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इस देश में 17 लाख लोग एक साथ प्रोटेस्ट क्यों कर रहे हैं?

सरकार ख़तरे में आ गई है.

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सरकार ख़तरे में आ गई है.

सोशल मीडिया में फ़्रांस की संसद के निचले सदन नेशनल असेंबली के अंदर का एक वीडियो वायरल है. इसमें विपक्षी सांसद, फ़्रांस की प्रधानमंत्री एलिज़ाबेथ बॉन को हूट करते दिख रहे हैं. हूट करने के बाद वे फ़्रांस का राष्ट्रगान ‘ला मार्सियेज़’ गाते हैं. मगर इससे प्रधानमंत्री को कोई फर्क़ नहीं पड़ता. वो संविधान से मिली विशेष शक्ति का इस्तेमाल कर पेंशन रिफ़ॉर्म बिल को आगे बढ़ा देती हैं. और, इसी के साथ महीनों से उबल रहा फ़्रांस और बिफर उठा है. देश के कई बड़े शहरों में जनता सड़कों पर उतर आई है. संसद के अंदर और बाहर बवाल मचा है. सत्ताधारी पार्टी और विपक्ष, दोनों तरफ़ के नेता बिल का विरोध कर रहे हैं. राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों इसे ज़रूरी बताकर लोगों का गुस्सा टालने की कोशिश में जुटे हैं. हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि पूरी सरकार कभी भी गिर सकती है.

फ़्रांस की प्रधानमंत्री एलिज़ाबेथ बॉन 

आइए समझते हैं 

फ़्रांस में चल रहे प्रोटेस्ट की असल कहानी क्या है?  

ये भी जानेंगे कि मैक्रों का पेंशन रिफ़ॉर्म बिल क्या है? 

और, इसने पूरे फ़्रांस में आग क्यों लगा दी है?

यूरोप के सबसे विकसित और सबसे उदार माना जाने वाला फ़्रांस अस्त-व्यस्त चल रहा है. पिछले कई महीनों से प्रोटेस्ट और हड़ताल दिनचर्या का हिस्सा बन गए हैं. अलग-अलग सेक्टर्स के कामगार अपनी ड्यूटी छोड़कर सड़कों पर नारेबाजी कर रहे हैं. कुछ दिन पहले राजधानी पैरिस में सफ़ाई कर्मचारियों ने भी काम बंद करने का ऐलान किया था. इसके चलते लोगों का जीना मुहाल हो गया है. मीडिया रपटों के अनुसार, पैरिस की सड़कों पर सात लाख क़्विंटल से अधिक वजन का कचरा सड़ रहा है. इसके अलावा, कई और सेक्टर्स में चल रही हड़ताल के कारण आम जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ है. 16 मार्च को इस आग में सरकार ने उस समय घी डालने का काम किया, जब उसने पेंशन रिफ़ॉर्म बिल को वोटिंग के बिना पास कर दिया. फ़्रांस में चल रहे बवाल का कारण यही बिल है. 16 मार्च को फ़्रांस में लगभग 17 लाख लोगों ने प्रोटेस्ट में हिस्सा लिया. उनका गुस्सा लगातार बढ़ता जा रहा है.

16 मार्च को ही संसद की कार्यवाही के दौरान पैरिस के मुख्य चौराहे पर आगजनी की गई. पुलिस ने 70 से अधिक लोगों को अरेस्ट किया है. प्रोटेस्टर्स को हटाने के लिए आंसू गैस के गोले भी दागे गए. हालांकि, प्रोटेस्ट सिर्फ राजधानी तक ही सीमित नहीं रहा है. कई और शहरों में भी पुलिस और प्रोटेस्टर्स के बीच मुठभेड़ की रपटें आ रही हैं. इन सबके बीच ट्रेड यूनियंस ने भी प्रोटेस्ट में शामिल होने की घोषणा कर दी है. कहा जा रहा है कि आने वाले दिनों में इसका दायरा और बढ़ सकता है.

अब आप सोच रहे होंगे कि एक बिल से पूरा फ़्रांस क्यों नाराज़ है? इसका जवाब तलाशें, उससे पहले ये जान लीजिए कि 16 मार्च को क्या हुआ और उसका बैकग्राउंड क्या है?

