राम मंदिर, अनुच्छेद 370 और समान नागरिक संहिता. अगर भारतीय जनता पार्टी की बीते 30 सालों की राजनीति को देखेंगे, तो ये तीन मुद्दे बार-बार दिखेंगे. इधर-उधर बयानबाज़ी, गुटबाज़ी, बैठकें. BJP ने सब किया. इसके बाद भाजपा के सपनों को साकार करने आई मोदी सरकार. मोदी-2.0 ने 5 अगस्त, 2019 को कश्मीर के अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी कर दिया. 5 अगस्त, 2020 को अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास किया. अब बचा एक अजेंडा, जिसपर गाहे-बगाहे बयान आ जाते हैं. मगर आज ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मानो एलान किया. उन्होंने भोपाल में सार्वजनिक तौर पर UCC को लागू करने की वकालत की. बयान आने के बाद प्रतिक्रिया भी आने लगीं और ये क़यास भी, कि भाजपा सरकार का 5 अगस्त, 2023 के लिए प्लैन क्या है? UCC को लेकर देश में क्या बहसें रही हैं? जो कमिशन्स बने, उनकी क्या सिफ़ारिशें थीं? और कनवेंशनली UCC को जिस तरह केवल मुसलमानों के ख़िलाफ़ बताया जाता है, उसमें कितनी सच्चाई है?
क्या यूनिफॉर्म सिविल कोड से मुस्लिम और आदिवासी समुदाय की मान्यताएं खतरे में पड़ जाएगीं? सच क्या है?
कनवेंशनली UCC को जिस तरह केवल मुसलमानों के ख़िलाफ़ बताया जाता है, उसमें कितनी सच्चाई है?

आज, 27 जून को भारतीय जनता पार्टी का भोपाल में बड़ा कार्यक्रम था. 'मेरा बूथ, सबसे मजबूत'. देशभर से कार्यकर्ता जुटे थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अभी ताज़ा-ताज़ा भारत लौटे हैं और आते ही उन्होंने ऐसा भाषण दे दिया, कि कहा जाने लगा - '2024 का एजेंडा सेट'. कुछ-एक लोगों ने कहा कि 2024 से पहले 2023 के पांच राज्यों में नेट-प्रैक्टिस की जाएगी. दरअसल, नरेंद्र मोदी ने समान नागरिक संहिता की भरसक वक़ालत की है. पसमांदा मुसलमानों के बारे में बात की. 'तीन तलाक़' का समर्थन करने वालों को निशाने पर लिया. कहा, कुछ लोग तीन तलाक़ के फंदे से हर समय मुस्लिम महिला के ख़िलाफ़ भेदभाव करने का लाइसेंस चाहते हैं. और कहा, अगर ये इस्लाम में इतना ज़रूरी पहलू था, तो पाकिस्तान, इंडोनेशिया, क़तर, जॉर्डन, सीरिया और बांग्लादेश में क्यों नहीं है?
एक तरफ़ PM मोदी विपक्ष पर तुष्टीकरण की राजनीति का आरोप लगा रहे हैं. दूसरी तरफ़ UCC को अल्पसंख्यकों - और मुसलमानों के अलावा जो अल्पसंख्यक हैं - उनके हक़ के विरुद्ध देखा जा रहा है. लेकिन तुष्टीकरण का एक आरोप भाजपा पर भी लगा है.
बीते कुछ महीनों से भारतीय जनता पार्टी पर ये "आरोप" लगे हैं कि पार्टी भाजपा मुस्लिम वोट बैंक की तरफ़ झुक गई है. कहा जाने लगा कि भाजपा का ये आउटरीच प्रोग्राम, अपनी छवि से बाहर निकलने का भी प्रयास है. अक्टूबर 2022 में भी हैदराबाद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि पार्टी को पसमांदा मुस्लिमों तक पहुंचना है. इसी क़वायद में 16 अक्टूबर को लखनऊ में बीजेपी ने पसमांदा मुस्लिमों के साथ पहली बार बैठक भी की थी. और, आज तो ख़ुद प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में पसमंदा मुसलमानों के हालात पर "चिंता" ज़ाहिर कर दी है.
