
इरफ़ान. हम हिंदुस्तानियों का दुलारा कलाकार. एवरेस्ट जितना ऊंचा. इरफ़ान का शरीर हमें छोड़कर चला गया. लेकिन काम पीछे है, यादें हैं और उन यादों को संजोने वाले दोस्त भी. इरफ़ान के ऐसे ही एक दोस्त से हमने बात की. अशोक लोखंडे से. अशोक इरफ़ान के एनएसडी के दिनों के साथी हैं. 1987 पासआउट बैच. अशोक उन चंद लोगों में से हैं, जिन्होंने इरफ़ान को तब देखा था जब इरफान, इरफ़ान नहीं बने थे. अशोक खुद भी एक्टर हैं. काफी फिल्मों और सीरियल्स में काम कर चुके हैं. आप उन्हें सीरियल 'दिया और बाती' के बाबासा के रूप में जानते होंगे. फिल्म 'रमन-राघव' में भी देखा होगा. इसमें उन्होंने नवाज़ुद्दीन के किरदार की बहन (अमृता सुभाष) के पति का रोल किया था. हमने उनसे इरफ़ान के शुरुआती दिनों पर बात करनी चाही. उन्होंने हमें खूब समय दिया और दिल खोलकर बातें की. कभी हंसे, तो कभी इमोशनल हुए. उनका कहा सबकुछ हमने टीप लिया. आपके लिए लाए हैं. आगे का सबकुछ उनका कहा है, हम बस टाइप करके आप तक पहुंचा रहे हैं. पढ़िए कि एक दोस्त अपने दोस्त को कैसे याद करता है. ये पार्ट वन है.
NSD में झूठ से शुरुआत
इरफ़ान और मैंने पहले ही अटेम्प्ट में एनएसडी एंट्रेंस पास किया था. चौरासी में. बल्कि एक ही वक्त में हम दोनों का इंटरव्यू हुआ था. चश्मा पहने हुए, ग़मगीन मुद्रा में बैठा हुआ इरफ़ान. कुछ सोचता हुआ. दोनों का पहली ही बार में सिलेक्शन हो गया. सिलेक्शन प्रोसेस कुछ यूं था कि एक पैनल होता था. थिएटर की दुनिया के बड़े-बड़े दिग्गज मौजूद होते थे. वो सबको कुछ न कुछ एक्ट करने बोलते थे. एक इंटरव्यू भी होता था. जिसमें अलग-अलग तरह के सवाल पूछे जाते. किसलिए आए हो, क्या करना चाहते हो, थिएटर को लेकर क्या सोचते हो, इस तरह के सवाल. एक सवाल ये भी होता था कि क्या पहले कोई प्ले वगैरह किया है! मैंने और इरफ़ान ने झूठ बोला कि पहले कभी नहीं किया. और ये भी कि हमेशा थिएटर ही करना चाहते हैं. जबकि हम दोनों ने ही कुछ प्ले किए थे और हमारा लक्ष्य थिएटर नहीं, सिनेमा था.
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, जिसे अंग्रेजी में National School of Drama या NSD कहते हैं. (तस्वीर: एनएसडी की आधिकारिक वेबसाइट)
बहरहाल, एनएसडी में एंट्री मिल गई. नया जीवन शुरू हुआ. वहां सुबह 6 बजे से 12 बजे तक सिर्फ फिजिकल एक्सरसाइज की क्लासेस होती थीं. योगा, मार्शल आर्ट वगैरह. उसके बाद क्लासेस. हम कुछ लोग थे जो 24 घंटे एक्टिंग के बारे में ही सोचते रहते थे. उसी की बातें. 18 लोगों का बैच था हमारा. इनमें से मैं, मीता, इरफ़ान, आलोक, इदरिस, अमित, विपिन, भारती और सुनीता इतने लोगों ने एक्टिंग चुना, बाकियों ने प्रोडक्शन चुना. वर्क शॉप्स होती थीं, जिनमें बाहर से लोग आते थे. जर्मनी, इंग्लैंड, अमेरिका से. भारत के थिएटर दिग्गज भी. करैक्टर बिल्डिंग, इम्प्रोवाइजेशन करवाते थे. वो लोग प्ले करते थे तो हमारे बीच कॉम्पिटिशन चलता था कि कौन मेन रोल हासिल करेगा. डायरेक्टर को इम्प्रेस करने की होड़ लगी रहती थी. इरफ़ान हमेशा शांत बना रहता था.
