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बंगाल : क्या है गोरखालैंड, जिसके लिए 1200 से भी ज्यादा लोगों ने दी कुर्बानी

गोरखालैंड आंदोलन का मुख्य एजेंडा पश्चिम बंगाल में नेपाली लोगों की भाषा, संस्कृति और...

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गोरखालैंड का प्रस्तावित क्षेत्र
गोरखालैंड (Gorkhaland) पश्चिम बंगाल की राजनीति की एक अनसुलझी पहेली है. इसका निवारण ना देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू कर पाए, ना सबसे लंबे समय तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु, ना आज की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और ना ही युग पुरुष माने जाने वाले भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. गोरखालैंड बंगाल से अलग एक नए राज्य का प्रस्तावित नाम है, जिसके हिस्से में दार्जिलिंग, कलिम्पोंग और कुर्सियांग और कुछ अन्य ज़िले हैं. गोरखालैंड आंदोलन का मुख्य एजेंडा पश्चिम बंगाल में नेपाली लोगों की भाषा, संस्कृति और पहचान का संरक्षण करने के साथ ही इलाके के विकास है. इस आंदोलन का समर्थन करने वाले मानते हैं कि अलग राज्य गोरखालैंड बनने से गोरखा लोगों को “बाहरी” या “विदेशी” नहीं कहा जाएगा. उनकी अपनी अस्मिता और पहचान होगी. इसके अलावा ग़रीबी, विकास और राज्य सरकार का पक्षपाती रवैया भी अहम मुद्दे हैं. वैसे तो गोरखालैंड का मुद्दा आज़ादी से कई सालों पहले का है. तो आइए इसे विस्तार से समझते हैं. आज़ादी से पहले का बंगाल ब्रिटिश राज में बंगाल का पहला विभाजन 1905 में हुए था. उस दौर में ही गोरखा लोगों में अलग राज्य को लेकर चर्चाएं शुरू हो गईं थीं. लेकिन आधिकारिक तौर पर अगर बात करें तो साल 1907 में गोरखा लोगों के लिए अलग राज्य की मांग को लेकर मॉर्ले-मिंटो सुधार पैनल को ज्ञापन सौंपा गया था. ज्ञापन सौंपने वाले समूह का नाम था हिलमेन एसोसिएशन. इसके बाद भी कई मौकों पर गोरखा लोगों ने ब्रिटिश सरकार के सामने अपनी मांग रखी थी. साल 1943 में ऑल इंडिया गोरखा लीग (AIGL) का गठन हुआ. हालांकि तब सिर्फ़ अलग राज्य की मांग थी. गोरखालैंड शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया था. आज़ादी के बाद का आंदोलन इसके बाद साल 1947 के अगस्त महीने में दार्जिलिंग में एक आम सभा बुलाई गई. ये सभा मुख्य रूप से दार्जिलिंग में रहने वाले और अलग-अलग भाषा बोलने वाले नेताओं ने बुलाई थी. यहां से मांगों को लेकर चर्चा आगे बढ़ी और साल 1952 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को AIGL ने ज्ञापन सौंपा. जिसमें 1907 की मांगों का विस्तार करते हुए उन्होंने तीन वैकल्पिक प्रस्ताव दिए गए. जो इस प्रकार थे- • केंद्र सरकार के तहत जिले के लिए केंद्र शासित प्रदेश जैसी विभिन्न प्रशासनिक इकाई. • एक नया राज्य जिसमें दार्जिलिंग और आसपास के क्षेत्र शामिल हों. • दार्जिलिंग और जलपाईगुड़ी के एक हिस्सा यानी की दुआर्स को असम के साथ जोड़ दिया जाए.
भारत के नेपाली प्रवासियों पर माइकल हट्ट की एक किताब के मुताबिक़, 1951 की जनगणना में तत्कालीन जिला जनगणना अधिकारी ए.मित्रा ने बताया था कि केवल 19.96% नेपाली भाषी जनसंख्या दार्जिलिंग जिले में थी. हालांकि, ये आंकड़ा नेपाली भाषी लोगों की वास्तविक आबादी से बहुत कम था. माइकल के मुताबिक़ नेपाली भाषी आबादी उस वक़्त 66% थी. इसलिए ऐसा माना जाता है कि साल 1951 की जनगणना में गलत आंकड़ों की वजह से आज़ादी के बाद भारत सरकार ने नेपाली भाषा को भारत की राष्ट्रीय भाषाओं शामिल नहीं किया.