इसीलिए ज़रूरी है कि आपको पसमंदा मुसलमानों के बारे में बताया जाए. पसमांदा एक पारसी शब्द है. जिसका मतलब होता है 'जिन्हें पीछे छोड़ दिया गया'. पिछड़े, दलित और मुस्लिम समुदाय के आदिवासी लोग ख़ुद को पसमांदा कहते हैं. इसके आगे बढ़ने से पहले हमें मुस्लिम समाज के वर्गीकरण को समझना पड़ेगा. हालांकि, इस्लाम सभी तरह के वर्गीकरण का विरोध करता है और इस्लाम के मूल विचार में हर इंसान बराबर है. मगर "इंडियन सब-कॉन्टिनेंट" की जम़ीन पर वर्गीकरण साफ नज़र आता है.
कुल तीन वर्ग हैं. अशराफ़, अज़लाफ़ और अरज़ाल.
> अशराफ़ में आती हैं, ताक़तवर जातियां. आर्थिक और सामाजिक तौर पर संपन्न. किसी तरह के भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता. मसलन: सैयद, पठान, शेख़ और मिर्ज़ा.
> फिर आते हैं अज़लाफ़. मध्य वर्ग. इसमें आते हैं, जैसे- रईनी, जो सब्जी बेचते हैं और मोमिन, यानी बुनकर.
> फिर बारी आती है अरज़ाल की. सामाजिक और आर्थिक तौर पर पिछड़ी जातियां. साफ़-सफ़ाई, हज़ामत बनाने, चप्पल-जूते सिलने, चमड़े से जुड़े काम करने वाले लोग. इन्हीं जातियों में शामिल लोग ख़ुद को पसमांदा कहते हैं.
राज्यसभा के पूर्व सांसद अली अनवर अंसारी ने पसमांदा मुसलमानों पर एक किताब लिखी है. किताब का नाम, "मसावत की जंग". माने, समानता की लड़ाई. बकौल अली, पसमांदा में दलित आते तो हैं, लेकिन संविधान के हिसाब से ये सभी OBC हैं. मतलब पिछड़े हैं, दलित नहीं. हम अलग से ये बात कह रहे हैं क्योंकि देश के संविधान के हिसाब से मुस्लिम OBC और कुछ जनजातियों को आरक्षण मिलता है. लेकिन मुस्लिम दलितों का कोई ज़िक्र नहीं है. और सारी लड़ाई इसी बात की है, कि मुस्लिमों में भी दलितों को उनका दर्जा दिया जाए. ताकि उन्हें आरक्षण का लाभ मिल सके. सालों से यही मांग है.
क्या है मुस्लिम दलितों की मांग?जामिया मीलिया इस्लामिया में प्रोफेसर डॉ. जुनैद हारिस कहते हैं,
“देश में मुस्लिमों का एक बड़ा हिस्सा धर्म परिवर्तन के बाद मुसलमान बना. इनमें बहुतेरे ऐसे भी हैं, जो हिंदू धर्म में भेदभाव का शिकार थे और उन्होंने स्वतः इस्लाम अपना लिया. लेकिन छुआछूत और भेदभाव धर्म परिवर्तन से भी नहीं गया. और यही वजह है कि भारत में कुछ मुस्लिमों को भी भेदभाव का शिकार होना पड़ता है.”
हालांकि, अली अनवर का कहना है कि भेदभाव सिर्फ़ भारत में नहीं है. ये इस्लाम से पहले भी अरब में था.
पसमांदा मुसलमानों के हक़ की बात करने वाले कहते हैं कि मुस्लिमों की क़रीब 85 फ़ीसदी आबादी पसमांदा है. हालांकि, 2006 की सच्चर कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि देश में पिछड़े और SC/ST मुस्लिमों की आबादी 40 प्रतिशत है. कोई भी राजनीतिक पार्टी जब किसी जाति या धर्म के वोट को टारगेट करती है, तो उसके पीछे की वजह होती है उनकी आबादी. 40 हो या 85, बड़ी संख्या है. ज़ाहिर है, पार्टियों के लिए टार्गेट अच्छा है. अब पार्टी इसे कितना भुना पाए, ये चुनाव और चुनावी समीक्षाएं बताएंगी.