- मई 2017 में फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों देश के अंदर पेंशन से जुड़े नियमों को बदलने की कोशिश कर रहे हैं. उनका प्लान रिटायरमेंट की उम्र बढ़ाने और कुछ सुविधाओं को घटाने का है. मकसद ये कि इससे सरकार खजाने में होने वाली कमाई और खर्च को बैलेंस किया जाए. 2019 में उन्होंने इस प्रस्ताव को आगे बढ़ाया. इसका विरोध हुआ. फिर जनवरी 2020 में कोरोना महामारी आ गई. तब इस बिल को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. मई 2022 में मैक्रों ने लगातार दूसरा राष्ट्रपति चुनाव जीत लिया. उन्होंने पेंशन बिल को बाहर निकाला. इसको पास कराने के लिए संसद का अप्रूवल ज़रूरी था. जून 2022 में नेशनल असेंबली का चुनाव हुआ. इसमें मैक्रों की पार्टी बहुमत हासिल करने से पीछे रह गई. उन्हें बहुमत के लिए दूसरी पार्टियों से हाथ मिलाना पड़ा. हालांकि, वे कई मुद्दों पर एक-दूसरे से सहमत नहीं थे. इसी वजह से मैक्रों को अपने एजेंडे पर चलना मुश्किल हो रहा था.

फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों

- 16 मार्च को पेंशन रिफ़ॉर्म बिल को फ़्रांस की संसद के दोनों सदनों में पेश किया जाना था. ऊपरी सदन सेनेट में बिल आसानी से पास हो गया. मगर निचले सदन यानी नेशनल असेंबली में विरोध की आशंका थी. इसलिए राष्ट्रपति मैक्रों और प्रधानमंत्री बॉन ने विशेषाधिकार के इस्तेमाल का फ़ैसला लिया. फ़्रांस के संविधान के आर्टिकल 49(3) में एक विशेष व्यवस्था है. इसके तहत, अगर प्रधानमंत्री चाहे तो वो कैबिनेट की मंज़ूरी से किसी बिल को बिना वोटिंग के पास करा सकते हैं. सामान्य स्थिति में किसी बिल पर नेशनल असेंबली के सभी सदस्य वोटिंग करते हैं. यानी, अपनी राय दर्ज कराते हैं. अगर बहुमत पक्ष में वोट करता है तो बिल पास हो जाता है. अगर ज़्यादा सदस्य विरोध में हुए तो बिल लटक जाता है. जैसे ही 49(3) लागू होता है, वोटिंग की ज़रूरत खत्म हो जाती है. 16 मार्च को सरकार ने यही किया. प्रधानमंत्री बॉन ने संसद में कहा कि हम पेंशन के भविष्य पर कोई जोखिम नहीं ले सकते. ये सुधार ज़रूरी है.

हम पेंशन के भविष्य से खिलवाड़ नहीं कर सकते, ये सुधार ज़रूरी है. और, चूंकि मैं सोशल मॉडल से प्रेरित हूं और संसदीय लोकतंत्र में भरोसा करती हूं, ये सबके हित में है.  संसद में बिल के पेश में जो कुछ दर्ज है, वो दोनों सदनों के बीच हुए समझौते का नतीजा है. इसी के तहत मैं अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए तैयार हूं.
इसलिए, संविधान के आर्टिकल 49 के पैरा 3 के आधार पर, मैं समूचे सोशल सिक्योरिटी अमेंडमेंट बिल 2023, जिसे नेशनल असेंबली के द्वारा मोडिफ़ाई किया गया है, के प्रति अपनी सरकार की आस्था प्रेषित करती हूं.

तो, क्या अब इस फ़ैसले को कोई चुनौती नहीं दी जा सकती? ऐसा नहीं है. संविधान में इसके ऊपर चेक एंड बैलेंस रखने के लिए दो विकल्प हैं.

- पहला विकल्प ये है कि राष्ट्रपति नेशनल असेंबली को भंग करके नए संसदीय चुनाव की घोषणा कर दें. इसकी संभावना कम है.

- दूसरे विकल्प के तहत, बिल का विरोध करने वाले सांसदों के पास सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव लाने का अधिकार है. उनके पास इसका आवेदन करने के लिए 24 घंटे का समय है. विपक्षी नेता मरीन ला पेन ने इसका ऐलान भी कर दिया है. पेन ने कहा कि सरकार लोगों की अभिव्यक्ति की आज़ादी का दमन कर रही है.

