राजस्थान में सरकारी डॉक्टरों की कुछ मांगें हैं सेवा शर्तों से जुड़ी. दो पाली (शिफ्ट) को एक पाली करना, अलग से मेडिकल काडर खड़ा करना. वगैरह. इस वगैरह में वो सारी चीज़ें हैं, जो हम न आसानी से समझा पाएंगे, न आप समझ पाएंगे. मेडिकल कॉलेज की रीढ़ समझे जाने वाले रेज़िडेंट डॉक्टरों की भी मांगें हैं. गहलोत के ज़माने से लंबित ये मांगें पूरी नहीं हो रही थीं, तो डॉक्टर वसुंधरा सरकार को झुकाने के लिए हड़ताल पर जाने वाले थे. सरकार ने ऑल राजस्थान इन सर्विस डॉक्टर्स असोसिएशन (ARISDA) के पदाधिकारियों का यहां-वहां ट्रांसफर करना शुरू किया और हड़ताल को तोड़ने के लिए पूरे राजस्थान से सरकारी डॉक्टरों को गिरफ्तार करना शुरू किया. तो सरकारी डॉक्टर जो हड़ताल 18 दिसंबर से शुरू करते, वो 15 दिसंबर से शुरू हो गई. मेडिकल कॉलेज के रेज़िडेंट डॉक्टर हड़ताल में शामिल हो गए, तो राजस्थान में मरीज़ों के पास जाने के लिए कोई दर बचा नहीं. मरीज़ परेशान हैं. हर रोज़ राजस्थान में कोई औरत डिलिवरी के वक्त मर रही है, क्योंकि इलाज के लिए डॉक्टर नहीं हैं.- जो हाशिए पर हैं, उनकी तकलीफ भी हाशिए पर रहती है -
ये राजस्थान में स्वास्थ्य सेवाओं के लड़खड़ाने पर क्रैश कोर्स था. आप तीन कीवर्ड नोट कर पाए होंगे 'राजस्थान सरकार', 'डॉक्टर' और 'मरीज़'. इन्हीं पर स्टोरी हो सकती है. हम राजस्थान में डॉक्टरों की हड़ताल के संदर्भ में एक चौथा कीवर्ड आपके मानस पर चस्पा करना चाहते हैं - 'रेहड़ी'. इसके 'क्या?', 'क्यों?', 'कैसे?' के लिए ये ग्राउंड रिपोर्ट पढ़िए.

एसएमएस अस्पताल आने वाले मरीज़ों को वापस ले जाने वाली निजी एंबुलेंस बिना काम के खड़ी हैं. लेकिन किस्त का मीटर चल रहा है. (फोटोः निखिल / दी लल्लनटॉप)
राजस्थान का सबसे बड़ा अस्पताल है जयपुर का सवाई मान सिंह अस्पताल. इसके बाहर कई रेहड़ियां लगती हैं. डॉक्टर नहीं हैं तो मरीज़ और उनके परिजन भी नहीं हैं. किसी प्राइवेट अस्पताल जाने लायक पैसे न जुटा पाने वाले ये मरीज़ और उनके सगे-संबंधी दवाओं से बचने वाला पैसा इन रेहड़ियों पर ही खर्च करते हैं. चाय पीते हैं, छोले कुलचे खाते हैं और कभी-कभी पैसे बच जाएं (या डॉक्टर कह दें तो) फ्रूट चाट खा लेते हैं. पहली चीज़ का संबंध तलब से है, दूसरी का भूख से और तीसरी का सेहत से. अस्पताल आने वालों की ये तीन बड़ी ज़रूरत पूरी करने वाली इन रेहड़ियों के मालिक इन दिनों अपनी ज़रूरतें पूरी नहीं कर पा रहे हैं. यही हाल अस्पताल के बाहर खड़े उन तमाम निजी एंबुलेंस चालकों का भी है, जिन्हें ट्रिप नहीं मिल रही.
अपनी एंबुलेंस के करीब जमा ड्राइवर अपनी बातों में मगन नज़र आते हैं. पूछने पर कि हड़ताल से क्या नुकसान हुआ, पहले पलटकर पूछते हैं कि कहां छापोगे. मैं समझाता हूं कि नेट पर दिखेगा, तुम्हारे फोन पर. तो प्रद्युम्न मीणा बताना शुरू करते हैं,
''108 (एंबुलेंस) का काम है मरीज़ को यहां तक लाना. जब उसे वापस जाना होता है या दूसरे अस्पताल जाना होता है, वो हमारी गाड़ी किराए पर लेता है. डॉक्टर हड़ताल पर हैं तो मरीज़ आ नहीं रहा. आ नहीं रहा तो लौट भी नहीं रहा. इतने दिन हो गए एक ट्रिप मिले. क्या खाऊं, क्या खिलाऊं और कैसे इस गाड़ी की किस्त भरूं.''