हम यहां से आगे चलते हैं. एलिफेंट इन द रूम - UCC पर आने से पहले हमें पर्सनल लॉज को समझना होगा. हमारा देश विविधताओं से भरा हुआ है. कश्मीर से कन्याकुमारी तक और काठियावाड़ से कोहिमा तक सैकड़ों समुदाय के लोग हैं. सबकी अपनी भाषा-बोली, परंपरा, प्रथा, सामाजिक और धार्मिक मान्यताएं हैं. और इन्हीं के आधार पर अलग-अलग समुदाय के लोग विवाह, उत्तराधिकार, तलाक, अलगाव, गुजारा भत्ता, संपत्ति का बंटवारा आदि करते हैं.
चूंकि भारत का संविधान देश के सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है, अपनी मान्यताओं, प्रथाओं, परंपराओं, सांस्कृतिक पहचान और विरासत को मानने और संरक्षित करने का अधिकार देता है, इसलिए अलग-अलग समुदाय के लोगों के लिए कई सारे व्यक्तिगत कानूनी यानी पर्सनल लॉ की व्यवस्था की गई है. जैसे-
हिंदुओं के लिए 4 अलग-अलग कानून हैं.
हिंदू मैरिज एक्ट 1955
हिंदू सक्सेशन एक्ट 1956
हिंदू Adoption & Maintenance Act 1956,
Hindu Minority and Guardianship Act, 1956.
ये चारों कानून हिंदू समुदाय के साथ-साथ बुद्ध, जैन, सिख पर भी लागू होते हैं.
इसी तरह मुस्लिम समुदाय के लोगों के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ शरीयत एक्ट 1937 है. जिसे बोलचाल में मुस्लिम पर्सनल लॉ कहते हैं.
क्रिश्चियन समुदाय के लिए इंडियन क्रिश्चियन मैरिज एक्ट 1872, इंडियन डिवॉर्स एक्ट आदि है.
आदिवासी समुदाय के लिए भी अलग-अलग कानूनों की व्यवस्था है.
जैसे- आर्टिकल 371 A कहता है, नागा समुदाय के लोगों की धार्मिक, सामाजिक प्रथाओं, परंपराओं, कानून और प्रक्रिया से जुड़े मामलों में संसद का कोई अधिनियम राज्य पर लागू नहीं होगा. इसी तरह से मेघालय का खासी समुदाय को संविधान की छठी अनुसूची में विशेष अधिकार मिले हुए हैं. खासी एक मातृसत्तात्मक समुदाय है. यहां परिवार की सबसे छोटी बेटी को पारिवारिक संपत्ति का संरक्षक माना जाता है. और बच्चों को उनकी मां का उपनाम दिया जाता है.
यानी अलग-अलग धर्म के लोगों को उनकी मान्यताओं, परंपराओं के आधार पर प्रक्रिया फॉलो करने की आजादी मिली हुई है. इनमें से कई परंपराएं ऐसी भी थीं जो अमानवीय या भेदभाव वाली थीं. खासतौर पर महिलाओं को लेकर. लगभग सभी धर्मों के पर्सनल लॉ में ये देखने को मिलता है. क्योंकि अधिकतर मान्यताएं काफी प्राचीन हैं. ये उस समय की जरूरतों और हालात के हिसाब से बने थे. लेकिन समय के साथ इसमें कुछ सुधार हुए. कुछ सुधार होने बाकी हैं. समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की ओर से ऐसे रुढ़िवादी परंपराओं को खत्म करने के सुधारात्मक फैसले भी दिए जाते रहते हैं. इन पर भी हम बात करेंगे लेकिन अभी चलते हैं यूनिफॉर्म सिविल कोड की तरफ.
क्या है ये यूनिफॉर्म सिविल कोड?यूनिफॉर्म सिविल कोड तीन शब्दों से मिलकर बना है यूनिफॉर्म, सिविल और कोड.
कोड का मतलब होता है ढेर सारे कानूनों का एक समूह. जैसे अपराध से जुड़े सारे कानूनों को इंडियन पीनल कोड यानी भारतीय दंड संहिता में इकट्ठा किया गया है. जिसे हम IPC कहते हैं. यूनिफॉर्म का मतलब एकरूपता. एक समान. एक तरह से. जैसे- स्कूल में अलग-अलग बच्चे एक ही रंग, डिजाइन की ड्रेस पहनकर आते हैं. उनमें एकरूपता होती है. कौन बच्चा, कौन सी भाषा बोलता है, किस जाति का है, किस धर्म का है, किस रंग का है, इसका कोई फर्क नहीं पड़ता.
