचाई की तलाश करें. हर एपिसोड में कहानी को उतना नाटकीय बनाना संभव नहीं हो सकता. इसलिए दर्शकों को सीरियल से निराशा हो सकती है. अपने लेखन की जितनी सीमा हो कहानी को उसी के मुताबिक़ नाटकीय बनाना बेहतर और सुरक्षित तरीका है.
कहानी आगे बढाने के सूत्र समझाते हुए उन्होंने एक किस्सा सुनाया जो राज कपूर से संबंधित था. मनोहर श्याम जोशी ने अपनी कुछ भेंटवार्ताओं में इस बात का उल्लेख किया था कि राज कपूर ने अपने आखिरी दिनों में एक फिल्म बनाने की घोषणा की थी, जिसका नाम था ‘घूंघट के पट खोल’. उन्होंने बताया कि राज कपूर जब स्टोरी सिटिंग करते थे तो वे कुछ दृश्य बताते थे. जैसे उन्होंने उनको तीन दृश्य सुनाये, एक आदमी अपने जीवन का सबसे बड़ा सम्मान पाकर ट्रेन में चढ़ता है. ट्रेन चलते-चलते एक स्थान पर रुक जाती है. वह आदमी पूछता है कि वह कौन सा स्टेशन है, उसे जवाब मिलता है- नोव्हेयर! जवाब सुनते ही वह उठता है और यह कहते हुए उतर जाता है कि यहीं तो उसे जाना था. अब वह आदमी कौन था और वहां क्यों उतर गया?
दूसरा सीन था कि एक साधु एकतारा पर कुछ बजाते हुए गाता जा रहा है कि एक बड़ी सी हवेली की खिड़की खुलती है, एक महिला उसे देखती है और फिर आँसू पोंछते हुए खिड़की बंद कर लेती है. वह साधु कौन था और उस महिला ने उसकी आवाज सुनकर खिड़की क्यों खोली और फिर आँसू पोछते हुए बंद क्यों कर ली?
तीसरा, एयरपोर्ट पर एक महिला एक बुक शॉप के पास एक मैगजीन के कवर पर छपी फोटो को देखकर रुक जाती है, फिर मैगजीन खरीदती है. आगे लाउंज में बैठकर उसे थोड़ी देर तक उलटती-पुलटती है, फिर इधर-उधर देखती हुई मैगजीन वहीं छोड़कर उठ जाती है. वह महिला कौन थी और मैगजीन के कवर पर किसकी तस्वीर को देखकर वह बेचैन हो गई थी, आखिर वह मैगजीन छोड़कर क्यों उठ गई?
इन तीन दृश्यों के साथ राज कपूर ने बताया कि फिल्म की कहानी मोटे तौर पर इन्हीं सूत्रों से निकलनी चाहिए और इस तरह से आपस में जुड़ जानी चाहिए कि एक कामयाब फिल्म उसके ऊपर बनाई जा सके. जोशी जी ने बताया कि उसके बाद उन्होंने एक कहानी लिखी और राज कपूर ने उसके ऊपर फिल्म बनाने की घोषणा भी की- घूंघट के पट खोल!
बाद में मैंने मधु जैन की किताब ‘कपूर्स: द फर्स्ट फैमिली ऑफ़ इन्डियन सिनेमा’ में इसके बारे में पढ़ा भी. मधु जैन ने लिखा है कि रणधीर कपूर के निर्देशन के लिए राज कपूर एक अच्छी फिल्म का चुनाव करना चाहते थे. पहले बी.बी. भल्ला की एक कहानी पर रणधीर कपूर फिल्म बनाना चाहते थे लेकिन राज कपूर को वह फिल्म पसंद नहीं आई. जब ‘बुनियाद’ के लेखक के रूप में मनोहर श्याम जोशी का नाम प्रसिद्ध हो गया तो रणधीर कपूर ने उनसे कहानी लिखने का आग्रह किया था. हालाँकि, बाद में यह उनकी कई उन फिल्मों की सूची में शामिल हो गई जो कभी नहीं बन पाई.