सुस्त इरफ़ान, दार्शनिक इरफ़ान
दुनिया ने कामयाब इरफ़ान को देखा है, मैंने इरफ़ान को ज़ीरो से देखा है. इरफ़ान, मैं, आलोक, इदरिस और अमित. हम लोग एक्टिंग के मामले में बहुत जुनूनी होते थे. और सबसे ज़्यादा होता था इरफ़ान. वो बहुत ज़्यादा खोजबीन के चक्कर में रहता था. एनएसडी के कुछ एक्टर्स का एक घोंसला था. वहां पर छोटी-छोटी चीज़ों के इम्प्रोवाइज़ेशन के सेशन चलाते थे. और उनके बाद उसपर डिस्कशन होता था. उनमें सबके अलग-अलग व्यूज़ होते थे. इरफ़ान के व्यूज़ सबसे डिफरेंट लगते थे, स्लो लगते थे. हम उसे चिढ़ाते भी थे कि कितना ढीला है. पर वो वैसे ही करता. जैसे मान लीजिए, हमें कोई जंगली जानवर बनना है. तो उसमें भी इरफ़ान हमेशा स्लो जानवर चुनता. जैसे कछुआ. हम कहते कि तू साला जानवर भी ऐसा चुन रहा है, जो सुस्त है. क्या पता था कि ये कछुआ ही एक दिन रेस जीत जाएगा.
एनएसडी में किसी प्ले के दौरान इरफ़ान एंड टीम (फोटो कर्टसी: भारती शर्मा)
हां वो एक और चीज़ करता था. एक्टिंग के साथ-साथ वो फिलॉसोफिकल क्वेश्चन भी करता था. ह्यूमन एग्जिस्टेंस (इंसानी अस्तित्व) जैसे सवाल. एक बार तो ऐसा हुआ कि तंग आकर एक डायरेक्टर ने कह ही दिया,
"I am here to teach you acting, not Philosophy." (मैं यहां तुम्हें एक्टिंग सिखाने आया हूं, फिलॉसफी नहीं.)
हालांकि उसकी ये जिज्ञासा हमारे भी काम आती थी. उसकी क्युरियोसिटी से जो जवाब हासिल होते थे, उनका हम सबको लाभ मिलता था. एकदम अलग दुनिया में ले जाता था इरफ़ान. उसकी जिज्ञासा हमारे लिए कॉमेडी का विषय था. हम बहुत मज़ाक उड़ाते थे. कि ये एक्टिंग के अलावा भी ऐसे सवाल पूछता रहता है, जिनका कोई मतलब नहीं. डायरेक्टर को तंग करके रख देता है. हम उसकी टांग खींचना एन्जॉय करते थे. हम अटकलें लगाते रहते कि डिस्कशन के दौरान इरफ़ान क्या कहेगा, इरफ़ान क्या क्वेश्चन करेगा, इरफ़ान इस चीज़ को कैसे इन्टरप्रेट करेगा वगैरह-वगैरह. मोस्टली उसके कहने से पहले ही हमारा हंसना शुरू हो जाता था. कि अब पता नहीं क्या बोलेगा! वो खुद भी एन्जॉय करता था इस चीज़ को. पर ये भी है कि उसके साथ-साथ हम लोग भी उस चीज़ को सोचने पर मजबूर हो जाते थे.