सबसे जरूरी चीज है सिविल. अगर आपने कभी भी अदालती प्रक्रिया या कानूनी मसलों पर गौर किया होगा तो पाया होगा कि इनमें दो शब्दों का खूब जिक्र आता है. सिविल और क्रिमिनल. क्रिमिनल, अपराधिक मामले होते हैं. जैसे- हत्या, बलात्कार, चोट पहुंचाना आदि. माना जाता है कि ये अपराध किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं बल्कि समाज के खिलाफ है. जबकि सिविल मामले ऐसे होते हैं जो दो पार्टियों के बीच के अधिकारों को लेकर होते हैं. जैसे- पारिवारिक मामले, मालिकाना हक के मामले, प्रॉपर्टी बंटवारा, कॉन्ट्रैक्ट, लापरवाही आदि के मामले. ये सब सिविल मामले होते हैं.
तो इस तरह से यूनिफॉर्म सिविल कोड का मतलब हुआ पूरे देश में रहने वाले सभी लोगों के लिए एक समान कानून. फिर वो चाहे किसी भी धर्म, जाति, समुदाय के हों. कोई भी भाषा बोलते हों. किसी भी क्षेत्र में रहते हों. सबके लिए एक तरह का कानून.
UCC पर संविधान क्या कहता है?संविधान का आर्टिकल 44 कहता है,
The State shall endeavour to secure for the citizens a uniform civil code throughout the territory of India.
यानी राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता प्राप्त करने का प्रयास करेगा.
यानी अभी सिविल (खासतौर पर फैमिली मैटर्स) के लिए जो अलग-अलग समुदाय के लिए अलग-अलग कानून है, उसकी जगह एक कानून बना दिया जाए. देश के सभी नागरिकों के लिए विवाह, तलाक, अलगाव (सेप्रेशन), उत्तराधिकार, गोद लेने का अधिकार, संपत्ति का अधिकार आदि पर एक व्यापक कानून हो. जो पूरे देश के लोगों पर लागू हो. चाहे वो किसी भी धर्म जाति क्षेत्र के हों.
आगे बढ़ने से पहले ये समझना जरूरी है कि यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड किस तरह का हो सकता है? क्या यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड में शादी, विरासत, अडोप्शन इस सबके के लिए एक ही क़ानून होगा या फिर हर चीज़ के लिए एक अलग क़ानून होगा मसलन शादी के लिए पूरे मुल्क का एक क़ानून, विरासत का एक.
अब यहां एक सवाल ये भी है कि जब संविधान में UCC लागू करने की बात कही गई तो फिर इसे उसी समय क्यों लागू नहीं कर दिया गया?
संविधान सभा में कुछ सदस्यों ने पर्सनल लॉ की बजाय एक यूनिफॉर्म सिविल कोड की मांग की. ताकि जाति, धर्म की अलग-अलग की पहचान की बजाय भारतीय के रूप में एक राष्ट्रीय पहचान बनाई जाए. लेकिन इस बहस में ये तर्क भी आया कि इससे अल्पसंख्यकों की सांस्कृतिक पहचान नष्ट हो जाएगी. ये वो समय था जब धार्मिक ध्रुवीकरण अपने चरम पर था. धर्म के आधार पर देश का बंटवारा हुआ था. लोगों में असुरक्षा की भावना थी. ऐसे में तब यूनिफॉर्म सिविल कोड को संविधान के नीति निदेशक तत्वों (Directive Principles of State Policy) के रूप में जोड़कर छोड़ दिया गया. कहा गया कि सही समय आने पर इसे लागू किया जाएगा.
जो अभी तक नहीं आया है. बीच-बीच में इस पर बहस जरूर तेज हुई. खासतौर पर तब, जब फैमिली मैटर्स से जुड़े मसलों पर सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट का कोई फैसला आया. एक नजर ऐसे चर्चित मसलों पर डाल लेते हैं.
