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सुधांशु शुक्ला स्पेस स्टेशन से कागज का प्लेन धरती की ओर फेंकें तो वो कहां पहुंचेगा?

भारत के सुधांशु शुक्ला जिस अंतरिक्ष स्टेशन पर हैं, वहां से अगर कागज का जहाज धरती की तरफ फेंकें तो क्या होगा? जापान में ये प्रयोग किया भी जा चुका है. नतीजा क्या निकला, आइए जानते हैं.

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ISS से कागज का प्लेन छोड़ें तो कहां जाएगा? (फोटोः India Today)

भारतीय एस्ट्रोनॉट सुधांशु शुक्ला की इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन (ISS) से वापसी कुछ समय के लिए टल गई है. अब उनके इंतजार में हमारी वैज्ञानिक जिज्ञासा जाग उठी. आज हम सोच रहे हैं कि सुधांशु शुक्ला जिस इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन पर हैं, वहां से अगर वो एक कागज का एरोप्लेन बनाकर धरती की तरफ पर फेंकें तो क्या वो यहां तक पहुंचेगा? 

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कागज का एरोप्लेन तो आपने भी खूब उड़ाया होगा. स्कूल के बच्चों का फेवरेट गेम होता है. अगर यही स्पेस स्टेशन से फेंका जाए तो क्या होगा? अगर धरती तक पहुंचेगा तो किस हालत में, और नहीं पहुंचेगा तो क्यों नहीं पहुंचेगा? 

ये सवाल हवा में नहीं है और ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ हमारे दिमाग में आया हो. जापान के कुछ वैज्ञानिकों ने तो इसकी टेस्टिंग भी की है. उन्हें क्या नतीजे मिले हैं, वो जानेंगे, लेकिन उससे पहले ये जान लें कि ये स्पेस स्टेशन क्या चीज है और ये है कहां? 

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इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन यानी ISS एक बहुत बड़ा साइंटिफिक लैब है जो अंतरिक्ष में धरती के चारों ओर चक्कर लगाता है. इसे कई देशों ने मिलकर बनाया है और यहां पर अंतरिक्ष यात्री रहते हैं. काम करते हैं और तरह-तरह के वैज्ञानिक प्रयोग करते रहते हैं. धरती से इसकी दूरी 400 किमी है. इसकी रफ्तार करीब 28 हजार किलोमीटर प्रति घंटा होती है. इतनी तेज कि ये हर 90 मिनट में धरती का एक चक्कर पूरा कर लेता है.

अब आते हैं कागज वाले जहाज पर.

जापान में सैकड़ों साल पुरानी ओरिगामी कला खूब मशहूर है. इसमें कागज को मोड़कर कई तरह की आकृतियां बनाते हैं. जैसे- कागज को मोड़कर कुत्ता बना दिया. हाथी बना दिया या एरोप्लेन. 16 साल पहले की बात है. जापान के ओरिगामी पेपर एरोप्लेन एसोसिएशन के अध्यक्ष ताकुओ टोडा को एक आइडिया आया. उन्होंने टोक्यो विश्वविद्यालय के इस एयरोस्पेस इंजीनियर प्रोफेसर शिंजी सुजुकी से पूछा कि क्या ये मुमकिन है कि एक पेपर एरोप्लेन स्पेस स्टेशन से धरती पर वापस आ सके?

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शुरुआत में ज्यादातर अंतरिक्ष वैज्ञानिकों को लगा कि वह तो वायुमंडल में घुसते ही जल जाएगा क्योंकि कोई भी चीज जब स्पेस से वापस आती है तो उसकी स्पीड बहुत ज्यादा होती है. लगभग Mach 20 यानी कि आवाज की रफ्तार से 20 गुना ज्यादा. ऐसे में उसका तापमान भी तेजी से बढ़ता है. जैसे- जब NASA का स्पेस शटल धरती से ऊपर 37 मील की ऊंचाई तक आता है तो उसके कुछ हिस्से 2900 डिग्री फॉरेनहाइट तक गर्म हो जाते हैं.

लेकिन कागज के जहाज की बात अलग है. वह हल्का होता है और इतनी स्पीड से धरती पर नहीं आता, जैसे स्पेसक्राफ्ट आता है. कागज का प्लेन धरती की ओर आते ही धीमा होने लगेगा. धरती से ऊपर करीब 62 मील की ऊंचाई पर इसकी स्पीड Mach- 6 तक गिर जाएगी. 

फिर भी, सुजुकी ने कागज पर ग्लास कोटिंग कर उससे एक एरोप्लेन मॉडल बनाया. इस कोटिंग वाले प्लेन को उन्होंने टोक्यो यूनिवर्सिटी की हाइपरसोनिक विंड टनल में टेस्ट किया. यानी एक खास सुरंग में प्लेन पर Mach 7 स्पीड की तेज हवा छोड़ी गई. इस दौरान कागज का प्लेन 400 डिग्री फॉरेनहाइट तक की गर्मी को 10 सेकंड तक झेल गया. 