इरफ़ान को लगा रियलिज्म का चस्का
रियलिज्म के हम लोग बहुत दीवाने थे. थिएटर में थिएट्रिकल एक्टिंग चलती है. लाउड. टीचर बोलते थे कि भैया थिएटर में ज़्यादा रियलिज्म हो नहीं सकता. लास्ट रो में जो आदमी है, वहां तक आवाज़ पहुंचानी है. ऐसे में इरफ़ान क्या करता! वो मध्यम मार्ग निकालता. रिहर्सल के दौरान अपनी पेस स्लो कर देता था. हम सारे लोग अपनी-अपनी लाइनों पर टूट पड़ते थे. बोलकर निकल जाते थे. इरफ़ान वक्त लेकर बोलता. हम हंसते कि यार ये कब बोलेगा लाइंस, कब बात आगे बढ़ेगी! लेकिन आखिरकार जब प्ले होता था तो वो करेक्ट रिदम में आ जाता था. और उसके साथ हम सब भी आ जाते थे. एक तरह से गिव एंड टेक होता था. सबके सुझाव अमल में लाए जाते. इस तरह से हमारे बहुत से प्ले बहुत कामयाब रहे. ख़ास तौर से तीन प्ले.वो शुरुआती तीन नाटक, जिन्होंने इरफ़ान का सिक्का जमाया
# इडिपस रेक्ससबसे पहले हमने इडिपस रेक्स किया. किंग इडिपस की कहानी. जिसके नाम से ‘इडिपस सिंड्रोम’ मशहूर है. इसे मोहन महर्षि ने डायरेक्ट किया था. इसमें इरफ़ान ने टाइरेसियस का रोल किया था. जो फ्यूचर बताता है. सम्राट इडिपस के भविष्य में क्या छुपा है, वो सब बताता रहता है. और राजा डर जाता है. काफी इंटरेस्टिंग रोल था. और इरफ़ान का तो लुक भी काफी हद तक फिलॉसफिकल था. चश्मा वगैरह. इसी वजह से उसे ये रोल दिया गया.

एनएसडी के अपने शुरूआती दिनों से ही इस बैच की धूम थी. (फोटो कर्टसी:भारती शर्मा)
# उरुभंगम
उरुभंगम हमारा दूसरा प्ले था. ये महाभारत के भीम-दुर्योधन युद्ध पर आधारित एक संस्कृत प्ले था, जिसका हिंदीकरण किया गया था. इसमें इरफ़ान ने धृतराष्ट्र का और बाद में उसकी पत्नी बनी सुतपा ने गांधारी का रोल किया था. मैं दुर्योधन की आत्मा बना था. ये प्ले भी बहुत सक्सेसफुल रहा था. मुझे अभी भी याद है इरफ़ान और सुतपा की परफॉरमेंस. सिंगिंग स्टाइल में डायलॉग बोलते थे. बहुत ही बढ़िया! वो इतना खूबसूरत निकल आया था इरफ़ान का पार्ट कि हमारे एक साथी ने बोला ये किसी खूबसूरत पेंटिंग जैसा लग रहा है. सबने सराहा था इरफ़ान को.
# एक्सेंट ऑफ फुजियामा
ये हमारा सबसे खूबसूरत प्ले था. इससे हम सारे एक्टर्स प्रॉपर एस्टैब्लिश हो गए थे एनएसडी में. कि ये बहुत ही अच्छी बैच है. ये चार-पांच परिवारों की कहानी थी. जापान में फुजियामा की पहाड़ियां हैं. ऐसा मिथ है कि वहां ऊपर जाकर बुद्धिस्ट लोग अपने पापों को कन्फेस करते हैं. जैसे चर्च में कन्फेशन बॉक्स होता है न, उसी तरह. तो ये चार-पांच परिवार वहां पिकनिक करने जाते हैं. और फिर बातों-बातों में हर एक के पाप बाहर आने लगते हैं. बहुत ही कामयाब रहा ये प्ले. हमारी बैच को संजीदगी से लिया जाने लगा.
