आज हम इस एक्टर के साथ यह कनेक्ट बनाने की कोशिश करेंगे. इरफ़ान एक्टिंग की तरफ क्यों आए? क्या है उनके एक्टिंग सफर के पीछे की कहानी? किन व्यक्तियों ने उन्हें प्रभावित किया? कौनसे रोल करते हुए कैसा महसूस हुआ?

'लाइफ ऑफ़ पाई' के सीन में इरफ़ान
"कहानियां मेरा हिस्सा बन जाती हैं. बरसों तक मुझसे बातें करती रहती हैं."
शुरुआत होती है उनके बचपन से. राज्यसभा टीवी के कार्यक्रम 'गुफ़्तगू' में उन्होंने इसके बारे में बताया था. पूछा गया क्या बचपन में ही उन्हें एक्टिंग का शौक चढ़ गया था? तो इरफ़ान ने बताया कि उस समय ऐसा कुछ नहीं था. लेकिन कहानियों को लेकर एक लगाव था हमेशा से.

टीवी इंटरव्यू के दौरान इरफ़ान (साभार: राज्यसभा टीवी)
घर में बड़े लोग लोग दोपहर में सो रहे होते थे. और बच्चे घर के पीछे किसी कमरे में कहानियां बनाते. कुछ-कुछ नाटक करते. रात को रेडियो पर कहानियां ढूंढ़ते -
"जयपुर-अजमेर रेडियो स्टेशन से एक ड्रामा आया करता था. रात के साढ़े नौ बजे. आधे घंटे का. उसका इंतज़ार करते थे कि कब आएगा. उसके बाद कभी रात को ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे कहीं बीबीसी लग गया, और वहां की कोई स्टोरी या ड्रामा लग गया, तो चुंबक की तरह चिपक जाते थे हम रेडियो से. लेकिन सोचा नहीं था कि इस फील्ड में आएंगे."नाटक-कहानियों के लिए उनका यह जूनून उनके पुराने फोटो में भी दिखा. एशियन पेंट्स के वीडियो शो 'हर घर कुछ कहता है' में इरफान, होस्ट विनय पाठक को अपने नाना-नानी के घर ले गए. एक पुरानी तस्वीर में बच्चों की कल्पना दिखी. ज़मीन पर गिरा हुआ लड़का चाकू उठा रहा है. जो लड़के खड़े हैं, उनमें से एक दूसरे को पिस्तौल देने की कोशिश कर रहा है.

इरफ़ान के बचपन की एक तस्वीर (फोटोः एशियन पेंट्स शो)
इस फोटो में भी कुछ अलग ही कलाबाज़ी दिखाई दे रही है -

इरफ़ान के बचपन की तस्वीर में कलाबाज़ी दिख रही है (फोटोः एशियन पेंट्स शो)
कहानियों से यह लगाव उम्र भर चलता रहा. एक ईमेल पत्र में उन्होंने इस लगाव को खूबसूरती से बयां किया. यह पत्र उन्होंने लिखा था ऊर्दू स्कॉलर शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी को. जिनकी किताब 'कई चांद थे सरे-आसमां' उनके ज़ेहन में बस गई थी. उन्हें बांध लिया था. जिस पर वे एक फिल्म बनाना चाहते थे. एनडीटीवी के पत्रकार रवीश कुमार ने इस ईमेल का हिंदी में अनुवाद किया है. इसमें इरफ़ान कहानियों के बारे में लिखते हैं -
"दर्शकों के साथ खुद को बांटने के लिए कहानियों से बड़ा कोई मंच नहीं है. कहानियां मेरा हिस्सा बन जाती हैं. मेरे साथ रहती हैं. महीनों और बरसों तक मुझसे बार-बार बातें करती रहती हैं. कहानियां जो ज़िंदगी के नए पहलुओं को कहती हैं, जो मुझे बेहतर बनाती हैं, जो मुझे कहती हैं. संयोग से मेरी कुछ फिल्में हैं जिनका अदब से रिश्ता रहा है."कौनसी फिल्में हैं? तीन फिल्में, जिनका उन्होंने ज़िक्र किया. 'मक़बूल', 'द नेमसेक' और 'लाइफ़ ऑफ़ पाई'.