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गोरखालैंड का प्रस्तावित क्षेत्र

साल 1955 में अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी यानी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के नेता ज्योति बसु ने नेपाली को आधिकारिक भाषा का दर्ज़ा देने की मांग बंगाल में सदन के अंदर उठाई. उसके क़रीब 6 साल के बाद साल 1961 में, पश्चिम बंगाल सरकार ने नेपाली को एक आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दी.
1973 में बंगाल में कांग्रेस का शासन था. कम्युनिस्ट पार्टी का बंटवारा हो चुका था. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी) यानी CPM ने बंगाल में मज़बूत पकड़ बना ली थी. CPM और गोरखा लीग ने मिलकर एक “स्वायत्त जिला परिषद” की मांग की और 'कार्यक्रम और स्वायत्तता की मांग' नाम का एक दस्तावेज भी तैयार किया. तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने दार्जिलिंग के लिए एक ‘पहाड़ी विकास परिषद’ का गठन किया. पहली बार आंदोलन के क़रीब 70 साल बाद बंगाल में हिल्स के लिए आधिकारिक रूप से अलग प्रशासनिक ढांचे को मान्यता दी गई. लेकिन इसके बावजूद इससे लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने में ये परिषद विफल रही. सीपीएम के 34 साल और गोरखालैंड का आंदोलन साल 1977 में वाम मोर्चा के सत्ता में आने के बाद भी हिल काउंसिल की पुरानी व्यवस्था बरकरार रही. अब इस बात से लोग बेचैन होने लगे. तब कुछ लोगों ने एक नया संगठन 'प्रांत परिषद ' बनाया. इस संगठन ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से अलग राज्य की मांग की. इस पूरे दौर में इलाक़े में कई आंदोलन हुए. तब एक अन्य संगठन अखिल भारतीय नेपाली भाषा समिति ने एक और आंदोलन की शुरुआत की, जिसमें भारतीय संविधान में नेपाली को आधिकारिक भाषा के रूप में शामिल करने की मांग की गई, और इसी वक़्त सुभाष घीसिंग (Subhash Ghisingh) के नेतृत्व में 1980 में गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (GNLF) का गठन हुआ. सुभाष घीसिंग ने ही गोरखालैंड शब्द का पहली बार इस्तेमाल किया. 7 सितंबर 1981 को पुलिस ने दार्जिलिंग चौकबाजार में आंदोलनकारियों पर गोलियां चलाईं. इस दौर में प्रांत परिषद को बहुत ज़्यादा दमन का सामना करना पद रहा था. प्रांत परिषद द्वारा शुरू किए गए अलग राज्य की मांग और आंदोलन पर 1986 तक GNLF ने क़ब्ज़ा जमा लिया था. 1986 से 1988 तक सीपीएम और GNLF के कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़पें हुईं. 27 महीनों तक चली हिंसा में 1200 से भी ज़्यादा लोग मारे गाए और 60 करोड़ से भी ज़्यादा सम्पत्ति का नुक़सान हुआ.
Subhash Ghisingh
GNLF के नेता सुभाष घीसिंग

फिर 22 अगस्त 1988 को  गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (GNLF), पश्चिम बंगाल सरकार और केंद्र सरकार के बीच एक त्रिकोणीय समझौते के तहत दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल (DGHC) का गठन किया गया. DGHC इस शर्त पर बनाया गया की GNLF  को अलग राज्य की मांग को छोड़ने के लिए तैयार होना पड़ेगा. DGHC को एक राज्य के बराबर अधिकार दिए गए. गौर करने वाली बात ये है कि उस वक़्त बीजेपी के सिवाए सारी राजनीतिक पार्टियों ने इसका समर्थन किया था. इंडिया टुडे मैगज़ीन को दिए एक इंटर्व्यू में राज्य में तत्कालीन बीजेपी के नेता पारस दत्ता ने कहा था, “हम लोग ऐसे समझौते का विरोध करते हैं जो सिर्फ़ ज्योति बसु की राजनीतिक छवि सुधारने के लिए हड़बड़ी में किया गया हो.” नेपाली भाषा और अस्मिता का सवाल इसके ठीक बाद 1989 में हुए आम चुनाव में GNLF के नेता और DGHC के अध्यक्ष सुभाष  घीसिंग अपने ख़ास दोस्त और पत्रकार इंद्रजीत खुल्लर, जो की कांग्रेस के उम्मीदवार थे, उनको समर्थन दिया. लिहाज़ा इंद्रजीत भारी मतों से जीत कर दार्जीलिंग लोकसभा सीट से संसद पहुंचे. फिर 1991 में दोबारा हुए लोकसभा चुनावों में भी उन्होंने इंद्रजीत का समर्थन किया. हालांकि GNLF ने 1991 में हुए बंगाल के विधानसभा चुनाव का बहिष्कार किया था.  इसके बाद के कुछ चुनावों में घीसिंग ने सीपीएम का समर्थन किया, कुछ में कांग्रेस का, जबकि कुछ चुनाव में वोटिंग का बहिष्कार किया.