बहरहाल, विषय में विषयांतर की इस लम्बी कहानी को सुनाने के बाद उन्होंने कहा- आज से इस प्रोजेक्ट का नाम ‘मारवाड़ी’ नहीं होगा. इस धारावाहिक का नाम होगा- शुभ लाभ!
अब जाओ कहानी आगे बढ़ाकर लाना...
मैं शीर्षक से ही मुग्ध था. शुभ लाभ. उत्तर भारत में एक तरह से गोला-गद्दी, किराना भण्डार, जनरल स्टोर की कोई भी दुकान बिना शुभ लाभ लिखे नहीं चलती थी. अगले दिन जब मैंने ऑफिस में जाकर बताया कि जोशी जी ने नाम फाइनल कर लिया है- शुभ लाभ! तो सबके चेहरे पर आने वाली काम की ख़ुशी तैरने लगी. सब उत्सुक हो गए थे. जब नाम ऐसा है तो सीरियल की कहानी कैसी होगी. चंद्रशेखर ने कहा कि तुमने फिक्की में फाइव ईयर प्लान, विकेंद्रीकरण को लेकर जो रिसर्च किया था हो सकता है उसे पढ़ते पढ़ते ही उनके मन में यह नाम क्लिक कर गया हो.
मेरी एक असुरक्षा दूर हो गई थी. अब रिसर्चर से मैं कहानी के डेवलपमेंट के काम से जुड़ गया था. यानी मेरी नौकरी को फिलहाल कोई खतरा नहीं था. लेकिन दूसरी असुरक्षा शुरू हो गई- अब कहानी आगे कैसे बढे. मैंने तो कभी कुछ लिखा ही नहीं था. लेखक बनकर छा जाने की तमन्ना तो बड़ी थी लेकिन सच्चाई यही थी कि कभी अपने लिए भी मैंने कोई कहानी नहीं लिखी थी.
कहानी बनाने, आगे बढाने के उहापोह के बीच उनके सहायक शम्भुदत्त सती ने बताया जोशी जी मुम्बई जा रहे हैं. ‘गाथा’ की शूटिंग शुरू होने वाली है. लौट कर अब ‘शुभ लाभ’ का काम करेंगे. आप तैयार हो जाओ. कुछ पन्ने भर लो और तैयार रहो, नहीं तो वे बहुत नाराज हो जायेंगे.
जब बात सर पर आ गई तो मैंने दो-तीन रात लगाकर धूपिया परिवार की उनकी सुनाई कहानी में कुछ सूत्र जोड़ने की कोशिश की और करीब 30-35 पन्ने हाथ से लिख डाले. बाकी क्या लिखा था यह तो याद नहीं लेकिन बाद में आने वाले एक नौजवान की जो कहानी उन्होंने सुनाई थी, जिसके आते ही सबके चेहरे की रंगत बदलने लगती है उसकी कहानी में मैंने सूत्र जोड़े थे कि वह सेठ जी के अतीत के जीवन से जुड़ी एक स्त्री का पौत्र था, जिसने उसके माध्यम से उनको जन्मदिन की बधाई भेजी थी. बरसों बाद उस परिवार के लड़के को, वह भी ऐन उस दिन जिस दिन कोई ख़ास घोषणा होने वाली थी, वहां पाकर सभी चौंक उठते हैं. इसको मार्क करके उन्होंने रख लिया और कहानी लिखवाने का काम शुरू करवा दिया.
