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रामपुर से ग्राउंड रिपोर्ट : जयाप्रदा और आज़म की लड़ाई में कांग्रेस का पेच

रामपुर में बहुत सारे लोग हैं जो आज़म खान का विरोध करने का खामियाज़ा भुगत रहे हैं.

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राजनीतिक करियर में जयाप्रदा ने कुल मिलाकर पांच पार्टियों का हाथ थामा है. इस समय वह बीजेपी के टिकट पर रामपुर से चुनाव लड़ रही हैं. (फोटो: लल्लनटॉप- विभव श्रीवास्तव)
गांव क्योरार. ब्लॉक का नाम है मिलक. लोकसभा क्षेत्र रामपुर. गांव शहर से लगभग तीस किलोमीटर दूर है. गांव में रहने वाले अधिकतर लोग ब्राह्मण समुदाय से ताल्लुक रखते हैं. रात के दस बजने वाले हैं, गांव में घुसने पर बाहर कुछ सन्नाटा है. घर-मकान कुछ खाली दिख रहे हैं. कुछ के दरवाजों पर ताला पड़ा है. पता चलता है कि अधिकतर लोग गांव के भीतर के मैदान में गए हुए हैं. अंदर जाने पर एक मैदान में शामियाना तना हुआ मिलता है. दूर से ही एक के बाद एक गाने बजते सुनाई देते हैं. एक है भारतीय जनता पार्टी का प्रचार गीत, जो किसी धुन में नहीं बल्कि नारे की आवाज़ में बंधा हुआ है. और दूसरा है 1984 में आई फिल्म "शराबी" का गीत “मुझे नौलखा मंगा दे रे, ओ सैयां दीवाने”.
हां. हम जयाप्रदा की क्योरार गांव में आयोजित जनसभा में आए हैं. जयाप्रदा को आने में कुछ देर है. मंच पर एक वक्ता नारे लगवा रहा और भाषण दे रहा है. एक तरफ बच्चे बैठे हैं तो दूसरी तरफ महिलाएं. पीछे कुछ पुरुष बैठे है तो कुछ खड़े हैं.
हमारे पहुंचने के कुछ मिनटों के भीतर ही जयाप्रदा आती हैं. लोग उनके साथ सेल्फी लेने के लिए धक्कामुक्की करने लगते हैं. जयाप्रदा हमेशा की तरह आज़म खान पर हमले करके 15 मिनट बाद सभा से चली जाती हैं. जाते-जाते महिलाएं उन्हें घेर लेती हैं और उनके पैर छूने लगती हैं. एक महिला हमसे कहती है, “किसी औरत को वो सब न सुनना पड़े, जो सांसद जी सुन रही हैं.” उनका इशारा है आज़म खान के जयाप्रदा के खिलाफ दिए गए बयानों की तरफ.
जया का राजनीतिक सफर जयाप्रदा फिल्मों से राजनीति का सफ़र तय करती हैं. दो दशकों से भी आगे चल रहे अपने राजनीतिक करियर में जयाप्रदा ने कुल मिलाकर पांच पार्टियों का हाथ थामा है. तेलगु देशम से उनका राजनीतिक करियर शुरू होता है. भाजपा में आने से पहले वह सपा, रालोद, निर्दल और खुद अपनी पार्टी तक का सफर कर आती हैं. हमसे बातचीत में यह दावा भी करती हैं कि “मैं जहां भी रही, काम किया.” 2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों में रामपुर सीट पर जया ने जीत दर्ज की. 2004 में आज़म खान ने उन्हें चुनाव लड़ाया और ऐसा भी कहते हैं 2009 में उन्हें अमर सिंह ने चुनाव लड़ाया. लेकिन मौजूदा लोकसभा चुनाव में जया और आज़म आमने-सामने हैं.
रामपुर में जयाप्रदा सहानुभूति का कार्ड खेलती नज़र आ रही हैं.
रामपुर में जयाप्रदा सहानुभूति का कार्ड खेलती नज़र आ रही हैं फोटो: लल्लनटॉप- विभव श्रीवास्तव

रामपुर सीट से ही कई बार विधायक रहे सपा नेता आज़म खान उत्तर प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री भी रह चुके हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में वे यहां से प्रत्याशी हैं. सपा के पुराने नेता आजम खान के सामने दो बड़े प्रत्याशी हैं. एक हैं भाजपा की जयाप्रदा, जिनकी कहानी हम आपको बता चुके हैं.