इसका नतीजा ये हुआ कि हम लोग हवा में उड़ने लगे. कि हमने कोई बड़ा तीर मार लिया है. सेल्फ रोमांटिसिज्म, सेल्फ प्राइड में फंस गए. दरअसल हम कामयाब थे, पर कोई अलग नहीं थे. वही सब हरकतें किया करते थे, जो 20-22 साल की उम्र में सब करते हैं. रात-रात भर जागना, थिएटर में ही सो जाना, सिगरेट फूंकना, रोमांटिक बातों में उलझना. झगड़े भी चल रहे, कॉमेडी भी हो रही है वगैरह. सेकंड ईयर तक आते-आते इरफ़ान और सुतपा करीब आए. हमारी क्लास में दो कपल बने. भारती-विपिन और इरफ़ान-सुतपा.

एनएसडी के दिनों में एक प्ले में अभिनय करते हुए इरफान और सुतपा. (फोटो कर्टसी: सुतपा)
पैसे के लिए चोरी से मेकअप करने का काम किया
इरफ़ान, मैं, अमित और आलोक को सुबह-सुबह क्लास में जाना बहुत भारी पड़ता था. हम रात को दो-दो बजे तक डिस्कशन करते और सुबह जा नहीं पाते. सिर्फ लड़कियां और एक्स्ट्रा सिंसियर लड़के ही जाते थे. फिर हमको सज़ा भी मिलती थी. एक बार तो हमें एग्ज़ाम से निकाल भी दिया था. ऐसे में इदरीस ने हमारी मदद की. वो जाता था और हमें अलग से सिखाता था. बात ये थी कि सेकंड ईयर तक आते-आते हम सिर्फ एक्टिंग पर ही फोकस करने लगे थे. सुबह जाकर योगा करना हमारी समझ में नहीं आता था. ऐसे ही सब चल रहा था. हम अपने आपको महान एक्टर्स की श्रेणी में डालने के लिए छटपटाते रहते थे. ऊपर से पैसे की कमी हमेशा रहती थी. जो स्कॉलरशिप मिलती थी, वो सब खाने-पीने में ही चली जाती थी. चार सौ रुपए मिला करते थे. कई बार जेब से भी देने पड़ते थे. तो पैसे कमाने के जुगाड़ सोचते.एक बार हम तीन लोगों को एक मेकअप का कॉन्ट्रैक्ट मिला. इरफ़ान, मुझे और कश्मीरी बशीर को. YMCA में. उनका ईसा मसीह का कोई प्ले था. ईस्टर पर. हम तीन दिन लगातार चुपके से वहां गए. अपना मेकअप बैग लेकर. हमको प्रति व्यक्ति पचास रुपए रोज़ मिले. यानी तीन दिन के डेढ़ सौ रुपए. हमारे लिए बहुत बड़ा अमाउंट था ये. पार्टी हुई, अद्धे-पव्वे भी ख़रीदे गए. ऐसे ही दूरदर्शन में भी चले जाते, सौ-पचास रुपए कमाते. जैसे कोई प्ले चल रहा है, तो दरबान बन गए. भीड़ में खड़े होकर ज़ोर-ज़ोर से हंसने का काम किया.
वो टीचर, जिसने इरफ़ान की ट्रेन पटरी पर चढ़ा दी
अक्सर हम टीचर्स की नकलें उतारते. कि क्या बोलेंगे, कैसे पढ़ाएंगे वगैरह. इसमें सुतपा भी शामिल रहती. कॉमेडी चलती रहती. लेकिन दो टीचर बाहर से आए, जो हमारे जीवन में बहुत इम्पोर्टेन्ट रहे. एक तो पेनी कैस्टेग्ली थी यूके की. जिनसे हमने महीना भर सीखा. उसके बाद आए एक हेल्मिश नाम से. फ़्रांस से आए थे. वहां से हमारा एक्टिंग का अप्रोच बहुत ही माइन्यूट डिटेलिंग में चला गया. इरफ़ान को जो चीज़ें सता रही थीं - कि रियलिज्म, नेचुरलिज्म ये सारी चीज़ें आती कहां से हैं - इसका जवाब मिल गया. जैसे कोई दो बंदे बातचीत करते वक्त एक बोलता है, दूसरा बीच-बीच में हूं-हूं बोलता रहता है. तो वो हूं बोल भी रहा है, अगले की बात सुन भी रहा है और उस पर सोच भी रहा है. इतनी गहराई में घुसना सिखाया उन्होंने. कंसंट्रेशन का अर्थ क्या है, प्ले में कंसंट्रेशन का मतलब क्या है, ये इरफ़ान के बेसिक सवाल थे. और जिन-जिन लोगों ने इससे सीखा वो बेहतर एक्टर बने.