इसी बीच नेपाली भाषा को केंद्र में मान्यता को दिए जाने को लेकर आंदोलन तेज हो रहा था. अंततः 20 अगस्त, 1992 को भारतीय संविधान के अनुच्छेद VIIA के तहत कोंकणी और मणिपुरी के साथ-साथ नेपाली को एक आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दी गई. उस वक़्त दार्जिलिंग से कांग्रेस सांसद और घीसिंग के दोस्त इंद्रजीत खुल्लर, जिन्होंने GNLF समर्थन के साथ जीत हासिल की थी उन्होंने संसद में टिप्पणी की थी कि नेपाली एक विदेशी भाषा है और इसे भारतीय संविधान में शामिल नहीं किया जाना चाहिए.
पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु (फोटो: The Lallantop)
पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु (फोटो: The Lallantop)

नेपाली भाषा के लिए GNLF का हल्का-फुल्का समर्थन एकमात्र समस्या नहीं थी. एक तरफ़ 3-स्तरीय पंचायतों का समर्थन करने के बजाय, DGHC को 1-स्तरीय प्रणाली के साथ जारी रखा गया. वहीं दूसरी तरफ़ घीसिंग ने स्कूल सेवा और कॉलेज सेवा आयोग को कमजोर कर दिया. इसी बीच इस इलाक़े में सीपीएम आंतरिक परेशानी का सामना कर रही थी और दिसंबर 1996 में पार्टी में फूट पड़ गई. दार्जिलिंग जिला समिति के 42 सदस्यों में से 29 लोग पहाड़ी समुदायों में से थे. उनमें से 25 ने सीपीएम छोड़ दी और एक अलग पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ रिवोल्यूशनरी मार्क्सिस्ट (CPRM) का जन्म हुआ. उन्होंने जातीय पहचान पर सीपीएम के रुख पर सवाल उठाया और एक बार फिर गोरखालैंड की मांग उठाई. लेकिन इसका सीपीएम को चुनाव में नुक़सान नहीं हुआ, 1999 में हुए चुनाव में सीपीएम ने यहां जीत दर्ज़ की. हालांकि जानकार मानते हैं कि भले ही सुभाष घीसिंग ने चुनाव बहिष्कार का ऐलान किया था लेकिन सीपीएम की लगातार 1996, 1998 और 1999 में जीत उनके समर्थन के बिना संभव नहीं थी.
DGHC में घीसिंग का शासन 2004 तक जारी रहा. लेकिन कार्यकाल ख़त्म होने के बाद भी वो कई तरीक़ों से चुनावों से बचते रहे. उस वक़्त की सीपीएम की राज्य सरकार ने उन्हें कार्यवाहक प्रशासक बना रखा था. इस बीच घीसिंग ने यह कहना शुरू कर दिया कि DGHC को संविधान की छठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने के बाद ही चुनाव कराए जा सकते हैं. इस मसले का पर्मनेंट हल निकलना मुश्किल था, ये बात राज्य सरकार भी जानती थी. इस वजह से राज्य सरकार ने 2005 में घीसिंग की मांग को मान लिया और केंद्र सरकार के साथ मिलकर दार्जीलिंग को संविधान के छठवीं अनुसूची में शामिल किया और एक ट्राइबल काउन्सिल का गठन किया. जिसका अध्यक्ष भी घीसिंग को बनाया गया. इसमें 31% सीटें अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित की गई. लेकिन इसमें अधिकांश गोरखा शामिल नहीं थे. और यहां से शुरू हुआ गोरखालैंड के इतिहास का दूसरा सबसे बड़ा आंदोलन.