मुकेश मीणा की एंबुलेंस भी किस्त पर है. इस बार वो किस्त नहीं भर पाएंगे. (फोटोः निखिल / दी लल्लनटॉप)
अपनी तकलीफ के बारे में बताते हुए कम होता है कि आप किसी और की तकलीफ के बारे में बात करने लगें. लेकिन मुकेश मीणा के पास ये धीरज था. उन्होंने मुझे पास बुलाकर कहा,
''आप एक बात बताओ, कोई बात हो, झगड़ा-झांसा हो, उसकी मीटिंग आज नहीं कल कभी भी हो सकती है. लेकिन बीमारी किसी की राह देखती है क्या. वो तो आ जाती है. इलाज नहीं मिलता तो लोग मर जाते हैं. डॉक्टरों ने हड़ताल पर जाकर ठीक नहीं किया. मैं अभी एक केस यूपी के बरेली में छोड़कर आ रहा हूं. औरत थी. यहां 3 दिन रुकी. इलाज नहीं मिला तो वापस बरेली के लिए निकली. आधे रास्ते में मर गई.''

मनोज की परांठे की दुकान पर अब आधा आटा ही खप पा रहा है. (फोटोः निखिल / दी लल्लनटॉप)
आप एंबुलेंस छोड़कर आगे बढ़ने लगते हैं, तो मुकेश का ''आधे रास्ते में मर गई'' आपके साथ चलने लगता है. ड्राइवरों के अड्डे के पास ही छोले कुलचे की एक रेहड़ी है. मनोज 7-8 साल से ये रेहड़ी लगा रहे हैं. कुलचों के साथ परांठे भी बनाते हैं. हड़ताल के चलते मरीज़ नहीं हैं, तो पहले से आधा आटा भी नहीं इस्तेमाल कर पा रहे. कमाई नहीं हो रही थी. लेकिन उनकी प्राथमिकता फिर भी यही थी कि हम जो भी छापें उस से नगर निगम वाले बुरा न मान जाएं, वरना उनकी रेहड़ी उठ जाएगी.
लेकिन बगल में चाय की दुकान पर काम करने वाले सुरेश को ऐसा कोई डर फिलहाल नहीं है. मनोज बंगाल से आए हैं. कोठपुतली के समसुरान यादव की चाय की दुकान पर नौकरी करने. नौकर और मालिक दोनों नुकसान के बारे में बताते हैं. नौकर दूध के पैकेट गिनकर कहता है कि अभी तक 36 पैकेट निकल जाते अगर हड़ताल न होती. आज अभी तक 5 पैकेट निकला है. फिर मालिक यही गणित दूध की मात्रा से समझाता है.

सुरेश बंगाल से हैं. चाय की दुकान पर काम करने जयपुर आए हैं. (फोटोः निखिल / दी लल्लनटॉप)
मालिक नौकर की कुछ ऐसी ही दिलचस्प बात हमें एसएमएस के गेट के ऐन आगे लगने वाली फ्रूट चाट की रेहड़ी पर भी मिली. जब हम यहां पहुंचे तो ओमकार यादव पपीते के छोटे-छोटे टुकड़े कर रहे थे. हमने पूछा कि हड़ताल से क्या नुकसान हुआ है तो ओमकार यादव ने बताया,
''1000-1500 का माल रोज़ बेच देते थे. अब 300-350 तक भी नहीं जा रहा. सबको ताज़े फल चाहिए. लेकिन हमें दुकान में सजाने के लिए कुछ फल तो काटकर रखने ही पड़ते हैं. वो लगातार न बिकें तो खराब हो जाते हैं. फिर गाय को डालना पड़ता है. बाकी नुकसान का आप मालिक से पूछो.''मालिक से पूछो. जितना बड़ा फ्रूट चाट का वो स्टॉल था, उसने इस सवाल को ज़रूरी बना दिया कि इतनी छोटी दुकान पर भी नौकरी करने कोई यूपी से राजस्थान किन मजबूरियों में आता होगा. दुकान के मालिक ने हमारे सवालों के जवाब में यहां लिखने लायक बस इतना कहा कि नुकसान हो रहा है. बाकी सब गालियां थीं. वो हम यहां नहीं लिख रहे.

