हिंदी का एक शब्द है कुतिया. याद कीजिए आपने अपने किस रिश्तेदार या दोस्त को आख़िरी बार कब ये कहते सुना है कि ‘हमने एक कुतिया पाली है.’ कुछ अटपटा सा सुनाई पड़ता है न? जैसे भरी सभा में किसी को गाली दे दी हो!
"डॉगी-पपी" की जगह "कुत्ता-कुतिया" क्यों नहीं कहते? इसमें गलत क्या है?
क्या आपके बच्चे कुत्ता-कुतिया बोलते हैं तो आपको खराब लगता है?

पहले ऐसा नहीं होता था. लोग कुत्ते-कुतिया पालते थे लेकिन उनको कुत्ता या कुतिया कहते वक़्त ऐसा नहीं लगता था जैसे संस्कारियों से बात करते हुए मुंह से अंटशंट शब्द निकल गया हो. पर अब उन लोगों को भी कुतिया शब्द के प्रयोग से ऐतराज़ है जो इसे अपमानजनक मानते हैं और उन्हें भी जो कुत्ते-कुतियों से बेपनाह मोहब्बत करते हैं.
लखनऊ के राजेंद्र कुमार पाण्डेय के कुत्ते ने किसी को काट खाया. ख़बर बनी तो रिपोर्टर उनसे इंटरव्यू करने पहुंचा और सवाल-जवाब के दौरान बार-बार कुत्ते का ज़िक्र करने लगा. राजेंद्र कुमार पाण्डेय ने सख़्त एतराज़ जताते हुए कहा,
“बार-बार कुत्ता बोल रहे हैं आप. रॉनी पाण्डेय नहीं बोल सकते? उसको रॉनी पाण्डेय बोलिए.”
हमारी भाषाई संवेदनाओं में ये बदलाव क्यों हुआ? मनुष्य के ‘स्वामिभक्त’ जानवर को कुत्ता या कुतिया कहना फूहड़ता की निशानी कैसे बन गया?
कुत्ते निरीह प्राणी हैं. पूरी तरह मनुष्य पर निर्भर. मनुष्य को जब उन पर लाड़ आता है तो वो उन्हें अपना सबसे वफ़ादार दोस्त बताता है, और जब वो किसी दूसरे मनुष्य पर आगबबूला होता है तो धर्मेंद्र की तरह उसे ऐलानिया तौर पर कुत्ता घोषित करते हुए उसका ख़ून पी जाने की सार्वजनिक घोषणा करता है. या फिर विलेन को नीचा दिखाने के लिए राजकुमार की तरह कहता है: “मेरे टुकड़ों पर पलने वाले कुत्ते!”
ग़नीमत है कि कुत्ता शब्द का इस्तेमाल अपने परंपरागत अर्थों में अब भी होता है, मगर कुतिया को हिंदी भाषा से लगभग बाहर कर दिया गया है. और हमने स्वीकार भी कर लिया है कि शिष्ट समाज में कुतिया जैसे शब्द का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए. बच्चों को शुरुआत से ही सिखाया जाता है कि गाली देना अच्छी बात नहीं होती. उनकी मौजूदगी में बड़े लोग भी अपनी ज़बान पर लगाम रखने की कोशिश करते हैं ताकि बच्चे गाली देना न सीख लें.
चूंकि हिंदी-भाषी समाज का एक बड़ा तबक़ा लगभग मान चुका है कि कुत्ता या कुतिया कहना भदेस और असभ्यता की निशानी है, इसलिए हम इस बात को लेकर बहुत सतर्क रहते हैं कि ये देसी शब्द बच्चों की ज़बान पर न चढ़ जाएं. इसीलिए शहरी बच्चों को कुत्ते और कुतिया की जगह डॉगी या पपी कहना सिखाया जाता है. अंग्रेज़ी का रोग़न इन शब्दों के ‘भदेसपन’ पर सॉफ़िस्टिकेशन का मुलम्मा चढ़ा देता है. इसके बाद मम्मी-पापा को सार्वजनिक रूप से शर्मसार होने का ख़तरा नहीं रहता कि बच्चा पड़ोस के अंकल को जाकर कहेगा - ‘अंकल, हमने एक नई कुतिया पाली है’. इसकी बजाए जब वो कहता है कि ‘अंकल, हमारे घर एक नया डॉगी आया है’, तो मम्मी-पापा बलिहारी जाते हैं.
आप भी सहमति में सिर हिलाते हैं और कहते हैं कि ‘हां, अमेरिका में भी तो कुतिया को ‘बिच’ की जगह शी-डॉग कहा जाता है.’ ये अर्थ इसलिए बदला क्योंकि महिलाओं का अपमान या तिरस्कार करने के लिए उन्हें Bitch कहा जाने लगा. ऑक्सफ़ोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी के हिसाब से ‘बिच’ शब्द का इस्तेमाल 1000 ईसवी से हो रहा है. इसके लगभग पांच सौ साल बाद इस शब्द को महिलाओं के ख़िलाफ़ गाली के तौर पर इस्तेमाल किया जाने लगा.