'मक़बूल' फिल्म के सीन में इरफ़ान और तब्बू
'तेरी शक्ल तो हीरो से मिलती है'
सिनेमा देखने में मज़ा आता था. लेकिन देखने की इजाज़त नहीं मिलती थी. फिर भी कभी साल में एकाध बार उनके चाचा घर आते, तो उन्हें फिल्में दिखाने ले जाते. तो कभी मौसी के घर जाने पर यह सुख मिल पाता. मौसी के घर की दीवार सिनेमा हॉल की दीवार से सटी हुई थी. उसमें जो महिला टिकट चैक करती थीं, उनसे मौसी की जान-पहचान थी. वे गुज़ारिश कर देती कि बच्चों को जाने दो अंदर बिना टिकट के. इससे मतलब नहीं कि उस समय कितनी फिल्म निकल चुकी. सभी बच्चे जाकर अंदर बैठ जाते.
1976 में मिथुन की पहली फिल्म आई. 'मृगया'. उस समय किसी ने इरफ़ान से कहा कि तेरी शक्ल तो मिथुन से मिलती है. इरफ़ान यह सुनकर खुश हो गए. कि वे भी फिल्मों में आ सकते हैं. वे बाल भी मिथुन की तरह बनाने लगे. किसी दूसरे ने उन्हें राकेश रौशन का हमशक्ल बता दिया. उनकी यह फोटो देखकर -

बचपन की एक तस्वीर में इरफ़ान (फोटोः एशियन पेंट्स शो)
जब लगा कि इस काम में खुद को झोंक सकता हूं
क़रीबन 15 साल की उम्र में उन पर नसीरुद्दीन शाह का बहुत असर पड़ा. उनकी फिल्में देखकर इरफ़ान में भी एक्टिंग के लिए ललक हुई -
"वो टीनेजर का दौर था. जब सिनेमा से ही यह ललक हुई कि मैं भी यह करना चाहूंगा. उसमें कुछ एक्टर्स का हाथ है. नसीर साब का बहुत बड़ा हाथ है. नसीर साब ने जो किया, उसे देखकर यह लगा कि ये दुनिया बहुत एक्सप्लोर की जा सकती है. और इसमें मैं अपने आप को झोंक सकता हूं."आपको बता दें कि इरफ़ान और नसीरुद्दीन शाह ने 'मक़बूल' फिल्म में इकट्ठे एक्टिंग की थी. इसके अलावा नसीर ने एक फिल्म डायरेक्ट की थी. 'यूं होता तो क्या होता'. इसमें भी इरफ़ान ने रोल निभाया है. नसीरुद्दीन शाह के अलावा इरफ़ान दिलीप कुमार से भी बहुत प्रभावित थे.

'यूं होता तो क्या होता' फिल्म के एक सीन में इरफ़ान. (फोटोः अल्ट्रा)
स्टेज पर पहली बार चढ़े और हूटिंग होने लगी
इरफ़ान का एक्टिंग सफर शुरू हुआ 'रविंद्र मंच' से. यहां उन्होंने पहला नाटक किया. 'जलते बदन'.
उसका एक सीन इरफ़ान ने विनय पाठक को बताया. डायरेक्टर ने बताया था कि ट्रांज़िस्टर पर गाना बजेगा. इरफ़ान हाथ में शराब का गिलास लेकर बैठे होंगे. डायरेक्टर जैसे ही इशारा करेगा, उन्हें गिलास फेंकना है. ट्रांज़िस्टर गिरेगा. गाना बंद होगा. फिर सीन शुरू होगा.
इरफान ने कहा कि राजस्थान की लोकल पब्लिक को वहां नाटक से कोई मतलब था नहीं. उनको बस मज़े लेने थे. इससे पहले इरफ़ान कुछ करते, लोग हूटिंग करने लगे. कोई चिल्ला रहा है कि अबे, क्या पी रहा है. कोई बोल रहा है कि देख, नीचे मत गिर जाना पीते हुए. नसीर के साथ एक इंटरव्यू में इरफ़ान ने आगे का किस्सा बताया था. कि उन्होंने हूटिंग को इग्नोर किया और गिलास फेंका. निशाना तो ठीक था. ट्रांज़िस्टर से गिलास टकराया भी, लेकिन गाना बंद नहीं हुआ.

