अब तक हमने चार रिपोर्ट कार्ड पेश किये - रक्षा, विदेश नीति, वित्त और गृह मामलों पर मोदी सरकार के काम की समीक्षा की. आज अपने आखिरी ईयर एंडर में हम उन बहसों का ज़िक्र करेंगे, जिनके इर्द गिर्द इस साल विमर्श गढ़ा गया. इस साल वो कौनसे विषय थे, जिनपर समाज सहमत और असहमत हुआ. और इस बहस के नतीजे में हम कहां पहुंचे.
सुप्रीम कोर्ट- मोदी सरकार का झगड़ा और अपराध में हिंदू मुस्लिम, क्या हम 2023 में बदलेंगे?
हिजाब विवाद से लेकर फिल्मों तक देश में कौन से विषय चर्चा के मुद्दे बने?

हिजाब विवाद
पहली बड़ी बहस हुई कर्नाटक के स्कूलों में हिजाब पर. दिसंबर 2021 में कर्नाटक के उडुपी के PU governmet collage में हिजाब पहनने पर विवाद शुरू हुआ था. सरकार ने कहा, क्लास के भीतर हिजाब नहीं पहना जा सकता. और छात्राओं ने कहा, हम तो पहले से पहनते आ रहे हैं. यूनिफॉर्मिटी को लेकर बहस शुरू हुई. 1 जनवरी को हिजाब ना पहनने के विधिवत आदेश के बाद धीरे-धीरे विवाद बढ़कर आस-पास के बाकी जिलों में पहुंच गया. बेलगावी, बगलकोट, चिकमंगलूर, शिवमोगा, हासन, यादगीर, कोडागू, मांड्या, हावेरी और गुलबर्गा जैसे आस-पास के जिलों में भी प्रदर्शन हुए.
बात सिर्फ कर्नाटक तक सीमित नहीं रही. एक कॉलेज से उठी बात संसद तक पहुंच गई. स्कूल को धर्म से अलग कर देखने की बहस शुरू हो गई. धीरे-धीरे मामला ''पैन इंडिया'' होता चला गया. कोलकाता की सड़कों पर हिजाब के समर्थन में प्रोटेस्ट हुए. महाराष्ट्र के औरंगाबाद, मध्य प्रदेश के भोपाल, तेलंगाना के हैदराबाद जैसी जगहों से भी प्रदर्शन की तस्वीरें आने लगी.सोशल मीडिया पर भी गुत्थम-गुत्था शुरू हुई. और मामला कर्नाटक हाईकोर्ट में भी गया. सरकार ने पक्ष रखा कि स्कूल ड्रेस सब के लिए एक समान होनी चाहिए. लंबी बहस के बाद फैसला राज्य सरकार के पक्ष में आया. कर्नाटक के स्कूलों में हिजाब पर बैन लग गया.
हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर दी गई. अलग-अलग तारीखों पर 10 दिन लंबी जिरह हुई. 7 सितंबर को दो जजों की बेंच ने मामले को सुनना शुरू किया. केस को आइशत शिफा versus State of Karnataka नाम से जाना गया. 13 अक्टूबर को जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस सुधांशु धूलिया ने फैसला सुनाया.
फैसले में दोनों जज एकमत नहीं थे. दोनों जजों ने अलग-अलग फैसला सुनाया. जस्टिस हेमंत गुप्ता ने कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले को सही माना, जबकि जस्टिस सुधांशु धूलिया, हिजाब बैन के खिलाफ खड़े हो गए. जस्टिस धूलिया की फैसले में एक अहम टिप्पणी में कहा,
''मैंने इस मुद्दे को कुछ अलग तरीके से देखा है. ये एसेंशियल रिलीजियस प्रैक्टिस है या नहीं, उस मुद्दे पर जाने की जरूरत नहीं थी, कर्नाटक हाईकोर्ट ने गलत रास्ता अपनाया. ये अंततः अनुच्छेद 14 और 19 के तहत पसंद का मामला है. It is a matter of choice, nothing more and nothing less. मतलब ये कि ये पंसद का मामला है, इससे ज्यादा कुछ नहीं, इससे कम कुछ नहीं.''