तीसरा प्रत्याशी कौन और दूसरे प्रत्याशी का नाम संजय कपूर है. संजय कपूर कांग्रेस से ताल्लुक रखते हैं और रामपुर की बिलासपुर विधानसभा से विधायक रह चुके हैं. नाम में कपूर है, तो बिलासपुर के लोग और रामपुर के स्थानीय बताते हैं कि बिलासपुर में बसे लगभग पचास हजार सिख वोटरों का उन्हें लाभ मिला है. लेकिन यहां पर ये भी बताना ज़रूरी हो जाता है कि संजय कपूर का नाम रामपुर के बाहर की मीडिया में नहीं सुनाई दे रहा. रामपुर के बाहर के भूगोल के लिए यहां की लड़ाई सिर्फ आज़म खान और जयाप्रदा के बीच की है. लोग तो यह भी कह दे रहे हैं कि हिन्दू बनाम मुस्लिम की लड़ाई है तो दोनों में से कोई भी जीत सकता है. लेकिन अंदर पता चलता है कि 23 अप्रैल को होन वाली वोटिंग के लिए संजय कपूर भी एक निर्णायक भूमिका में उतर चुके हैं.
इस कठिन पेच का श्रेय आज़म खान को जाता है, जिनके खिलाफ अब रामपुर में खुलकर बातें होने लगी हैं.
अब रामपुर में भी आज़म का विरोध
स्थानीय समाजसेवी फ़रमान क़ुरैशी बताते हैं कि पहले तो रामपुर में ऐसा था कि आप आज़म खान के खिलाफ बात तक नहीं कर सकते थे. वह कहते हैं –
“पहले क्या, कुछ हद तक अभी भी ऐसा है. रामपुर में आज़म के खिलाफ आपसे लोग नहीं बात करेंगे. लेकिन अब धीरे-धीरे लोग बात करने लगे हैं.”
“लोग कह रहे हैं कि आज़म खान ने विकास किया है. मान रहे, लेकिन आज़म खान ने सारा पैसा सड़कों पर ही लगा दिया. उन्होंने इस क्षेत्र के युवाओं को नौकरी दिलवाने के लिए कोई काम नहीं किया, न कैबिनेट मंत्री रहते हुए, न ही विधायक रहते हुए,”
यूपी के रामपुर में नासिर हुसैन ऐसा कहते हैं तो आसपास के लोग अचरज में ज़रूर पड़ जाते हैं.
हम माइक और कैमरा लेकर जब रामपुर के बीचोंबीच बाज़ार पहुंचते हैं तो अधिकतर गिनवाने लगते हैं कि रामपुर में आज़म खान ने काम करवाया है, और “क्षेत्र के लिए काम किया है”. लेकिन कैमरा बंद होते ही कहते हैं,
“मैं तो खुद संजय कपूर को वोट करूंगा, लेकिन आज़म के डर से कहूं क्यों?”
आज़म खान का डर? इस पर अचरज इसलिए भी हो सकता है कि सपा के इस पुराने नेता के लिए यह एक आम धारणा बनती देखी गयी है कि आज़म खान मुस्लिम मतदाताओं के बीच “लोकप्रिय” हैं. लेकिन रामपुर में इस धारणा को नया रूप मिलता है. और इसके पीछे कारण हैं आज़म के वे फैसले जिनके बारे में लोग कहते हैं कि वे फ़रमानी और ज़्यादती होते हैं. कहते यह भी हैं  कि ये फैसले अक्सर राजनीतिक और सामाजिक वर्चस्व की लड़ाई में लिए जाते रहे हैं.
फ़रमान कुरैशी बताते हैं –
“यहीं कांशीराम आवास के पास मेरी ज़मीन थी. मैं लम्बे समय से आज़म खान का विरोधी हूं. एक दफा मैंने किसी बात पर आज़म खान के खिलाफ प्रदर्शन किया था. मुझे धमकाया गया अलग, उन्होंने मेरी ज़मीन पर पानी की टंकी बनवा दी. और प्रचार करवा दिया कि कांशीराम आवास के लिए बनवाई है.”