प्रसंगवश, मनोहर श्याम जोशी को पीरियड धारावाहिक का सबसे माहिर लेखक माना जाता था. तब ऐतिहासिक धारावाहिकों का ज़माना नहीं आया था. लेकिन ‘बुनियाद’ की एक बहुत बड़ी खासियत यह भी मानी गई थी कि उसके दृश्यों में विभाजन के पहले का लाहौर और विभाजन के तत्काल बाद की दिल्ली साकार हो गई थी. हालाँकि, उस धारावाहिक में रिसर्च की क्रेडिट पुष्पेश पन्त को दी गई थी, यशपाल की पत्नी प्रकाशवती पाल के साथ इस बात को लेकर विवाद भी हुआ था कि ‘बुनियाद’ की कहानी यशपाल के उपन्यास ‘झूठा सच’ से प्रेरित थी. बहरहाल, लोग आज सारे विवादों को भूल चुके हैं और उनको बस यही याद है कि ‘बुनियाद’ को मनोहर श्याम जोशी ने बड़े विश्वसनीय तरीके से लिखा था.
पीरियड फिल्म या धारावाहिक में किसी बीते हुए काल खंड को परदे पर साकार किया जाता है. उसमें शोध जितना प्रामाणिक होता है परदे पर कहानी उतनी ही विश्वसनीय लगती है. मुझे इसका थोड़ा बहुत अनुभव हुआ ‘शुभ लाभ’ के दौरान. मैंने एक सीन में यह लिखा कि नायिका अपने पारकर पेन से लिख रही थी. 20 वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों का सीन था. उन्होंने टोक दिया था. गूगल बाद के दौर में यह सूचना मामूली हो सकती है लेकिन उससे पहले के दौर में यह ज्ञान था. उन्होंने बताया था कि भारत में पहले वाटरमैन पेन आया था. पारकर बाद में आया. प्रसंगवश, फाउंटेन पेन की शुरुआत वाटरमैन ने की थी. पारकर नामक कम्पनी ने फाउंटेन पेन का निर्माण बाद में शुरू किया था. मैं तब उनकी इस तरह की टोकाटोकी के बाद अक्सर यह सवाल करता था कि इतनी बारीक बात कौन समझेगा. वे जवाब में यही कहते थे कि अगर कोई समझ जायेगा तो सोचो लेखक के रूप में मेरी क्या साख रह जाएगी?
बाद में जब समझ कुछ अधिक विकसित हुई तो यह बात समझ में आई कि टीवी और फिल्म के लिए लिखते हुए भी उन्होंने कभी ऐसा कुछ नहीं लिखा जो इतिहास सम्मत न हो. वे मनोरंजन में ज्ञान मिलाने के कायल थे. अभी हाल में मैंने उनकी किताब ‘बातें-मुलाकातें: आत्मपरक-साहित्यपरक’ में उनका एक अनाम लेकिन लम्बा साक्षात्कार पढ़ा, जिसमें एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा है, ‘जनता छाप और इंटेलेक्चुअल छाप दोनों चीजें पढ़ने और लिखने में मुझे रस आता है. यों इसके चलते मेरी जनता छाप कृतियों में भी थोड़ी बहुत साहित्यिकता है और साहित्यिक कृतियाँ भी इस माने में जनता छाप हैं कि अपनी तमाम इंटेलेक्चुअलता(नागर जी का शब्द) के बावजूद पठनीय हैं.’
इधर धारावाहिक के एपिसोड लिखे जा रहे थे उधर रश्मिकांत उसके निर्देशक को लेकर भागदौड़ कर रहे थे. उन्होंने गोविन्द निहलानी से बात की थी और उनकी मनोहर श्याम जोशी के साथ मीटिंग भी हो चुकी थी.
सारी तैयारी हो चुकी थी. लेकिन ‘शुभ लाभ’ का वही हश्र हुआ जो उनके करीब दो दर्जन धारावाहिकों और करीब आधा दर्जन फिल्मों के साथ हो चुका था. उसकी शूटिंग शुरू होती कि उससे पहले ही स्टार प्लस के सीईओ रतिकांत बासु ने ‘शुभ लाभ’ को न कर दिया. उसके पीछे कारण भी मनोहर श्याम जोशी ही थे. चैनल के पास मनोहर श्याम जोशी के लिए दो बड़े सोप ओपेराओं के प्रस्ताव थे. पहले के निर्देशक रमेश सिप्पी थे, दूसरे के निर्देशक का नाम फाइनल नहीं हुआ था. प्रोडक्शन हाउस भी नया सा था. रतिकांत बासु ने पेशेवर फैसला लिया. उनका फैसला यह था कि ‘बुनियाद’ बनाने वाली जोड़ी रमेश सिप्पी और और मनोहर श्याम जोशी के शाहकार ‘गाथा’ को हरी झण्डी दी जाए और साथ में, हिंदी के नए दरशकों के लिए ‘बुनियाद’ का पुनर्प्रसारण किया जाए.