जबकि जस्टिस गुप्ता ने कहा था-
''भारत जैसे लोकतांत्रिक देश, जिसमें कई धर्म शामिल हैं, वहां क्षेत्र,आस्था, भाषा, भोजन और वस्त्र, की अनेक अवधारणाएं हैं. हमारे संविधान के तहत अपनाई गई धर्म निरपेक्षता को अलग तरह से समझना होगा. धर्म, राज्य की किसी भी धर्मनिरपेक्ष गतिविधि के साथ जुड़ा नहीं हो सकता. धर्मनिरपेक्ष गतिविधियों में धर्म का अतिक्रमण स्वीकार्य नहीं है. इस प्रकार धर्म निरपेक्षता का अर्थ है कि सभी धर्मों के साथ समान रूप से व्यवहार करना उचित होगा.''
जिस तरह से मसले पर समाज का मत बंटा हुआ था, वैसे ही जजों के मत भी भिन्न रहे. अब 3 जजों की बेंच आने वाले साल में नए सिरे से शुनवाई करेगी. मतलब ये कि 2021 में शुरू हुआ विवाद, 2022 से होता हुआ, 2023 में भी जाएगा.
सिनेमा
अब बातचीत की धारा को थोड़ा मोड़ते हैं. हम जितनी कलाएं जानते हैं, उनका सबसे जीवंत इस्तेमाल होता है सिनेमा में. 2022 में भारतीय सिनेमा ने कौनसी कहानियां सुनाईं और उनसे क्या चर्चा शुरू हुई? आइए जानते हैं. हम साफ कर दें कि ये किसी तरह का काउंटडाउन नहीं है. और न ही हम सिनेमाई उत्कृष्टता पर टिप्पणी कर रहे हैं. हम बस उन कुछ फिल्मों का ज़िक्र कर रहे हैं, जिनके इर्द गिर्द कुछ नई और पुरानी बहसों ने आकार लिया.
कांताराकिसी ने नहीं सोचा था, कि ऋषभ शेट्टी नाम का कोई कन्नडा डायरेक्टर महज़ 16 करोड़ में एक ऐसी फिल्म बना देगा जो भारत में इस साल की सबसे बड़ी फिल्मों में से एक बन जाएगी. कांतारा को छोड़कर जितनी बड़ी फिल्में इस बरस आईं, उन सबको लेकर राय बंटी रही. किसी को बाज़ार ने पसंद नहीं किया, तो किसी को आलोचकों ने. लोक देवताओं और आदिवासी प्रथाओं को एक रूपक तौर पर इस्तेमाल करने वाली कांतारा कई गंभीर प्रश्न उठाती है. कि जंगल और ज़मीन का मालिक वास्तव में है कौन -
>वो, जो ज़मीन पर ऐतिहासिक दावा ठोंकते हैं - माने ज़मीनदार?
>देश, और इस नाते जंगल की पालक सरकार?
>या फिर वो आम लोग, जो लाखों सालों से जंगल में रहते आ रहे हैं?
कांतारा हमें बताती है कि जंगल और ज़मीन इन तीनों में से किसी की नहीं है. हम सबके पास कुछ वक्त के लिए इनकी ज़िम्मेदारी आती है. जिसे हमें निभाना है. बदले में हमें जीवन यापन के साधन मिलेंगे. लेकिन इसका मतलब ये नहीं, कि हम मालिक होने का दंभ भरने लगें. अगर हम इस नियम की अनदेखी करेंगे, तो न्याय को पुनः स्थापित करने के लिए दोषियों को दंड मिलेगा. यही दंड कांतारा में लोक देवताओं के माध्यम से दिया जाता है. जल-जंगल-ज़मीन की लड़ाई का हमारे यहां एक लंबा इतिहास रहा है. कांतारा उसे अपने तरीके से पर्दे पर उतारती है.