रामपुर में ऐसे किस्से बहुतेरे हैं. थोड़ा ही कुरेदने पर पता चलता है कि ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो आज़म खान से लोहा लेने का खामियाज़ा भुगत रहे हैं. किसी का मदरसा गिरवा दिया तो किसी के घर पर कब्ज़ा करवा लिया. लेकिन आज़म खान के खिलाफ़ सबसे बड़ा आरोप आलियागंज गांव से निकलकर आता है.
आज़म खान इस चुनाव में सम्हल-सम्हल कर बयानबाजी कर रहे थे. लेकिन बाद में जयाप्रदा पर बयान दिया और फंस गए.
आज़म खान इस चुनाव में सम्हल-सम्हल कर बयानबाजी कर रहे थे. लेकिन बाद में जयाप्रदा पर बयान दिया और फंस गए.

आलियागंज रामपुर के मौलाना अली जौहर विश्वविद्यालय से सटा हुआ गांव है. इस गांव के बहुत सारे लोगों की ज़मीनें इस विश्वविद्यालय के लिए आज़म खान के कहने पर ली गयीं थीं. गांव में लोग आरोप लगा रहे हैं कि तहसीलदार को गांव में बुलाकर उनसे ज़बरदस्ती ज़मीनों का बैनामा करवा लिया गया. कुछ तो यह भी कहते हैं कि उनकी ज़मीनें दबा ली गयीं और आज तक वे न्याय के लिए भटक रहे हैं. इसी गांव के बन्दे अली कहते हैं –
“मेरी सवा दो बीघे की ज़मीन आज़म खान ने दबा ली. पैसा भी नहीं मिला. कोर्ट कचहरी सब किये. लेकिन कोई हल नहीं निकला अभी तक.”
अलियागंज के मोहम्मद यासीन भी बताते हैं कि उनकी सवा तीन बीघे की ज़मीन दबी पड़ी है, जिसकी अभी तक कोई सुनवाई नहीं हो सकी है. आज़म खान पर यह आरोप है कि तहसीलदार को लेकर गांव में ही चले आए और डरा-धमकाकर ज़मीनों का बैनामा करा लिया. जिन्होंने इंकार किया, उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा जमा लिया गया. हालांकि गांव के दूसरे लोग ये कहते हैं कि ज़मीन उन्होंने राज़ीखुशी दी, जिसके उन्हें अच्छे पैसे भी मिले.
आजम के बेटे भी कर रहे हैं जमकर प्रचार
राजनीतिक प्रचार की बात करें तो अपने बयानों की वजह से चर्चा में रहने वाले आज़म खान इस चुनाव में सम्हल-सम्हल कर बयानबाजी कर रहे थे. लेकिन दो दिनों के भीतर ही “ख़ाकी अंडरवियर” और कलेक्टरों के विरोध में बयान देकर आज़म खान ने चुनाव आयोग के बैन का सामना किया. जब आज़म खान चुप बैठे थे तो उनकी ओर से मोर्चा उनके बेटे अब्दुल्लाह आज़म खान ने सम्हाला. अब्दुल्लाह आज़म खान रामपुर की ही सुआरटांडा विधानसभा सीट से विधायक हैं और आज़म खान के पक्ष में जमकर प्रचार कर रहे हैं.
स्थानीय लोगों की मानें तो अब्दुल्लाह आज़म खान भी पापा आज़म के नक्शे-कदम पर चल रहे हैं. बयानबाजी में उतने ही तल्ख़. पापा पर चुनाव आयोग ने कार्रवाई की तो अब्दुल्लाह आज़म खान ने कह दिया कि चुनाव आयोग ने यह कार्रवाई भाजपा को खुश करने के लिए की है. उनके साथ-साथ राज्यसभा सांसद और आज़म की पत्नी तज़ीन फ़ातिमा भी जनसंपर्क कर रही हैं.
मोर्चेबंदी के साथ जयाप्रदा
आज़म खान इन दिनों अपने बयानों के कारण भी चर्चित हैं. और इन बयानों का इस्तेमाल जयाप्रदा उनके खिलाफ कर रही हैं. और इस्तेमाल भी ऐसा कि जयाप्रदा अपनी रैलियों में आज़म खान से अलग कोई भी बात नहीं करती दिख रही हैं. हाल फिलहाल अंडरवियर का रंग और कलेक्टरों से जूता साफ़ करवाने संबंधी बयानों से रामपुर कुछ गर्म दिखायी देता है और जयाप्रदा इसे भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं.