आर. बासु दूरदर्शन के कार्यकारी महानिदेशक रह चुके थे, और स्टार टीवी के हिंदी प्रसारण में वही जादू जगाना चाहते थे. लेकिन एक ही लेखक के लिखे कई धारावाहिक प्रसारित किये जाएँ यह विचार उनको पेशेवर नहीं लगा.
‘शुभ लाभ’ का सारा शोध, सारी कहानी रह गई. लेकक निर्माता के रिश्ते खराब होने लगे और मेरी वह नौकरी जाती रही. टीवी लेखक बनने का सपना उस समय पूरा नहीं हो पाया. मैं डीयू में एक बार फिर से पूर्णकालिक शोधार्थी बन गया. यूजीसी की फेलोशिप मिलने लगी थी इसलिए आर्थिक मुश्किल उतनी नहीं थी.
बहरहाल, जोशी जी के यहाँ आने जाने का सिलसिला शुरू हो गया था. बीच बीच में कई बार उनसे ‘शुभ लाभ’ को लेकर बात हुई. वे मन बना रहे थे कि एक उपन्यास मारवाड़ी समुदाय के ऊपर भी लिख लिया जाए. वे अजमेर में पैदा हुए थे, लम्बे समय तक बिड़लाओं की कम्पनी हिन्दुस्तान टाइम्स में संपादक रह चुके थे. कई बार उन्होंने कहा कि इतना सारा शोध है, इतनी मेहनत की है मैंने कहानी बनाने में, इसको वेस्ट नहीं जाने देना चाहिए. वे उपन्यास की योजना पर काम करने की सोच ही रहे थे कि उसी बीच अलका सरावगी का मशहूर उपन्यास ‘कलि कथा वाया बाईपास’ प्रकाशित हुआ और बेहद पसंद किया गया. उस उपन्यास के केंद्र में भी मारवाड़ी समुदाय ही था.
उसके बाद, मुझे याद है, जब मैं पहली बार जोशी जी से मिलने गया तो वे हँसने लगे. उन्होंने ‘कलिकथा वाया बाईपास’ की भूरि-भूरि प्रशंसा की और कहा कि अब मारवाड़ी समुदाय पर इतना अच्छा कथात्मक साहित्य नहीं लिखा जा सकता है.
जीवन में संयोग भी होते हैं- कहते हुए वे दूसरे कमरे में गए. आये तो उनके हाथ में जेम्स रेडफिल्ड का उपन्यास ‘द सेलेस्टिन प्रोफेसी’ था. कहा यह उपन्यास आजकल बहुत चर्चा में है. इसमें लेखक ने लिखा है कि जीवन में अक्सर संयोग श्रृंखलाबद्ध रूप से घटित होते हैं.
मैंने बाद में सोचा तो यह समझ में आया कि एक जमाने में टीवी धारावाहिकों की दुनिया के सबसे बड़े लेखक माने जाने के बावजूद उन दिनों वे जो भी धारावाहिक लिख रहे थे संयोग से वे परदे पर नहीं आ पा रहे थे!
जनवरी 1996 को याद करने की एक और वजह भी है. उसी साल मुझे फिल्म फेस्टिवल में एक लड़की ने कहा था- बड़े-बड़े देशों में ऐसी छोटी-छोटी बातें होती ही रहती हैं! वह ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ की दीवानगी के दिन थे!
वह मेरी पहली प्रेमिका थी जिसने मुझे उसी साल आखिरी बार अलविदा कहा था!
==============================================