क्लीशे होने की शर्त पर हम कहना चाहते हैं, कि कांतारा एक proper main stream फिल्म है. इसीलिए उसमें वो खामियां भी हैं, जिनकी चर्चा हमारी सिनेमा टीम अपने काम में करती रहती है.
RRRइस फिल्म में वो सब था जिसके लिए ''बाहुबली'' फेम एस एस राजामौली मशहूर हैं - बड़ा कैनवस और शानदार एक्शन सीन और विज़ुअल इफेक्ट्स. लेकिन RRR ने नए विषय पर चर्चा भी पैदा की - कि भारत को स्वतंत्रता कैसे मिली - अहिंसक सत्याग्रह या फिर हिंसक विद्रोह. अंग्रेज़ शासन की मुखालफत इन दोनों ही तरीकों से हुई. सत्याग्रह के नायकों - मसलन महात्मा गांधी का काम बहुत अच्छी तरह से डॉक्यूमेंट किया गया है. फिल्में भी बनी हैं. फिल्में हिंसक विद्रोह के नायकों पर भी बनी हैं - मसलन सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह, अशफाकुल्ला खान आदि. हम क्रांति की कहानियों से प्रभावित तो बहुत होते हैं, लेकिन जाने-अनजाने अहिंसक सत्याग्रह को प्रधान भी मान लेते हैं. इस मत को अब चुनौती मिल रही है.
इसी संदर्भ में हमने RRR का ज़िक्र भी किया है. फिल्म क्रांतिकारी अल्लुरी सीताराम राजू और कोमाराम भीम का काल्पनिक चित्रण करती है. ये दोनों असल क्रांतिकारी थे, जो आज के तेलंगाना और आंध्रप्रदेश में हुए थे. जब इनका चित्रण काल्पनिक है, तो सिनेमाई छूट भी ली गई है. लेकिन स्टोरी टेलिंग पर राजामौली की पकड़ आपको स्क्रीन से नज़र हटाने नहीं देती. बात चर्चा की हो रही है, तो इस बात का भी ज़िक्र कर दें कि RRR स्वतंत्रता संग्राम के सारे नायकों को ट्रिब्यूट देती है और इसमें अहिंसक सत्याग्रह को मानने वाले भी थे और क्रांति के समर्थक भी. सरदार पटेल भी थे और भगत सिंह भी. पर गांधी नहीं थे. जो अपने आप में एक स्टेटमेंट है. ये अलग से बताने की ज़रूरत नहीं, कि गांधी को खारिज करने के कितने प्रयास कितने स्तरों पर चल रहे हैं. इसीलिए हमने अलग से इस बात का ज़िक्र किया.
द कश्मीर फाइल्सकश्मीर फाइल्स पर बहुत बहस हुई है. और उस बहस के सारे पक्षों के बारे में हमने अपने दर्शकों को बताया भी है. कश्मीर फाइल्स का दावा था कि वो कश्मीरी हिंदुओं के विस्थापन की पीड़ा को दिखाना चाहती है. इस बात से सभी सहमत हैं कि फिल्म ने जितनी घटनाओं को दिखाया, वो वास्तव में घटी थीं. और कुछ घटनाएं तो उससे भी वीभत्स थीं, जैसा चित्रण फिल्म में हुआ. लेकिन इन घटनाओं से जो कथानक बुना गया, उसका असर क्या होता है? क्या वो अन्याय को दर्ज कर न्याय की मांग के लिए एक माहौल तैयार करता है? या फिर पीड़ाओं को दोहन करके एक ऐसा प्रॉडक्ट बनाता है, जिसमें निर्माता को मुनाफा मिला और समाज को नफरत?