जनसभाओं के साथ-साथ हमसे बातचीत में भी वे कहती हैं –
“आज़म खान कहते हैं कि पढ़नेवालों के लिए स्कूल बनवाया, नाचनेवालों के लिए स्कूल नहीं बनवाया. ये है बात करने का तरीका?”
रामपुर में जयाप्रदा भी सहानुभूति का कार्ड खेलती नज़र आ रही हैं. ब्लॉक प्रमुखों और पंचायत सदस्यों के साथ बातचीत में तो वे मोदी जी को मजबूत करने की बात कहती हैं. मोदी के नाम पर बूथ मैनेज करने की बात कहती हैं. लेकिन आम जनसभाओं में उनका बार-बार यह कहना कि वे लज्जित और अपमानित होकर रामपुर छोड़कर चली गयीं थीं लेकिन फिर से जनता का प्यार पाने आई हैं, ज़ाहिर कर ही देता है कि जयाप्रदा के पास सहानुभूति से अलग बेहद कम ही एजेंडे बचे हुए हैं.
क्योरार गांव. सवर्णों के साथ-साथ सैनी और गंगवारबहुल इस गांव में जयाप्रदा मजबूत दिखती हैं. (जया की सभा का नजारा)
क्योरार गांव. सवर्णों के साथ-साथ सैनी और गंगवारबहुल इस गांव में जयाप्रदा मजबूत दिखती हैं. (जया की सभा का नजारा) फोटो: लल्लनटॉप-वैभव श्रीवास्तव

लल्लनटॉप- विभव श्रीवास्तव
अपने संसदीय कार्यकाल में जयाप्रदा ने क्या किया, इसकी बात भी वे कम ही करती दिख रही हैं. उनका पूरा अटैक आज़म खान, मुलायम सिंह यादव और महागठबंधन में शामिल अन्य पार्टियों और उनके नेताओं पर केन्द्रित है.
चुनाव में यहां से वर्तमान भाजपा सांसद नेपाल सिंह नहीं लड़ रहे हैं. शहर में चर्चा है कि वे अपने बेटे के लिए टिकट मांग रहे थे, जो नहीं मिला. चर्चा तो यह भी चली थी कि यहां के हिन्दू बनाम मुस्लिम के फैक्टर को ध्यान में रखते हुए मुरली मनोहर जोशी को टिकट देने का भी सोचा था, लेकिन ऐन वक़्त पर जयाप्रदा पार्टी में शामिल हो गई और समीकरण बदल गया.
इस “ऐन वक़्त” को भी जयाप्रदा भुनाती हैं. वे यह कहती हैं कि उन्हें जनसंपर्क और प्रचार के लिए बेहद कम समय मिला. इसलिए उन्हें लोगों का साथ चाहिए.
गांव बनाम शहर
रामपुर के 52 प्रतिशत वोटर मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, तो 48 प्रतिशत हिन्दू समुदाय से. अधिकतर मुस्लिम आबादी शहर के भीतर तो हिन्दू आबादी शहर के बाहर के इलाकों में. ऐसे में शहर के भीतर तो दावे हैं कि आज़म खान सबकी ज़मानत जब्त करवा देंगे, लेकिन बाहर समीकरण बदलते हुए दिख रहे हैं.
हम धामनी हसनपुर गांव पहुंचे. मुस्लिम दलित मिश्र आबादी के इस गांव का अधिकतर वोट समाजवादी पार्टी की ओर जा रहा है. इन लोगों ने आज़म खान को आज तक नहीं देखा, लेकिन जयाप्रदा पर आरोप लगाते हैं कि वे इस इलाके में कैंपेन करने तक नहीं आईं.
क्योरार गांव. सवर्णों के साथ-साथ सैनी और गंगवारबहुल इस गांव में जयाप्रदा मजबूत दिखती हैं. आज़म खान के समर्थन की आवाज़ लगभग गायब है.
लेकिन बिलासपुर ब्लॉक पहुंचने पर पता चलता है कि कांग्रेस के प्रत्याशी संजय कपूर कैसे लड़ाई को प्रभावित कर रहे हैं. बिलासपुर में सिखों के लगभग पचास हज़ार वोट हैं, इन सभी वोटों और बाकी मुस्लिम-ओबीसी वोटों की मदद से संजय कपूर विधायक भी रह चुके हैं. अपने क्षेत्र के गांवों में वे मजबूत हैं, और जानकारों की मानें तो वे भाजपा और सपा दोनों के ही वोटों को नुकसान पहुंचा रहे हैं.