Bimal Gurung Gorkhaland
GJM के नेता बिमल गुरुंग
बिमल गुरुंग का उदय अब GNLF में आपसी गतिरोध शुरू हो गया था और घीसिंग के करीबी माने जाने वाले बिमल गुरुंग ने 2007 में GNLF छोड़ अपनी पार्टी बना ली. उन्होंने गोरखा जन्मुक्ति मोर्चा (GJM) का गठन किया. गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने अब दोबारा अलग राज्य गोरखलैंड की मांग को तेज कर दिया. बिमल गुरुंग के साथ आंदोलन में GNLF का एक बड़ा हिस्सा शामिल हो गया और इस आंदोलन के शुरू होने के ठीक बाद, 6वीं अनुसूची में शामिल किए जाने के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया गया. इसके बाद में साढ़े तीन साल तक पूरा इलाका अशांत रहा. राजनीतिक झपड़ें, पुलिस और राजनीतिक कार्यकर्ताओं में भिड़ंत, हिंसा, आगज़नी की खबरें आम हो गई.
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बीजेपी नेता जसवंत सिंह

GNLF की ताक़त कमजोर हो चुकी थी और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (GJM) काफ़ी बड़ी पार्टी बनकर उभर रही थी. 2009 के आम चुनावों में पहली बार बीजेपी के जसवंत सिंह दार्जीलिंग लोकसभा सीट से संसद पहुंचे. लेकिन यह तब ही संभव हुआ जब गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के गठबंधन के साथ बीजेपी ने यहां से चुनाव लड़ा.
इसी बीच 21 मई 2010 को गोरखालैंड आंदोलन की सबसे पुरानी पार्टीऑल इंडिया गोरखा लीग (AIGL) के नेता मदन तमांग की दार्जीलिंग में सरेआम हत्या कर दी गई. GJM के समर्थकों पर इनकी हत्या का आरोप लगाया गया. इस घटना से भी बिमल गुरुंग को राजनीतिक नुक़सान नहीं हुआ. उन्हें जनता का अपार समर्थन मिलता रहा. ममता ने सत्ता पर कब्जा जमाया और फिर हुआ सीपीएम की 34 साल की सरकार का अंत. तृणमूल सत्ता पर क़ाबिज़ हुई और सीएम ममता बनर्जी ने गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (GTA) बनाने का ऐलान किया. जिसके बाद 18 जुलाई 2011 को सिलीगुड़ी में तत्कालीन गृहा मंत्री पी चिदंबरम ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और GJM के नेताओं के बीच संधि पर हस्ताक्षर किए गए. मार्च 2012 में इसे राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल गई और फिर चुनाव हुए जिसमें GJM ने भारी मतों से जीत दर्ज़ की.
West Bengal Mamata Banerjee
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी

लेकिन एक साल के अंदर ही दोबारा अलग राज्य को लेकर चर्चाएं शुरू हो गईं. 20 जुलाई, 2013 को तेलंगाना के गठन के साथ ही गोरखालैंड राज्य के लिए आंदोलन फिर से तेज हो गया. 2014 के आम चुनाव में GJM ने फिर बीजेपी का समर्थन किया. बीजेपी ने यहां दोबारा जीत दर्ज़ की. इसी बीच ममता बनर्जी ने इस इलाक़े में अपने राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाने के लिए कई कदम उठाए. दार्जीलिंग से अलग कलिमपोंग़ को ज़िला घोषित किया, कई ट्राइबल काउन्सिल बनाए और उनको स्वतंत्र प्रभार दिया. इसी बीच गुरुंग के एक करीबी नेता ने जन अधिकार पार्टी बनाई और ममता बनर्जी को समर्थन देने का ऐलान भी किया. जिसका ममता को फ़ायदा भी मिला. पहली बार मई 2017 में दार्जीलिंग के मिरिक में ममता बनर्जी की पार्टी ने निकाय चुनावों में जीत दर्ज़ की. 30 साल में पहला ऐसा मौक़ा था जब यहां राज्य की किसी सत्ताधारी पार्टी ने जीत दर्ज़ की थी. लेकिन ममता के एक फ़ैसले ने ही उन्हें बहुत भारी नुक़सान पहुंचाया. ममता ने ऐलान किया था कि बांग्ला भाषा को राज्य के सभी स्कूलों में अनिवार्य घोषित किया जाए.