सबसे चर्चित मामला शाह बानो का है. शाह बानो और मोहम्मद अहमद खान मियां बीवी थे. अहमद खान ने दूसरी शादी कर ली और बानो को घर से निकाल दिया. बाद में तलाक भी दे दिया. शाह बानो ने कोर्ट में अपील की और 500 रुपए गुजारा भत्ता की मांग की. CrPC की धारा 125 के तहत. निचली अदालत ने 25 रुपए गुजारा भत्ता का आदेश दिया. इसी बीच खान ने शाह बानो को तलाक दे दिया. शाह बानो ऊपरी अदालत गईं और रकम बढ़ाने की मांग की. हाईकोर्ट ने 179 रुपए गुजारा भत्ता का आदेश दिया. इसके खिलाफ खान ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की. कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार मेहर की रक़म चुकाने के बाद वो और भत्ता देने के लिए बाध्य नहीं थे.
1985 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया. शाह बानो के हक में. चीफ जस्टिस वीवाई चंद्रचूड़ ने धर्म के नाम पर औरतों के साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार पर कठोर टिप्पणी करते हुए सरकार को यूनिफॉर्म सिविल कोड तैयार करने का सुझाव दिया. लेकिन तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने कोर्ट के फैसले को पलट दिया. मुस्लिम संगठनों और नेताओं के दबाव में. मुस्लिम वीमन प्रोटेक्शन ऑफ़ राइट्स ऑन डाइवोर्स एक्ट 1986 लाया गया. जिसमें मुस्लिम महिलाएं CrPC की धारा 125 के तहत गुज़ारे भत्ते का हक़ नहीं मांग सकती थीं.
सरला मुद्गल केस1995 में सरला मुद्गल और अन्य बनाम भारत संघ के मामले में फैसला आया. इस मामले में एक हिंदू पुरुष और एक हिंदू महिला ने दूसरी शादी करने के लिए मुस्लिम धर्म अपना लिया था. सुप्रीम कोर्ट के सामने सवाल था कि पहले से शादीशुदा व्यक्ति द्वारा अपना धर्म बदल कर दूसरी शादी करता है तो क्या उसकी शादी जायज है?
कोर्ट ने कहा कि हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के तहत हुई शादी रद्द तभी मानी जाएगी, जब कानून के तहत ही उसे खत्म किया जाए. इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से यूनिफॉर्म सिविल कोड को देश की एकता बनाए रखने के लिए लागू करने का सुझाव दिया.
इसके अलावा शायरा बानो और तीन तलाक मसले पर फैसले के बाद एक बार फिर से यूनिफॉर्म सिविल कोड का मसला चर्चा में आया. शायरा बानो को उनके पति ने तीन बार तलाक बोलकर तलाक दे दिया था. 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने तलाक-ए-बिद्दत यानी एक बार में तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित कर दिया.
ये कुछ ऐसे इंसिडेंट्स के बारे में हमने आपको बताया जिसके बाद UCC चर्चा में आया. अब एक बार फिर से आया है जब लॉ कमीशन ने इस पर लोगों से सुझाव मांगे हैं. लेकिन यहां ध्यान देने वाली बात ये भी है कि आज से 5 साल पहले 21वें विधि आयोग ने इसे गैरजरूरी बताया था. 2018 में 21वें विधि आयोग ने UCC की जरूरत को नकार दिया था. इसकी जगह पर्सनल लॉ में सुधारों की सिफारिश की थी. सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज बलबीर सिंह चौहान की अध्यक्षता वाली 21वें लॉ कमीशन ने UCC की बजाय पर्सनल लॉज में सुधार की बात कही थी. ताकि जेंडर डिस्क्रिमिनेशन दूर किया जा सके. इसमें यूनिफॉर्मिटी ऑफ लॉ की बजाय यूनिफॉर्मिटी ऑफ राइट्स की बात कही गई.
ये तो हो गया कानूनी पहलू. UCC के समर्थन और विरोध में क्या तर्क दिए जाते हैं या दिए जा रहे हैं ये समझ लेना भी जरूरी है.
UCC के पक्ष में जो तर्क दिए जाते हैं वो ये हैं कि लगभग सभी धर्मों के पर्सनल लॉ, महिलाओं के साथ भेदभाव करते हैं. UCC से भेदभाव खत्म करने और जेंडर इक्वैलिटी को बढ़ावा देने में मदद मिलेगी. महिलाओं को वास्तव में समानता का अधिकार मिलेगा. अभी जो पर्सनल लॉ एग्जिस्ट करते हैं वो काफी उलझे हुए हैं, पुरानी मान्यताओं पर आधारित हैं. समय के साथ इनमें बदलाव की जरूरत है. सभी के लिए एक कानून होगा तो एक नेशनल आइडेंटिटी एस्टैब्लिश होगी. जाति-धर्म-क्षेत्र के आधार पर बंटा समाज एकजुट होगा. अलग-अलग कानून की जगह एक कानून होने से चीजें स्पष्ट और सरल होंगी.