ओमकार को दिहाड़ी मिलनी बंद हो गई है. क्योंकि राजस्थान में सरकारी डॉक्टरों की हड़ताल है. (फोटोः निखिल / दी लल्लनटॉप)
बातचीत में मालिक और नौकर शब्द आने से एक शब्द हमारे दिमाग में कौंधा - दिहाड़ी. हमने ओमकार से पूछ लिया कि दिहाड़ी कितनी मिलती है,
''350 रुपए रोज़.''हमने फ्रूट चाट की बिक्री का आंकड़ा याद किया. और ओमकार से धीरे से पूछ लिया,
''मिल रहे हैं अभी भी?''ओमकार ने धीरे से ही जवाब दिया,
''नहीं, सब रुका हुआ है.''ऐसी ही कहानियां हमें नमकीन वाली रेहड़ी पर भी सुनने को मिलीं. एसएमएस के बाहर दिनभर से खड़े और कुल दो सवारियों को छोड़कर आए ऑटो वाले ने कमोबेश यही कहा. एक बयान थोड़ा अलहदा था. हम आपको उसी के साथ छोड़कर जाएंगे.

एसएमएस के भरोसे सवारियां उठाने वाले ऑटो चालक भी डॉक्टरों की हड़ताल से उतने ही परेशान हैं जितने मरीज़.
एसएमएस अस्पताल का ट्रॉमा सेंटर और इमरजेंसी के बीच से एक सड़क है जिस पर से शहर का ट्रैफिक गुज़रता है. एम्बुलेंस इन दोनों जगह शहर के ट्रैफिक से बचते हुए पहुंच सकें, इसके लिए इन दोनों इमारतों के बीच एक सबवे बन रहा है. साइट पर 'जल्दबाज़ी नहीं' टाइप के बोर्ड लगे हुए हैं जो आपको आगाह करते हैं. ऐसे ही एक बोर्ड की ओट में हमें एक दुकान दिखी. हरियाणा के अलिपुर से आने वाले मूलचंद यादव की दुकान. मूलचंद दुकान में अंदर की तरफ मुंह कर के खाना खा रहे थे. हमारे सवालों के जवाब उन्होंने दिए, लेकिन उन सबका हमें पास खड़े एक सज्जन से अनुवाद कराना पड़ा. क्योंकि कुछ चीज़ें हमारी समझ में नहीं आ रही थीं.
अनुवाद कुछ यूं था,
''इनकी दूध, बिस्किट, चॉकलेट वगैरह की दुकान है. रात को दुकान बंद कर के दुकान में ही सोते हैं ये. लेकिन अब घर जा रहे हैं''क्यों?
''यहां घर नहीं है. सब खरीद कर खाना है. दुकान पर रहते हैं तो 100 रुपया रोज़ का खर्चा हो ही जाता है. चाय, नाश्ता, खाना. घर जाएंगे तो इतना तो बचेगा.''

मूलचंद हड़ताल की मार से परेशान होकर हरियाणा में अपने घर लौट गए हैं. (फोटोःनिखिल / दी लल्लनटॉप)
घर पर कौन है?
''मां है, बाप है....''इससे आगे के बयान पर ध्यान नहीं गया. क्योंकि ये सोचने लगे कि इस उमर में भी मुसीबत में व्यक्ति अपनी मां के पास ही जाना चाहता है.
अब हम आगे बढ़ना चाहते थे. सौजन्य बनाए रखने के लिए कह दिया कि अच्छा जी, देखकर आते हैं कि दवाखाने का क्या हाल है. मूलचंद ने तब एक आखिरी बात कही,
''क्या देखेंगे वहां जाकर, लोग आ रहे हैं, लोग मर रहे हैं.''हमें इस लाइन के अनुवाद की ज़रूरत नहीं पड़ी.
राजस्थान में सरकारी डॉक्टरों की हड़ताल पर ग्राउंड रिपोर्ट यहां क्लिक कर के पढ़ेंः
ग्राउंड रिपोर्टः राजस्थान में सरकारी डॉक्टरों की हड़ताल के चलते खाली हुए एक दवाखाने का हाल