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आजादी का जश्न मना रहे पकिस्तान को पता तक नहीं था कि ग्लोब में वो कहां पर है

17 अगस्त 1947 के दिन सिरिल रैडक्लिफ ने दो मुल्कों के स्केच पेश किए थे.

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3 जून 1947.ऑल इंडिया रेडियो पर रात के ठीक आठ बजे समाचार प्रसारित हुआ. लेकिन आज रेडियो अनाउंसर की भूमिका में वो तीन लोग थे जिन पर पूरे देश की निगाह टिकी हुई थी, माउन्टबेटन, पंडित नेहरू और मोहम्मद अली जिन्ना. सबसे पहले माउन्टबेटन ने भारत की आजादी की घोषणा की. इसके बाद जिन्ना ने मुस्लिम होमलैंड के सपने के साकार होने पर देश के मुसलमानों को बधाई दी. साथ ही उन्हें शांति कायम रखने की अपील की. इसके बाद नेहरू ने अपने हिस्से के भारत को सेकुलर बताते हुए बड़ी लरजती आवाज में विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकार करने की बात कही थी. इसे बाद के इतिहास में '3 जून प्लान' या फिर 'माउन्टबेटन प्लान' के तौर पर दर्ज किया गया.

हालांकि यह तय हो चुका था कि भारत दो अलग-अलग देशों के तौर पर आजाद होगा लेकिन किसी को उस समय तक ठीक-ठीक यह पता नहीं था कि कौन सा इलाका किसके हिस्से आएगा. यह वही दौर था जब पंजाब और बंगाल में हिंसा की शुरुआत हो चुकी थी. पंजाब के गांवों में सिख और मुस्लिम हथियारबंद होकर अपने-अपने गांव की रक्षा करने में जुट गए थे. ताकि बंटवारे के समय वो वो अपने गांव को हिंदुस्तान या पाकिस्तान में शामिल करवा सकें. बाद में यही भ्रम की स्थिति हमें रेणु के उपन्यास 'मैला आँचल' में देखने को मिली. रेणु दर्ज करते हैं कि बिहार के पूर्णिया जिले के गांव कलीमुद्दीनपुर के बारे में अफवाह थी कि यह गांव पकिस्तान का हिस्सा बनते-बनते बचा. इस गांव का नाम मुस्लिम था गोया पकिस्तान वालों ने मांग की थी कि यह गांव उन्हें मिलना चाहिए.


नेहरू, जिन्नाह और माउंटबेटन
नेहरू, जिन्नाह और माउंटबेटन

14 अगस्त 1946 को मुस्लिम लीग के 'डायरेक्ट एक्शन डे' के चलते कलकत्ता ने दस दिन तक भयंकर दंगे देखे थे. इन दंगों में करीब पांच हजार लोग मारे गए थे. इस दिन के बाद से सांप्रदायिक माहौल कभी सुधर नहीं पाया. माउन्टबेटन भारत विभाजन के नतीजे जानते थे. वो इस कल्तेआम की लांछन अपने सिर पर नहीं लेना चाहते थे. ऐसे में 15 जुलाई 1947 को ब्रिटिश संसद के भारत की आजादी का एक्ट पारित करते ही उन्होंने भारत की आजादी के लिए एक महीने बाद की तारीख तय कर दी. लेकिन उस समय तक बंटवारे का कोई पुख्ता ब्लू प्रिंट उनके पास नहीं था.

ये पेचीदा काम सौंपा गया एक ब्रिटिश बैरिस्टर सिरिल रैडक्लिफ को. 8 जून 1947 को रैडक्लिफ भारत पहुंचे. ब्रिटेन की वकील बिरादरी में उनकी छवि एक सुलझे हुए और तार्किक आदमी की हुआ करती थी. उनके पास इस महादेश को बांटने के लिए महज 36 दिन का समय था. रैडक्लिफ जानते थे कि नक्शे पर खींची गई हर लकीर जमीन पर खून से सनी होगी.


सिरिल रैडक्लिफ
सिरिल रैडक्लिफ

भारत के वायसरॉय माउन्टबेटन से बातचीत के बाद वो अपने काम पर लग गए. इस काम को पूरा करने के लिए दो बाउन्ड्री कमीशन बनाए गए. पहला पंजाब के लिए और दूसरा बंगाल के लिए. दोनों कमीशन की अध्यक्षता रैडक्लिफ को करनी थी. इसके अलावा कांग्रेस और मुस्लिम लीग से दो सदस्य इस कमीशन का हिस्सा थे. बंगाल के बाउन्ड्री कमीशन में मुस्लिम लीग की तरफ से अबू सहेल मोहम्मद अकरम और एसए रहमान. वहीं जस्टिस सीसी बिस्वास और बीके मुखर्जी कांग्रेस का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. पंजाब के बंटवारे के कमीशन में कांग्रेस की तरफ से थे जस्टिस मेहर चंद महाजन और तेजा सिंह. मुस्लिम लीग ने दीन मोहम्मद और मो. मुनीर को इस कमीशन में भेजा था. इसके रैडक्लिफ अपने निजी सचिव क्रिस्टोफर बिओमोंट की मदद भी ले रहे थे.


टाइम्स ऑफ़ इंडिया
टाइम्स ऑफ़ इंडिया

14 अगस्त 1947, माउंटबेटन कराची में एक नए मुस्लिम देश की आजादी के जश्न में शमिल हुए. लोग हाथ हिला कर उनका अभिवादन कर रहे थे. दूसरे दिन उन्हें भारत में ऐसे ही समारोह में भाग लेना था. उस समय तक उनके और रैडक्लिफ के अलावा किसी के पास इस नए देश का नक्शा नहीं था. आजादी के जश्न के बाद 17 अगस्त 1947 को रैडक्लिफ ने दोनों देशों के नए नक्शे पेश किए. लाहौर पकिस्तान को दे दिया गया था. वहीं गुरदासपुर, पठानकोट भारत के हिस्से आया था. बंगाल में मालदा, मुर्शीदाबाद भी लगभग बराबर की संख्या होने के बावजूद भारत के हिस्से आया था. चिटगांव में 90 फीसदी से ज्यादा बौद्ध आबादी का मुस्तकबिल नए मुस्लिम देश के हवाले छोड़ दिया गया था.

रैडक्लिफ ने अपने बाद के संस्मरणों में लिखा था कि वो विभाजन के खूनी अंजाम को अच्छे से समझते थे. लेकिन इस काम को अंजाम देने के लिए वो नियति के हाथ मजबूर थे. अपनी तरफ से जो वो कर सकते थे, उन्होंने किया.




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