बिच-केंद्रित बहस अमरीका में 2016 में हुए राष्ट्रपति चुनाव के दौरान काफ़ी तीखी हो गई थी. रिपब्लिकन उम्मीदवार डॉनल्ड ट्रंप के समर्थकों ने उनके ख़िलाफ़ चुनाव लड़ रही हिलरी क्लिंटन को ‘बिच’ कहना शुरू कर दिया. यहां तक कि एक टी-शर्ट बनवाई गई जिसमें दाहिनी तरफ़ ट्रंप की तस्वीर थी और बाईं तरफ़ हिलरी की, और बीच में लिखा था – ट्रंप दैट बिच. इस पूरे विवाद पर तब बीबीसी ने एक लेख छापा था कि ‘Bitch कहलाए जाने में बुराई क्या है?’
इसी लेख में बताया गया था कि 1811 में छपी फूहड़ भाषा शब्दकोश के लेखक फ़्रांसिस ग्रोस ने बिच शब्द के बारे में लिखा कि ‘किसी अंग्रेज़ औरत का इससे बुरा कोई और नाम नहीं धरा जा सकता’.
तब से अब तक दस शताब्दियों के दौरान ‘बिच’ शब्द ने एक लंबा सफ़र तय कर लिया है और नए-नए अर्थ भी धारण कर लिए हैं. पीठ पीछे बुराई करने को अंग्रेज़ी में बिचिंग (Bitching) कहा जाता है. कई बार स्कूल-कॉलेज की लड़कियां अपनी दोस्तों को प्यार से bitch कहकर बुलाती हैं. यहां तक कि महिलाएं ख़ुद के लिए भी ख़ास अर्थों में इस शब्द का इस्तेमाल करती हैं – ‘आय एम सच ए बिच!’
डॉनल्ड ट्रंप के समर्थकों ने जब हिलरी क्लिंटन को बिच कहना शुरू किया तो कई फ़ेमिनिस्ट्स ने कहा क्लिंटन को इसे तमग़े की तरह स्वीकार करने में हिचकना नहीं चाहिए. महिलावादियों ने बिच शब्द को अपने सशक्तीकरण के प्रतीक की तरह अंगीकार भी किया है. अमरीका में कुछ फ़ेमिनिस्ट्स ने 1996 में Bitch नाम से एक फ़ेमिनिस्ट मैगज़ीन ही शुरू कर दी थी जो अपने उकसाने वाले अंदाज़ के लिए जानी जाती थी. ये वेबसाइट अप्रैल 2022 को बंद हो गई.
पर क्या आपको पता चला कि पश्चिम में चल रहे इस श्वान-विमर्श का साया आपकी भाषा का ख़मीर बदल रहा है? जब भाषा का ख़मीर बदलता है तो धीरे-धीरे उसे बरतने वालों का दिमाग़ भी बदलता है, सोच बदलती है. कोई है जो हौले से आपको बता रहा है कि आपकी भाषा का अमुक शब्द गंदा है, अश्लील है, भदेस, गंवारू या आउट-ऑफ़-फ़ैशन है. इससे पिछड़ेपन की बू आती है, इसलिए इसकी जगह ‘सभ्य’ शब्दों का इस्तेमाल कीजिए. किसी ने आपको अच्छी तरह समझा दिया है कि सेब को ऐपल, केले को बनाना, कुत्ते को डॉगी, कटोरी को बोल (bowl) कहोगे तो फ़ायदे में रहोगे – रक़ाबी, तश्तरी, प्याला, ग़ुस्लख़ाना बोलोगे तो HMT कहलाओगे. HMT यानी हिंदी मीडियम टाइप!
भाषाविद् गणेश प्रसाद देवी ने कुछ बरस पहले भारतीय भाषाओं का एक सर्वेक्षण करवाया था. उससे पता चला कि भारत में 600 भाषाएं-बोलियां मरने के कगार पर हैं. उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि जब कोई भाषा मरती है तो उसके साथ एक सांस्कृतिक परम्परा भी दम तोड़ देती है. इस सर्वे में पता चला कि हिमालयी भाषाओं में बर्फ़ के लिए 200 अलग अलग शब्द हैं. लेकिन कोई आपको सरग़ोशी करके बता रहा है कि बर्फ़, हिम, हिऊं, ह्यूं या कॉशुर नहीं ‘स्नो’ कहिए. ‘कूल’ सुनाई पड़ता है!
(ये आलेख वरिष्ठ पत्रकार राजेश जोशी ने लिखा है)
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