इन सवालों पर साल भर बहस चलती रही. और सही जवाब किसी के पास नहीं है. इसीलिए 'द कश्मीर फाइल्स' इस साल की सबसे पोलराइज़िंग फिल्म है. जिसे चाहने वालों और नफरत करने वालों की संख्या बराबर है.
झुंडअगली फिल्म है झुंड. नागराज मंजुले की इस फिल्म में सामाजिक कार्यकर्ता विजय बारसे और दलित उत्थान के एक अभिनव प्रयोग की कहानी दिखाती है - स्लम सॉकर. विजय बारसे ने नागपुर की बस्तियों में रहने वाले दलित युवाओं को फुटबॉलर बनाया, उन्हें स्वीकार्यता दिलाई. झुंड में हम युवाओं को आंबेडकर जयंती पर नाचते देखते हैं. अपने नायक के जन्मदिन को त्योहार की तरह मनाना बहुत आम बात है. लेकिन आंबेडकर जयंती के जुलूस या जश्न ''झुंड'' से पहले डॉक्यूमेंट्रीज़ में ही ज़्यादातर देखे गए थे. उन चीज़ों को मेनस्ट्रीम सिनेमा में दिखाना, झुंड का हासिल है. झुंड के बहाने इस बात पर भी चर्चा हुई कि दलित उत्थान या महिला उत्थान के नायक कौन होंगे? जो उसी समूह से आते हैं, या जो उस समूह से सहानुभूति रखते हैं, उनके साथ काम करना चाहते हैं.
बधाई दो और मट्टो की साइकिलचलते चलते हम दो और फिल्मों का ज़िक्र करना चाहते हैं - जिनपर देश भर में चर्चा तो नहीं हुई, लेकिन उन्होंने ज़रूरी दखल किए. पहली फिल्म थी ''बधाई दो.'' दुनिया के हर क्षेत्र में अपनी महारथ साबित करता जा रहा भारत अब भी इस बात को स्वीकार नहीं कर पाया है कि यौन पसंद एक अधिकार ही है. लेकिन समाज और कानून सेम सेक्स मैरिज को मान्यता नहीं देते. नतीजे में राजकुमार राव और भूमि पेडनेकर को एक नकली शादी करनी पड़ती है. हम में से कई ने इस फिल्म में कॉमेडी को खोजा. लेकिन हम उस पीड़ा को नहीं समझ पाए, जो अपने प्रेमी और अपने साथी से दूर होने पर होती है.
दूसरी फिल्म है एम. ग़नी की मट्टो की साइकिल. बड़े दिनों बाद भारत में सिनेमा के पर्दे पर एक मज़दूर को जगह मिली. इस विटोरियो डी सिका की महान फिल्म बाइसिकल थीफ की परंपरा की फिल्म कहा गया. मौका मिले, तो आप भी ये फिल्म देखिये और सोचिए कि इस फिल्म पर इस साल बात क्यों नहीं हुई.
न्यायपालिका बनाम सरकार
सिनेमा की दुनिया से अब चलते हैं उस मैदान की तरफ, जहां रेफरी और खिलाड़ी के बीच लड़ाई खत्म होने का नाम नहीं ले रही है. ये भी तय नहीं हो पा रहा है कि कौन खिलाड़ी है और कौन रेफरी. या फिर ये, कि रेफरी ज़्यादा ताकतवर है या फिर खिलाड़ी? हम सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच मचे घमासान की बात कर रहे हैं.
आपने प्रायः ऐसी खबरें सुनी, पढ़ी या देखी होंगी, जिनमें बताया होता है --
सरकार को पड़ी सुप्रीम कोर्ट की डांट!
सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को लताड़ा!