इस ऐलान के बाद पूरे इलाक़े में आंदोलन काफ़ी तेज हो गया. फिर से अलग राज्य की मांग तेज हुई और इसी बीच 25 जून 2017 को गुरुंग ने जीटीए प्रमुख पद से इस्तीफा देते हुए कहा था कि लोगों ने विश्वास खो दिया है. हालांकि, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने रुख को स्पष्ट करते हुए कहा था, "बंगाल अभी तक विभाजन का दर्द झेल रहा है."
जिसके बाद बिमल गुरुंग में 104 दिनों कि आंदोलन चलाया था. कई हिंसा की घटनाएं हुई और कई बम धमाके भी हुए. जिसके बाद गुरुंग पर अन्लॉफ़ुल ऐक्टिविटीज़ प्रिवेन्शन ऐक्ट (UAPA) के तहत मुक़दमा दर्ज किया गया और वो अंडर्ग्राउंड हो गए.
2018 में GJM के ही दूसरे नेता बिनॉय तमांग को ममता बनर्जी ने GTA का अध्यक्ष घोषित कर दिया. लेकिन उन्होंने पद से इस्तीफ़ा देकर 2019 में हुए उप-चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा. उन्होंने तृणमूल का समर्थन भी मिला लेकिन वो चुनाव हार गए. बीजेपी के दाव-पेंच 2019 के आम चुनावों में बीजेपी ने दोबारा GJM के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा और दार्जीलिंग की सीट पर तीसरी बार लगातार जीत दर्ज़ की. 2019 के बीजेपी चुनाव घोषणापत्र में लिखा था, “हम भारतीय गोरखा उप-जनजातियों में से 11 को अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता देंगे. हम लिम्बो और तमांग जनजातियों के लिए सिक्किम विधान सभा में आरक्षण लागू करने के लिए भी प्रतिबद्ध हैं. हम दार्जिलिंग हिल्स, सिलीगुड़ी तराई और डुआर्स क्षेत्र के मुद्दे का स्थायी राजनीतिक समाधान खोजने की दिशा में काम करने के लिए प्रतिबद्ध हैं.”
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दार्जीलिंग से बीजेपी संसाद राजू बिस्ता

19 सितंबर, 2020 को दार्जिलिंग के बीजेपी सांसद राजू बिस्ता ने संसद के मानसून सत्र के दौरान गोरखलैंड मामले को उठाया. उन्होंने लोकसभा में कहा, “मैंने केंद्र सरकार से लंबे समय से लंबित मांग के स्थायी राजनीतिक समाधान में तेजी लाने का अनुरोध किया था. मैंने संसद से इस बात का संज्ञान लेने का अनुरोध किया कि दार्जीलिंग, तराई और डुआर्स क्षेत्र के पहाड़ी लोगों के गोरखालैंड राज्य की मांग लंबे समय से लंबित है.” इसके बाद केंद्र सरकार ने कई बैठकें भी बुलाई, लेकिन ममता सरकार ने बैठक में हिस्सा लेने से इंकार कर दिया.
फिर अचानक तीन सालों के बिमल गुरुंग दोबारा प्रकट होते हैं अक्टूबर 2020 में. लेकिन इस बार उनके तेवर कुछ बदले हुए से हैं. वो सीधे तौर पर बीजेपी के ख़िलाफ़ और ममता बनर्जी के प्रचार में जुटे हुए हैं.
हालांकि, इतना लंबा इतिहास पढ़कर आपको ये तो समझ आ ही रहा होगा की गोरखालैंड के स्थायी समाधान को लेकर कोई राजनीतिक पार्टी कुछ पहल करे ना करे, लेकिन हर चुनाव से यह मुद्दा हमेशा जाग उठता है. और फिर खुद ब खुद ग़ायब भी हो जाता है. लेकिन आज भी आम गोरखा लोगों की समस्याएं ज्यों की त्यों बनी हुईं हैं.