और एक हैं संजय कपूर
उड़ती बातों पर यकीन करें तो कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव संजय कपूर हैं और राहुल गांधी के ख़ास लोगों में उनकी गिनती होती है. लेकिन अकेले सिखों और ओबीसी के वोटों को लेकर संजय कपूर क्या कर लेंगे? रामपुर में राजनीतिक प्रभाव को थोड़ा पुख्ता करने के लिए उन्हें मुस्लिम वोटों की ज़रूरत है, और इस ज़रूरत को तीन मुस्लिम नेता पूरा कर रहे हैं, जिनका आज़म से छत्तीस का आंकड़ा है.
संजय कपूर की गिनती राहुल गांधी के ख़ास लोगों में होती है
संजय कपूर की गिनती राहुल गांधी के ख़ास लोगों में होती है

पहला नाम आता है यूसुफ़ अली का. यूसुफ़ अली बीते साल ही बसपा से कांग्रेस में शामिल हुए. चमरौआ विधानसभा से विधायक चुने गए और लम्बे समय तक आज़म का विरोध करते रहे हैं. चमरौआ ब्लॉक के गांवों में मुस्लिम और दलित आबादी पर यूसुफ़ अली की अच्छी पकड़ है.
दूसरा नाम हाफ़िज़ अब्दुल सलाम का आता है. अब्दुल सलाम पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष हैं और उनके परिवार के तीन अन्य लोग भी जिला पंचायत में सदस्य के रूप में शामिल हैं. आलियागंज गांव में आज़म खान पर ज़मीन हड़पने के जो आरोप लगाए जा रहे हैं, उसे एक तरह से सामने में लाने का काम हाफ़िज़ अब्दुल सलाम ने किया है. इतना काम कि योगी आदित्यनाथ से जांच की पैरवी तक कर डाली है.
और तीसरा नाम नूर बानो का है. नूर बानो यानी बेग़म नूर बानो मेहताब ज़मानी. जब रामपुर के नवाब सियासत में उतरे तो लम्बे समय तक रामपुर की सीट पर कांग्रेस का कब्ज़ा रहा करता था. नूर बानो के शौहर ज़ुल्फ़ीकार अली खान पांच बार संसद पहुंचे. नूर बानो खुद दो बार संसद पहुंची. आखिर में उन्होंने 2009 में चुनाव लड़ा. सामने थीं जयाप्रदा. आज़म खान की विरोधी रहीं नूर बानो के बारे में 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान यह कहा गया कि उन्हें जयाप्रदा के खिलाफ़ आज़म खान लड़वा रहे थे.
रामपुर के नवाब और बेग़म अब राजनीति में नहीं दिख रहे. खानदान की परंपरागत सुआरटांडा सीट पर अब आज़म खान के बेटे सवार हैं. नूर बानो क्या कर रही हैं? यूसुफ़ अली और अब्दुल सलाम के साथ मिलकर संजय कपूर के पक्ष में मुस्लिम वोटों को लामबंद कर रही हैं.
तो ऐसे में क्या हो सकता है? बहुत हद तक मुमकिन है कि संजय कपूर मुस्लिमों के साथ-साथ ओबीसी वोट काटें  जिससे आज़म के निर्विवाद रूप से जीतने का कयास कुछ हल्का पड़ जाए. लेकिन ओबीसी अच्छी संख्या में भाजपा के पास भी जाते दिख रहे हैं, साथ ही साथ महिला अस्मिता की बात उठाने के साथ ही महिलाओं का भी समर्थन जयाप्रदा को मिलता दिख रहा है, ऐसे में दिल्ली-लखनऊ से एकतरफा दिख रही रामपुर की लड़ाई कहीं न कहीं फंस रही है.
स्थानीय पत्रकार चांद खान तो यहां तक कह देते हैं –
“अगर आज़म और जयाप्रदा में से कोई जीता तो अंतर पचास हजार के अंदर ही होगा, लेकिन अगर राहुल प्रियंका कोई रोड-शो कर दें, तो बहुत मुमकिन है कि जिसको आप तीसरे पर समझ रहे, वो पहले की लड़ाई में आ जाए.”


डिग्री का भूत फिर से स्मृति ईरानी के पीछे पड़ गया है

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