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लेकिन इस साल हेडलाइन्स कुछ बदल गईं. सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच बहस का ज़िक्र हुआ. अगर आपने सोशल स्टडीज़ की किताब को थोड़े भी ध्यान से पढ़ा होगा, तो आपको याद होगा कि ये वैसा ही था, जैसा ''द डार्क नाइट'' में बताया गया है. फिल्म में दो ऐसे पात्रों का टकराव होता है, जो बराबर की ताकत रखते हैं. एक unstopable force है, और दूसरा immovable object. नतीजा - संघर्ष और गतिरोध. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति कैसे हो, ये बहस 40 साल पुरानी है. 2014 से लेकर 2015 में ये बहस एक बार फिर हुई, जब मोदी सरकार ने नेशनल ज्यूडीशियल अपॉइंटमेंट्स कमीशन NJAC के लिए संविधान संशोधन किया और इसे अगले साल सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक बताते हुए पलट दिया.
इसके बाद से इस मोर्चे पर शांति थी. इसीलिए जब अक्टूबर 2022 में अचानक जजों की नियुक्ति पर कानून मंत्री किरेण रिजिजू सवाल उठाने लगे, तो सभी को हैरत हुई. क्या इसका संबंध जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ के CJI पद की ओर अग्रसर होने से था? इस सवाल का जवाब टिप्पणीकार मुस्कान के साथ ''इसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा'' कहकर देते हैं.
खैर, कानून मंत्री तो नेता हैं, बयान देंगे ही. आश्चर्य तब भी जताया गया जब उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़, राज्यसभा के पदेन सभापति की हैसियत से पहले दिन संसद पहुंचे और अपने पहले भाषण में ही NJAC कानून पलटने को लेकर सख्त टिप्पणी कर दी.
चारों ओर से हमला हुआ, तो न्यायपालिका भी हरकत में आई. जज साहिबान बयान तो जारी कर नहीं सकते. इसीलिए उन्होंने सरकार के वकीलों के सामने अपनी बात रखी. वो भी संकेतों में. जजों की नियुक्ति से जुड़े एक मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस संजय कौल ने भारत सरकार के सबसे बड़े वकील अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी से कहा,
''ऐसा नहीं होना चाहिए था. मिस्टर अटॉर्नी जनरल, हमने तमाम मीडिया रिपोर्ट्स को अनदेखा किया, लेकिन ये टिप्पणी एक ऊंचे पद पर आसीन शख्स की ओर से आई है. हम इससे ज़्यादा कुछ नहीं कहना चाहते.''
इस सब के बाद वरिष्ठ वकील हरीष साल्वे, जो कई बार सुप्रीम कोर्ट में सरकार की तरफ से पेश हो चुके हैं, उन्होंने भी कह दिया था कि रिजिजू को लक्ष्मण रेखा का सम्मान करना चाहिए था. इस बहस को सिर्फ न्यायपालिका पर हो रहे हमलों की तरह देखना गलत होगा. कोलेजियम एक ऐसी व्यवस्था है, जिसे सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का संरक्षण मिला हुआ है. माने ये देश के कानून की तरह ही है. लेकिन इस व्यवस्था की आलोचना तो की ही जा सकती है. कोलेजियम सिस्टम में जज ही जजों की नियुक्ति के लगभग सारे अधिकार रखते हैं. लेकिन इसके लिए कोई जवाबदेही तय नहीं की जा सकती. ये सभी मानते हैं कि कोलेजियम में अवश्य सुधार होने चाहिए. लेकिन जिस तरह लगातार सुप्रीम कोर्ट को लेकर सार्वजनिक बयान आ रहे हैं, उसने कोलेजियम के आलोचकों को भी उसके पक्ष में खड़ा कर दिया है. ऐसे में ज़रूरी है कि साफ नीयत के साथ एक स्वस्थ माहौल में चर्चा हो. क्योंकि हमारे देश को एक ऐसी सरकार और ऐसी न्यायपालिका की आवश्यकता है, जिनके बीच खेल के नियम तय हों. ताकि आम जन देख सकें कि संवैधानिक संस्थाएं वो काम कर रही हैं कि नहीं, जिनकी ज़िम्मेदारी उन्हें संविधान निर्माताओं ने दी थी.
