जीनत अमान की फिल्में देखकर दारा सिंह और उनकी कहानियां चस्का लेकर सुनाई जाती थीं.
अशोक पांडे
अशोक पांडे कवि, पेंटर और ट्रांसलेटर हैं. ये कल्ट हिंदी ब्लॉग कबाड़खाना चलाते हैं. उनकी कविताओं का कलेक्शन 'देखता हूं सपने' 1992 में पब्लिश हुआ. उन्होंने लोरा इक्युविल की किताब 'लाइक वाटर फॉर चॉकलेट' को हिंदी में ट्रांसलेट किया है. पांडे ने येहुदा अमिचाइ और फरनांदो पेस्सोआ पर किताबें लिखीं हैं. ये अपने यात्रा वृतांत के लिए भी जाने जाते हैं. ये पोस्ट हमने अशोक पांडे की फेसबुक वॉल से उनकी परमिशन से ली है. पढ़ें.
1975-76 में मैं नौ या दस का था जब रामनगर के हिमालय टाकीज में भुच्चशिरोमणि एक्टर मनोज कुमार की 'रोटी कपड़ा और मकान' लगी. रामनगर में हमारी और उसके आसपास की उम्र के सारे लौंडे जीनातमान के पैदाइशी आशिक थे और उसकी हर पिक्चर सिर्फ और सिर्फ इसलिए देखते थे कि दारासिंह के साथ उसके नाम को जोड़ कर बनाई जाने वाली अश्लील पैरोडियों के भण्डार में इजाफा कर अपनी रचनात्मक प्रतिभा को तीखा कर सकें.
'शोले' एक साल पहले रिलीज हो चुकी थी लेकिन अभी उसने रामनगर में लगना बाकी था. हमें ख़बर थी कि काशीपुर के चैती मेले में उसके शोज चल रहे थे और यह भी कि पिक्चर में बहुत भयंकर फाइटिंग है और कोई गब्बर सिंह है जिसके नाम का सिक्का पूरे देश में ऐसा चला है कि दारासिंह उसके आगे बच्चा नजर आता है.
उस समय तक हम अमीताच्चन और ससी कपूर जैसे नए लौंडे एक्टरों के बारे में ज्यादा मालूमात नहीं रखते थे अलबत्ता सतरूघन सिन्ना, राजेस खन्ना और देवानन के अलावा एक सीमा तक उस समय तक के सबसे मनहूस एक्टर राजेंदर कुमार को अपने नगर के पिक्चर हॉल मालिकों की कामचोरी और काइयांपन के कारण भली तरह पहचानने लगे थे क्योंकि वे बार-बार तीन-चार साल पुरानी फिल्म को नई पिक्चर कह कर एडवरटाइज करते थे और साल में दो-दो दफा 'मुग्लेआजम', 'लैला मंजूर' और 'मंगू' को दो-दो हफ्ते चलाने की गंदी आदत से लाचार थे. नतीजतन ये तीन फ़िल्में हमें रट गयी थीं. आप समझ लीजिये रामनगर में 'शोले' हमने तब देखी जब सारे मुल्क में अफवाह फ़ैल गयी थी कि ज्यादा फाइटिंग की वजह से उसे बाईस रील से काटकर अठारह रील कर दिया गया था.
ज़रा तस्वीर से तू, निकल कर सामने आ, मेरी महबूबा.पिक्चर हॉल मालिकों के ऐसे घिनौने करतब ही अमूमन हमारी बातचीत के सबसे ज्वलंत विषय हुआ करते. ऐसे में 'रोटी कपड़ा और मकान' लगी जिसे रामनगर के हिसाब से काफी नई पिक्चर माना जा सकता था. हमारे पड़ोस में रहनेवाले एक परिवार के यहां मुरादाबाद से एक नक्शेबाज, सिपला टाइप का मेहमान लौंडा आया था जो हमारा हमउम्र भी था. उससे सिर्फ इस वजह से हमारी अंतरंगता हो गयी थी कि उसे भी पिक्चरों के कीड़े ने
उसकी देह में उसी गुप्त जगह पर काटा था जहां हम पहले ही से नासूर पाले बैठे थे. उसी ने बताया कि पिक्चर नई है और उसने नहीं देख रखी है. हम रामनगर वालों के लिए यही तथ्य बहुत बड़े सम्मान का विषय रहा जिसे हम लम्बे वक्फे तक विक्टोरिया क्रॉस की तरह लटकाए घूमते रहे.