जयपुर के 'रविंद्र मंच' के परिसर में बैठे हुए इरफ़ान और विनय पाठक (फोटोः एशियन पेंट्स शो)
'वह जगह जहां जादू सिखाया जाता है'
खैर, उन्हें समझ आ गया कि उन्हें अच्छे एक्सपोज़र की जरूरत है. किसी जानकार ने उन्हें दिल्ली के एक एक्टिंग स्कूल के बारे में बताया. राज्यसभा टीवी वाले इंटरव्यू में इरफ़ान यह रोचक किस्सा तफ़सील से बताते हैं. जयपुर में एक जनाब थिएटर किया करते थे. उनका नाम था युसूफ खुर्रम. इरफ़ान ने उनके साथ 'जूनून' (1978) फिल्म देखी. युसूफ बोले कि इस फिल्म में जो ये एक्टर है राजेश विवेक, वो तो बहुत कमाल का एक्टर है. वो तो इन सबसे बड़ा एक्टर है. वो तो ऐसे-वैसे रोल करता ही नहीं है. इरफ़ान कहते हैं -
"बाबा का रोल उसने ऐसा किया था, कि मैं सोच में पड़ गया. ये इसने रोल किया है, या ये आदमी ही ऐसा है. युसूफ ने एक जादू की तरह वो स्टोरी मेरे सामने पेश की. कहा कि एक ऐसी जगह है, जहां यह करना सिखाया जा सकता है. वो जगह है एन.एस.डी. (नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा). जब मुझे यह सब पता चला, उसके बाद मुझे और कुछ नहीं दिखा."राजेश विवेक एक जाने-माने कैरेक्टर आर्टिस्ट थे. 'जूनून' उनकी पहली फिल्म थी. फिल्म उनके सीन से ही शुरू होती है. इसके अलावा राजेश ने 'गांधी', 'महाभारत सीरियल', 'बैंडिट क्वीन', 'लगान', 'स्वदेस', 'जोधा अकबर' जैसी कई फिल्मों में एक्टिंग की थी.

श्याम बेनेगल की फिल्म 'जूनून' (1978) में राजेश विवेक
एन.एस.डी. से सिनेमा की गहराई में उतरे
इरफ़ान ने नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा से पढ़ाई की. यहां उन्होंने बहुत से नाटक किए. एक्टिंग की बारीकियां सीखी. 'फेलिनी' और 'किस्लोव्स्की' जैसे मास्टर फिल्मकारों वाला वर्ल्ड सिनेमा देखा. विदेशी एक्टर्स का काम देखा. एक इंटरव्यू में उन्होंने अपने फेवरेट एक्टर्स बताए थे - नसीरुद्दीन शाह, दिलीप कुमार, रॉबर्ट डी नीरो, डेनियल डे लुइस, फिलिप सीमूर हॉफमैन, जेरार्ड डिपार्डियू, पीटर ओ टूल. अपना ऑल-टाइम फेवरेट बताया था मार्लन ब्रांडो को.
यहां उनके एक टीचर थे रवि चतुर्वेदी. यह फोटो उन्होंने संजो कर रखी थी, जो हम तक 'इंडिया टुडे' के पत्रकार शरत के जरिए पहुंची -

इरफ़ान की एनएसडी के दिनों की तस्वीर. (फोटोः रवि चतुर्वेदी)
उनका टाइम आने वाला था कि तभी अक्षय और सुनील आ गए
टीवी सीरियल 'श्रीकांत' से पहली बार कैमरे का सामना किया. इरफ़ान के करियर की पहली फिल्म थी 'सलाम बॉम्बे'. यह डायरेक्टर मीरा नायर की भी पहली फिल्म थी. इस फिल्म ने कान फिल्म फेस्टिवल में गोल्डन कैमरा अवॉर्ड जीता. ऑस्कर में टॉप 5 में नामांकित हुई. इरफ़ान इसी तरह की आर्टिस्टिक फिल्में करना चाहते थे. लेकिन बीच में आ गए अक्षय कुमार और सुनील शेट्टी. क्योंकि जैसा सिनेमा इरफ़ान करने आए थे, उसका डेरा उठता लग रहा था. क्योंकि अक्षय, सुनील की बलवान फिल्में सारा स्पेस खा रही थीं. इसी लिहाज से ऐसे एक्शन हीरोज़ ने यंग इरफ़ान के सपनों पर पानी फेरा था. 'इंडिया टुडे' में छपे हुए उनके इंटरव्यू में इरफ़ान बताते हैं -
"जब मैं मुंबई आया, सारा पैरलल सिनेमा मूवमेंट मर रहा था. अपनी आखिरी सांस ले रहा था. मैं इसका हिस्सा बना. गोविंद निहलानी के साथ एक फिल्म की. उसके बाद अफरा-तफरी मच गई."