बेशक! ये अस्वीकार्य है. क्योंकि एक बार फिर ये बहुमत थोपने का सवाल नहीं है, जैसा कि आर्टिकल 49.3 के मूल में है. ये लोगों के द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों की अभिव्यक्ति को रोकने का सवाल है. उन्हें इसलिए बहुमत हासिल नहीं हो रहा था, क्योंकि वे ग़लत थे, उनका सुधार अनुचित था, ये कच्चा था, इसे ग़लत तरीके से तैयार किया गया था, इसकी सोच में खोट थी और आख़िर में इसे अनमने ढंग से पेश किया गया. खैर, ऐसी स्थिति में, जब हमें विरोध में वोटिंग की संभावना लगती है, जैसाकि इस केस में था, तब हम बिल को वापस लेते हैं. यही परंपरा रही है. हम पीछे हट जाते हैं क्योंकि यही लोकतंत्र है.

पेंशन रिफ़ॉर्म बिल के साथ-साथ मौजूदा सरकार का भविष्य भी इसी अविश्वास प्रस्ताव पर टिका है. अगर ये प्रस्ताव पास हुआ तो बिल रुक जाएगा और सरकार गिर जाएगी. अगर अविश्वास प्रस्ताव फ़ेल हो गया तो बिल अपने आप पास मान लिया जाएगा और सरकार भी बची रहेगी. अब सवाल ये उठता है कि अविश्वास प्रस्ताव के पास होने की संभावना कितनी है?
विपक्ष के प्रस्ताव को पास कराने के लिए नेशनल असेंबली में 277 वोट चाहिए. मैक्रों की पार्टी के सबसे बड़े सहयोगी लेस रिपब्लिकन्स ने बिल का विरोध किया है. हालांकि, वे अविश्वास प्रस्ताव के ख़िलाफ़ हैं. जानकारों का कहना है कि इस प्रस्ताव के पास होने की संभावना बहुत कम है. यानी, पेंशन रिफ़ॉर्म बिल तय कार्यक्रम के अनुसार आगे बढ़ेगा. उसको रोकना मुश्किल है.

बहुत संभावना है कि मैक्रों सरकार राजनैतिक चुनौती को आसानी से पार कर लेगी. लेकिन जनता की नाराज़गी से पार पाना उनके लिए ख़ासा मुश्किल होने वाला है. आपके मन में सवाल उठ रहा होगा कि जनता इस रिफ़ॉर्म बिल से इतनी नाराज़ क्यों है?

- नए बिल के तहत, फ़्रांस में रिटायरमेंट की उम्र बढ़ाकर 64 बरस कर दी जाएगी. मौजूदा समय में रिटायरमेंट की उम्र 62 साल है. सरकार इसे धीरे-धीरे बढ़ाना चाहती है. प्लान के मुताबिक, सितंबर 2023 से हर साल रिटायरमेंट की उम्र में तीन-तीन महीने की बढ़ोत्तरी की जाएगी. 64 साल वाला नियम 2030 से पूरी तरह लागू हो जाएगा.

- कामगारों को फ़ुल पेंशन पाने के लिए 43 साल तक नौकरी करना अनिवार्य होगा. मौजूदा समय में ये लिमिट 42 साल की है.

- रेलवे, इलेक्ट्रिसिटी और गैस डिपार्टमेंट में काम करने वालों के लिए विशेष व्यवस्था है. इन सेक्टर्स में रिटायरमेंट की उम्र और पेंशन स्कीम बाकियों से अलग है. नए बिल में सरकार इन पर रोक लगाने की तैयारी कर रही है.

- सरकार का तर्क ये है कि समय के साथ लोगों की औसत उम्र बढ़ रही है. यानी, लोग लंबे समय तक पेंशन उठा रहे हैं. इसका असर खजाने पर पड़ रहा है. 2000 में 10 रिटायर लोगों के पेंशन का खर्च 21 कामगार मिलकर उठाते थे. 2020 में ये भार 17 कामगारों पर पड़ने लगा. 2070 में ये भार 12 कामगारों पर आ जाएगा. उस समय तक पेंशन पाने वालों की संख्या वर्किंग पॉपुलेशन की तुलना में तीन गुणा हो जाएगी. ये भार कम करने के लिए सरकार रिटायरमेंट की उम्र और पूरी पेंशन पाने के लिए काम करने का समय बढ़ाना चाहती है. लोग जितने समय तक काम करेंगे, उतने समय तक उन्हें वेतन का एक हिस्सा सरकार का हिस्सा जमा करना होगा. इसी पैसे से सरकार रिटायर्ड लोगों को पेंशन देती है.