'रोटी कपड़ा और मकान' में हमारी महबूबा जीनातमान थी और खूब थी. अलबत्ता उसमें मदन पुरी भी था जिसके हरामीपन के हम सब मुरीद थे और जब तक वह स्क्रीन पर रहता हमारे भीतर मीठी ऐंठन जैसा कुछ लगातार चुभता रहता. असल में हम जीनातमान के आशिक होने के साथ साथ मदन पुरी के गुलाम भी थे. वैसा कमीना गद्दार हिन्दी की पिक्चरों में फिर कभी नहीं आया.
हमने तीन दफा पिक्चर देखी और उसके जितने मजे लूट सकते थे लूटे. सारे गाने हमें रट गए और साथ होने पर हम दोस्त उन्हें गाया करते. एक तोतला मगर जांबाज लौंडा हमारा सेनापति था. 'हाय हाय ये मजबूली' पर अपनी जांघों, सीने और माथे पर थाप मारता हुआ वह ऐसा कैबरे करता था कि उसके शुरू होने पर हमें शरमाकर मंडली में से अपने से छोटी उम्र के बच्चों को बाहर चले जाने को कहना पड़ता. वे शिकायत करते तो हम उनसे कहते - "बच्चों के मतलब का आइटम नहीं है बेटे!"
अब तो आप सब बड़े हो गए हैं, तो आराम से देखिए ये गाना :एक दिन हमारी टोली के एक सदस्य ने गाने को बीच में टोक कर उससे उस पंक्ति का अर्थ पूछा जिसमें जीनातमान दो टकियां दी नौकरी में अपने लाखों के सावन के जाने का उलाहना देती हुई भारत कुमार को लपलपा रही होती है.
जाहिर है न हमें दो टकियां का अर्थ आता था न लाखों के सावन का! इतना ऊंचा काव्य समझने लायक बालिग अभी हम नहीं हुए थे.
तब तक मैं क्लास के सबसे हुसियार बच्चे के तौर पर स्थापित हो चुका था सो अगले दिन स्कूल में हिन्दी वाले रामौतार मास्साब से इस सवाल का जवाब पूछने का जिम्मा मुझे सौंपा गया.
और मैंने पूछ ही लिया.
मुझे और आगे की सीट पर बैठे बच्चों को रामौतार मास्साब ने इतना मारा कि उनकी संटी टूट गयी.
"एक तरफ जो है इन्द्रा गांधी ने इमरजन्टी लगा रखी है और तुम पिद्दियों की पिछाड़ी में सावन की आग लग रही है ह***दो! अपने माँ-बापों से पूछना सालो ..." वे गालियाँ बकते जाते थे और संटियाँ मारते जाते थे."
जाहिर है अपने माँ-बापों से क्या किसी से भी इस खतरनाक गाने का अर्थ पूछने की हिम्मत हममें से किसी की भी न थी. हां कई हफ़्तों तक हम इस एक बात को लेकर असमंजस में रहे कि हमारी जानेमन, हमारे ख़्वाबों की मलिका जीनातमान ऐसा हौकलेट गाना गाने को राजी कैसे हो गयी जिसका जिक्र भर करने से रामौतार मास्साब जल्लाद में बदल गए.
रामौतार मास्साब और इन्द्रा गांधी सही लोग नहीं हैं - हमने तय किया!
एक बार फिर सावन में आग लगाने आ गया है, सत्यम शिवम सुंदरम का ये गाना
ये अशोक पांडे की फेसबुक पोस्ट है. अच्छी लगी तो अशोक पांडे को थैंक्यू कहिएगा!