'दृष्टि' फिल्म में डिंपल कपाड़िया और इरफ़ान
इरफ़ान ने निहलानी की फिल्म दृष्टि (1990) में काम किया था. इस फिल्म में लीड रोल में थे शेखर कपूर और डिंपल कपाड़िया. अफरा-तफ़री को इरफ़ान एक्सप्लेन करते हैं -
"यह सब कुछ क्लास में आगे फ्रंट बेंच पर बैठने वालों के लिए था. अक्षय कुमार और सुनील शेट्टी का दौर. मैं किसी फिल्म में 2-3 मिनट के रोल के लिए इंतज़ार करता. चाहे किसी के आगे-पीछे चलने वाले का रोल मिल जाए. मैं यहां सिनेमा करने आया था. लेकिन टेलीविज़न ने मुझे खा लिया. यह बहुत बोरिंग था."1990 के दशक में शाहरुख़, सलमान और आमिर रोमांटिक स्टार बन रहे थे. दूसरी तरफ एक्शन हीरो उभर रहे थे. अजय देवगन, अक्षय कुमार, सैफ़ अली खान, सुनील शेट्टी.

'वक़्त हमारा है' के सीन में सुनील शेट्टी, रामी रेड्डी और अक्षय कुमार
जब एक्टिंग करना एक दर्दनाक चीज़ बन गई
बचपन में वे बीबीसी के प्रोग्राम सुनने के लिए रेडियो से चिपक जाया करते थे. एक बार उसी बीबीसी के साथ उनका इंटरव्यू हुआ. पत्रकार थे चेतन पाठक. इरफ़ान ने टीवी में काम करने के अनुभव को डिटेल में बताया.
"जो भी मिल रहा था, मैं अपना खर्चा चलाने के लिए कर रहा था. साथ में सीखने की कोशिश थी. लेकिन टीवी का सेट-अप ही ऐसा है, कि मुझे किरदार की तरह व्यवहार नहीं करने दे रहा था. एक वर्बल ड्रामा जैसा था. टीवी में सबकुछ बोलना होता है. आप उस तरह व्यवहार नहीं करते. जो भी अंदर चल रहा है, सबकुछ बोलना होता है. यह एक कच्चे ड्रामा जैसा होता था."

'चाणक्य' टीवी सीरियल में इरफ़ान
इरफ़ान ने कहा कि किरदार के साथ इमोशनली कनेक्टेड ना हो, तो यह एक रबड़ के कुत्ते को प्यार करने जैसा होता है -
"मैं आपको बता रहा हूं. यह एक रेसिप्रोकेशन है. जब आप डूब जाते हैं, जुड़े होते हैं, कुछ होता है जो वापस आपके पास आता है. वर्ना अगर आप केवल ऊपरी तौर पर कर रहे हैं, किरदार से कनेक्ट नहीं कर रहे हैं, तो लगता है कि आपकी बैटरी ख़त्म हो गई है. आपको वापस कुछ मिल नहीं रहा. यह दुनिया में सबसे दर्दनाक चीज़ बन जाती है."जब इरफ़ान ने सोचा कि एक्टिंग करना छोड़ दूं क्या
वे इतना उकता गए थे कि एक्टिंग का करियर ही छोड़ने का सोच रहे थे. लेकिन 1999 में 'स्टार प्लस' पर शुरू हुई टीवी सीरीज़ 'स्टार बेस्टसेलर्स'. अलग अलग कहानियों पर बनी इस एंथोलॉजी को 5 डायरेक्टर्स ने बनाया था. अनुराग कश्यप, तिग्मांशु धूलिया, इम्तियाज़ अली, श्रीराम राघवन, हंसल मेहता. इसमें इरफ़ान को कुछ अच्छा रोल करने को मिला.

'स्टार बेस्टसेलर्स' के एक एपिसोड में टिस्का चोपड़ा और इरफ़ान
फिर से काम कम हुआ, तो 2001 में आसिफ़ कपाड़िया की फिल्म 'द वॉरियर' ने उन्हें एक्टिंग में चुनौती दी. 2003 में आई 'हासिल' और 'मक़बूल'. इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा.

'हासिल' फिल्म के सीन में इरफ़ान
वीडियो देखें - खेल दिखाकर 'मदारी' चला गया, इरफान पर क्या बोले बॉलीवुड के सेलिब्रेटी