रिसर्च पेपर में मिला जवाब

इसके कई साल बाद जापान के टोक्यो यूनिवर्सिटी के दो वैज्ञानिकों मैक्सिमिलियन बर्थे और कोजिरो सुजुकी का एक रिसर्च पेपर आया. इसका मकसद तीन चीजें पता लगाना था. पहली चीज, कागज का प्लेन स्पेस स्टेशन से छोड़ा जाए तो कितनी तेजी से धरती की ओर गिरेगा? दूसरा, उड़ते वक्त उसका रुख कैसा रहेगा? और तीसरा ,वायुमंडल में घुसते समय उसे कितनी गर्मी लगती है और क्या वह जलकर खत्म हो जाएगा या सही-सलामत नीचे आ जाएगा?

इसके लिए कंप्यूटर सिमुलेशन से इसके उड़ान की दिशा, तापमान और हवा के असर को जांचा गया. कंप्यूटर सिमुलेशन को ऐसे समझिए कि यह कंप्यूटर पर बनी एक नकली दुनिया है, जिसमें सारे नियम असली दुनिया वाले होते हैं. 

इसके अलावा टोक्यो यूनिवर्सिटी की हाई-स्पीड विंड टनल लैब में उन्होंने इस प्लेन को तेज हवा (Mach 7) में टेस्ट भी किया, ताकि देखा जा सके कि वह कितना ताप और दबाव झेल सकता है.

कंप्यूटर सिमुलेशन में प्लेन को आईएसएस की ऊंचाई से उसी की गति 7800 मीटर/सेकंड से छोड़ा. धरती से 400 किलोमीटर की ऊंचाई पर वायुमंडल बहुत घना नहीं होता. यहां तकरीबन निर्वात (Vacuum) की स्थिति होती है. इसलिए प्लेन को बहुत नुकसान नहीं पहुंचा. धरती की ओर बढ़ता कागज का प्लेन ज्यादातर समय तक स्थिर ही रहा, लेकिन उसकी स्पीड काफी कम रही. इतनी ज्यादा कम कि 400 किमी दूर से 120 किमी दूर तक आने में उसे साढ़े 3 दिन लग गए.

सिमुलेशन में आगे दिखा कि लगभग 120 किमी की ऊंचाई के बाद से हवा का घनत्व बढ़ने लगा. इससे कागज का प्लेन बेकाबू होकर लुढ़कने लगता है और उसका रास्ता भी अनिश्चित हो जाता है. 

धरती के वायुमंडल में घुसने के बाद प्लेन के साथ क्या होता है? 

यह जानने के लिए प्रोफेसरों ने यूनिवर्सिटी के बहुत ताकतवर हवा वाली सुरंग यानी हाइपरसोनिक विंड टनल में लेकर गए. उन्होंने प्लेन पर एल्युमिनियम की पूंछ लगा दी और इस पर मैक-7 यानी ध्वनि की गति से 7 गुना तेज रफ्तार की हवा 7 सेकंड तक छोड़ी. धरती के वातावरण में वापसी के वक्त इतनी ही तेज हवा प्लेन के रास्ते में मिलती है.

इसका नतीजा क्या हुआ?

हुआ ये कि प्लेन का अगला हिस्सा थोड़ा मुड़ गया लेकिन वो पूरी तरह से टूटा नहीं. उसके नोज (Nose) का हिस्सा और किनारे जलने लगे थे. मतलब साफ है. अगर ज्यादा देर तक प्लेन इसी तरह हवा में रहता तो पक्का जलकर राख हो जाता. आज तक स्पेस से कागज का ऐसा कोई प्लेन धरती की ओर नहीं छोड़ा गया है. लेकिन इस एक्सपेरिमेंट ने ऐसी किसी घटना की एक झलक वैज्ञानिकों के सामने रखी है.

क्या हासिल करना चाहते हैं वैज्ञानिक?

ये एक्सपेरिमेंट किसी मस्ती के लिए नहीं किया गया. इसके पीछे एक खास मकसद था. अंतरिक्ष में कई स्पेस मिशन के मलबे भी चक्कर काट रहे हैं. ये डेड सैटेलाइट्स और रॉकेट्स के टुकड़े हैं, जो किसी मिशन पर भेजे गए थे. इनकी मात्रा बढ़ने पर सैटेलाइट्स और स्पेसक्राफ्ट्स के लिए खतरा पैदा हो सकता है. ऐसे में वैज्ञानिक इस प्रयोग के जरिए ये जानना चाहते थे कि क्या कागज जैसी हल्की चीजों से सेटेलाइट्स या रॉकेट्स बनाए जा सकते हैं, जो स्पेस में जाएं.

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