टोटल 18 लोगों का बैच था. सबसे ज़्यादा फेम इरफ़ान के हिस्से आई. (फोटो कर्टसी: अशोक लोखंडे)
बाहर की फिल्मों का रियलिज्म और इंडियन फिल्मों के रियलिज्म में हम कन्फ्यूज़ रहते थे. हमारे यहां क्यों अच्छी फ़िल्में ज़्यादा नहीं बनती, क्यों बाहर की फ़िल्में ही हमें देखनी पड़ती हैं, जैसे सवालों से जूझते रहते. रियलिज्म का सोर्स ढूंढने का जो इंस्टिंक्ट डेवलप किया इरफ़ान ने, वो बहुत ही इंटरेस्टिंग था. मुझे नहीं लगता कि हमारे बैच के अलावा - उससे पहले और बाद में भी - किसी ने इतना ठहर के सोचा होगा. जितना इरफ़ान सोचता था. लेकिन ये सब अभी जब मैं रेट्रोस्पेक्ट करने पीछे जाता हूं, तो मुझे दिखता है. उस समय तो हम मज़ाक ही उड़ा रहे होते थे.
जब कॉमेडी प्ले को इरफ़ान ने बर्बाद कर दिया
एक बार तो ऐसा हुआ कि हम लोग इम्प्रोवाइज़ेशन कर रहे हैं और इरफ़ान रिएक्ट कर रहा है. कि ये क्यों बोल रहे हो, ऐसा क्यों बोल रहे हो, ये चीज़ दिखावे के लिए बोल रहे हो वगैरह. वो एक-एक चीज़ अलग-अलग करके बता रहा था. ये बहुत इंटरेस्टिंग घटनाएं रहती थीं. इरफ़ान इन पर हमेशा डटा रहता था. उसी चक्कर में एक प्ले को इरफ़ान ने बर्बाद करके रख दिया था. कॉमेडी प्ले था. उसमें जो कैरेक्टर इरफ़ान ने किया उसके लिए एक ख़ास तरह का रिदम, एक ख़ास तरह की टाइमिंग ज़रूरी थी. ज़्यादा इंटेलेक्चुअल होने की ज़रूरत नहीं थी. उसमें भी इरफ़ान बहुत ही ज़्यादा रियलिस्टिक एक्टिंग कर रहा था.हम मज़ाक उड़ा रहे थे कि इसकी कोई रिक्वायरमेंट ही नहीं है लेकिन ये है कि लगा हुआ है. अब समझ में आता है कि उसके ऐसे करने के पीछे कुछ गहरी बात थी. उसने एक धागा पकड़ा था रियलिज्म का, जो किसी हाल में छोड़ा नहीं. चाहे उसका क्रिटिसिज्म हो, चाहे लोग हंसे, या प्ले छोड़कर चले जाएं, उसे कोई फर्क नहीं पड़ा. यही वजह है कि आगे चलकर उसकी स्क्रिप्टवाइज़ कुछ कमज़ोर फ़िल्में भी, उसके होने भर से अच्छी लगती हैं.
यहां तक पहला पार्ट था. दूसरा पार्ट यहां पढ़िए:
इरफ़ान के किस्से (भाग-2): "मुझे सक्सेस की कोई जल्दी नहीं है, दस-बीस साल भी लगे तो दूंगा"