- फ़्रांस की लेबर मिनिस्ट्री की रिपोर्ट के अनुसार, रिटायरमेंट की उम्र बढ़ने से पेंशन स्कीम में हर साल लगभग डेढ़ लाख करोड़ रुपये से अधिक की आमदनी बढ़ेगी. इससे कम आय वाली आबादी को मदद देने में आसानी होगी.

बिल के ख़िलाफ़ प्रोटेस्ट करते फ़्रांसिसी नागरिक (AFP)

ये तो हुआ सरकारी तर्क. फ़्रांस में किए गए एक सर्वे के मुताबिक, 65 प्रतिशत से अधिक फ़्रेंच नागरिक पेंशन रिफ़ॉर्म बिल के ख़िलाफ़ हैं. क्यों? इसकी तीन बड़ी वजहें हैं. एक-एक कर जान लेते हैं:

- नंबर एक. हेल्थ फ़ैक्टर.

वर्किंग क्लास को मुख्य तौर पर दो केटेगरी में बांटा जाता है. पहली केटेगरी में वैसे कामगार आते हैं, जो मेनेजेरियल काम करते हैं. उन्हें वाइट कॉलर वर्कर्स भी कहा जाता है. वे शारीरिक ताक़त की बजाय अपने दिमाग का अधिक इस्तेमाल करते हैं.

दूसरी केटेगरी ब्लू कॉलर वर्कर्स की है. इस केटेगरी के कामगार शारीरिक श्रम करते हैं. मसलन, माइनिंग, सफ़ाई कर्मचारी, कंस्ट्रक्शन में काम करने वाले मजदूर आदि. इनका काम ज़्यादा ज़ोखिम वाला होता है. उम्र के साथ उनके काम करने की क्षमता घटती जाती है. ब्लू कॉलर वर्कर्स की औसत उम्र दूसरे सेक्टर्स के कामगारों की तुलना में कम होती है. अधिक उम्र तक शारीरिक मेहनत का असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ेगा. इसके कारण उनकी औसत उम्र और कम हो सकती है. नए बिल के लागू होने के बाद, उन्हें ज़्यादा समय तक काम करना होगा. लेकिन वे पेंशन का ठीक से लाभ नहीं उठा पाएंगे.

- नंबर दो. वैकल्पिक रास्ता.

रिफ़ॉर्म बिल के विरोधियों का कहना है कि सरकार के पास पेंशन स्कीम का पैसा बढ़ाने के कई रास्ते हैं. मसलन, सरकार लोगों की सैलरी बढ़ा सकती है. वो अमीर लोगों से ज़्यादा टैक्स ले सकती है. प्रॉफ़िट कमाने वाली कंपनियों का भी टैक्स बढ़ाया जा सकता है. ये ज़्यादा सेफ़ और उदार विकल्प है. लेकिन मैक्रों ने ये रास्ता लेने से मना कर दिया है. उनका कहना है कि इससे मार्केट में कॉम्पटीशन पर असर पड़ेगा. इसके चलते अर्थव्यवस्था ख़तरे में पड़ सकती है.
मैक्रों राजनीति में आने से पहले इन्वेस्टमेंट बैंकर थे. इसी वजह से आरोप लग रहे हैं कि वो अमीरों की गोद में खेलने वाले राष्ट्रपति बनकर रह गए हैं. वे आम जनता के ख़ून से अमीरों का अकाउंट सींच रहे हैं.

- नंबर तीन. सरकारी ज़िद.