एक तर्क ये भी दिया जाता है कि सुधार के नाम पर केवल हिंदू कानूनों और परंपराओं में बदलाव हुए. मुस्लिम समुदाय की ऐसी परंपराएं या प्रथाएं जो महिलाओं के साथ भेदभाव करती हैं, उनमें बदलाव नहीं किया गया. अगर वास्तव में समानता स्थापित करनी है तो सबके लिए एक कानून की जरूरत है.
वहीं दूसरी तरफ UCC का विरोध करने वाले इसे लेकर कुछ खतरों की आशंका जताते हैं. कहा जाता है कि UCC भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता को खत्म कर देगा. यह संविधान से मिले धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को खत्म कर देगा. जो यूनिफॉर्म कानून होंगे- उनका क्या प्रारूप होगा? क्या UCC पर बहुसंख्यकवाद हावी नहीं होगा? सामाजिक सुधारों की आड़ में बहुसंख्यकों के कानून, UCC के रूप में लागू हो जाएंगे तो अल्पसंख्यकों को भी वही मानना पड़ेगा. ऐसे भी कानून जो उनके धार्मिक परंपराओं के खिलाफ हो. हिंदू समाज में ही अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग मान्यताएं हैं. विवाह से लेकर संपत्ति तक. जैसे दक्षिण में रिश्तेदारों में विवाह होता है. लेकिन उत्तर में नहीं होता. आदिवासी समुदाय की अपनी अलग मान्यताएं हैं. वे आशंका जताते हैं कि अगर सबके लिए एक ही कानून आया तो उनकी कल्चरल आइडेंटिटी खत्म हो जाएगी.
और यही वजह है कि आज जब एक बार फिर से UCC पर चर्चा शुरू हुई है तो इसका विरोध शुरू हो गया है. 25 जून को ही ख़बर आई थी कि झारखंड से लेकर पूर्वोत्तर के आदिवासी समूहों ने अपनी-अपनी चिंताएं जारी की हैं. एक-एक लाइन में आपको हर जगह माजरा बताते हैं.
> नागालैंड की बैपटिस्ट चर्च काउंसिल (NBCC) और नागालैंड ट्राइबल काउंसिल (NTC). ये दोनों ही बड़े आदिवासी संगठन हैं. इनका कहना है कि UCC अल्पसंख्यकों के अपना धर्म पालन करने के हक़ से वंचित करेगा.
> मेघालय - Khasi Hills Autonomous District Council( KHADC) ने भी 24 जून को एक प्रस्ताव पारित किया है. कहा कि, UCC खासी समुदाय के रीति-रिवाजों, परंपराओं, प्रथाओं, शादी और धार्मिक स्वतंत्रता जैसे मुद्दों को प्रभावित करेगा.
> अगला नंबर है मिज़ोरम का. आदिवासी बाहुल मिज़ोरम में UCC का विरोध विधि आयोग के सुझाव मांगने से पहले से जारी है. यहां की विधानसभा ने फरवरी 2023 में ही एक प्रस्ताव पारित कर UCC लागू करने से जुड़े किसी भी कदम का विरोध करने का संकल्प लिया था.
> इसके अलावा, 25 जून को झारखंड में भी 30 से ज़्यादा आदिवासी संगठनों ने बैठक की. वे आदिवासी समन्वय समिति (ASS) के बैनर तले साथ आए थे. उन्होंने कहा कि UCC आने से कई जनजातीय परंपरागत कानून और अधिकार कमजोर हो जाएंगे. ASS के सदस्य देव कुमार धन ने PTI को बताया कि वे 5 जुलाई को झारखंड के राज भवन के पास UCC के खिलाफ प्रदर्शन करेंगे. और राज्यपाल को एक ज्ञापन सौंपेंगे.
यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड व्यापक बहस का मुद्दा है. इसे लागू करने से पहले सभी स्टेकहोल्डर्स की चिंताओं को सुनना, भरोसे में लेना, उनसे आम सहमति बनाना जरूरी है.