क्राइम
हम अभी अदालतों की बात कर रहे थे. अदालतों का काम है सही और गलत का फैसला करना. और जो गलत मिला, उसे सज़ा सुनाना. लेकिन इस साल ये काम हमने अपने हाथ में ले लिया. जी हां. हमने. इस बात में स्क्रीन के दोनों तरफ मौजूद लोगों की बात हो रही है. और दुख की बात ये है कि हमने ये फैसला धर्म के आधार पर लिया. जिस आधार पर इस देश का बंटवारा एक बार हो चुका, उसी आधार पर हम इसे एक बार और बांटने पर तुले हुए हैं. हम क्या कह रहे हैं, आपको अभी समझ आ जाएगा.
आफताब नाम के लड़के ने अपनी प्रेमिका श्रद्धा की हत्या कर 35 टुकड़े कर दिए. जघन्य और अक्षम्य अपराध है. कठोर से कठोर सजा होनी चाहिए. मगर आपको नहीं लगता कि इस खबर के सहारे दो धर्मों के बीच खाई को चौड़ा करने का प्रयास किया गया? बार-बार ह्वाट्सऐप ग्रुप में ऐसे मैसेज भेजे गए, जो धर्म विशेष के खिलाफ नफरत का प्रचार करते थे. एक क्रूर गुनाह को गुनाह की तरह ना देख कर धर्म के चश्मे से देखा गया.
अगर ऐसा नहीं था, तो बताइए -
>यूपी के आजमगढ़ में एक युवक ने आराधना नाम की लड़की की सिर्फ इसलिए हत्या की क्योंकि किसी और शादी कर ली. इसके बाद आरोपी लड़के ने शव के टुकड़े-टुकड़े कर दिए. क्या आप उस आरोपी का नाम जानते हैं? नाम है प्रिंस यादव.
>दिल्ली के पांडवनगर में अंजन दास को नशे की गोली खिलाकर हत्या की गई. शव के टुकड़े कर फ्रीज में रख दिया गया. क्या आपको इस केस बारे में पता है? आरोपी उनका बेटा दीपक और पत्नी पूनम है. मगर ये नाम आपको नहीं याद होंगे. क्योंकि इस केस उतनी तरजीह नहीं दी गई. वजह आप खुद सोचिए.
>नवंबर महीने में पश्चिम बंगाल के बरूईपुर में इंडियन नेवी के पूर्व अधिकारी उज्जवल चक्रवर्ती की हत्या हुई. शव को कई टुकड़े कर तालाब और जंगल में ठिकाने लगा दिया गया. क्या आप आरोपी का नाम जानते हैं ? उनकी पत्नी और बेटे ने ही हत्या को अंजाम दिया.
मगर आपके व्हाट्सऐप पर ये खबर शायद नहीं आई होगी, ना ही टीवी चैनलों पर घंटों की कवरेज हुई. 11 दिसंबर को जयपुर की 64 साल की एक महिला की हत्या हुई, मार्बल कटर से शव के टुकड़े किए गए. ना तो आपको आरोपी का नाम पता होगा, ना तो ये केस. क्योंकि यहां आरोपी मुस्लिम नहीं था. आरोपी उनका भतीजा अनुज है. ये उदारहण हमने इसलिए दिए क्योंकि आप सिर्फ खबर देखते हैं, किस खबर को किस मकसद से परोसा जाता है, उसकी नीयत को शायद नहीं देख पाते.
हम ये कहते हैं कि अपराधी कोई भी हो, उसे सजा भुगतनी ही होगी. मगर धर्म कर अपराध की चर्चा करना, अपराध को उस धर्म से नत्थी कर देना, कहां से सही हो सकता है? अपराधी हिंदू हो या मुस्लिम या फिर किसी और धर्म का सबके लिए IPC के कानून में एक सी धाराएं है. जब कानून भेद नहीं करता तो हम-आप ऐसा करने वाले कौन होते हैं.