सरकार पेंशन रिफ़ॉर्म बिल को लेकर ज़िद पर अड़ी हुई है. मैक्रों का कहना है कि वो किसी भी हालत में इससे पीछे नहीं हटेंगे. ये उनका दूसरा कार्यकाल है. वो लगातार तीसरा चुनाव नहीं लड़ सकते. फ़्रांस में राष्ट्रपति और संसद का चुनाव अलग-अलग होता है. संसद के भंग होने से उनकी कुर्सी पर कोई असर नहीं पड़ेगा. इसलिए, मैक्रों तमाम तिकड़म भिड़ाकर इस बिल को पास कराना चाहते हैं. संविधान से मिली विशेष शक्ति के इस्तेमाल के ज़रिए उन्होंने अपनी मंशा साफ़ कर दी है.
दूसरी तरफ़, बिल के ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहा धड़ा रिटायरमेंट की उम्र को 60 साल करने की मांग कर रहा है. इस धड़े का आरोप है कि सरकार लोगों को मशीन समझ रही है. वो अधमरा होने तक लोगों से काम कराना चाहती है. अब ये नहीं चलेगा.

दोनों पक्ष अपने-अपने तर्कों के सहारे अपनी दिशा में बढ़ रहे हैं. कौन सही, कौन ग़लत इस पर लंबी बहस की गुंजाइश है. बहस होगी भी. लेकिन इसने पूंजीवाद का एक बेहद क्रूर हिस्सा हमारे सामने ला दिया है. इस हिस्से में मानवतावादी पहलुओं के लिए कोई जगह नहीं बचती.

इन सबके बावजूद फ़्रांस के प्रोटेस्ट ने अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार को भी पुष्ट किया है. ये किसी भी लोकतंत्र की सफ़लता की सबसे बड़ी शर्त है कि वहां की जनता अपनी राय रखने में कितनी सफ़ल है. इसका इतिहास क्या है?

फ़्रांस में प्रोटेस्ट का इतिहास सदियों पुराना है. पहले बड़े विद्रोह का उदाहरण 1789 का है. जब फ़्रांस की जनता ने तत्कालीन राजा लुई सिक्सटीन्थ को गद्दी से उतार दिया था.
1864 में फ़्रांस में लोगों को हड़ताल का अधिकार मिला. इसके तहत, वर्कर्स बिना किसी पूर्व सूचना के काम बंद कर सकते थे. यूरोप के अधिकतर देशों में इसके उलट व्यवस्था है. वहां हड़ताल करने से पहले नोटिस देना होता है. फ़्रांस में बिना नोटिस दिए लोग हड़ताल पर जा सकते हैं.

1968 के साल में यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स ने प्रोटेस्ट शुरू किया. सरकार ने उन्हें दबाने के लिए हिंसा की. वर्कर्स ने इसका विरोध किया. धीरे-धीरे उनकी संख्या बढ़ती गई. जल्दी ही प्रोटेस्ट का मजमून बदल चुका था. अब वे न्यूनतम मजदूरी और दूसरी बुनियादी सुविधाएं बढ़ाने की मांग करने लगे. सरकार को उनकी मांगों के आगे झुकना पड़ा. इसके बाद भी फ़्रांस में कई ऐसे प्रोटेस्ट हुए, जिसमें सरकार को अपनी ज़िद छोड़नी पड़ी.

हालिया उदाहरण 2018 का है. उस समय कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोत्तरी के ख़िलाफ़ येलो वेस्ट मूवमेंट शुरू हुआ. आगे चलकर इसमें और भी विषय जुड़ते गए. इस प्रोटेस्ट में 30 लाख से अधिक लोगों ने हिस्सा लिया. येलो वेस्ट कई देशों में प्रोटेस्ट का सिंबल बन गया.

पेंशन रिफ़ॉर्म बिल को लेकर चल रहा विरोध फ़्रांस में क्रांति की इसी परंपरा का एक ज़रूरी हिस्सा है. इसका नतीजा फ़्रांस समेत पूरी दुनिया में लोकतंत्र का चरित्र तय करने वाला है.

अब ये जान लेते हैं कि, इस प्रोटेस्ट में नया क्या हुआ?

- राष्ट्रपति मैक्रों ने आर्टिकल 49(3) के इस्तेमाल को जायज ठहराया है. उन्होंने कहा कि इसका आर्थिक नुकसान कहीं ज़्यादा था. इसलिए,

- देश की अधिकतर ट्रेड यूनियंस ने हड़ताल में हिस्सा लेने का ऐलान किया है. उनका कहना है कि वे सारा काम रोक देंगे. इसके कारण फ़्रांस के ठप पड़ने की आशंका बढ़ गई है.

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